Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 146] [प्रश्तव्याकरणसूत्र : श्रु. 1, अ. 5 इस प्रकार ये तीस नाम परिग्रह के विराट रूप को सूचित करते हैं। शान्ति, सन्तोष, समाधि और प्रानन्दमय जीवन यापन करने वालों को परिग्रह के इन रूपों को भलीभाँति समझ कर त्यागना चाहिए। परिग्रह के पाश में देव एवं मनुष्य गण भी बंधे हैं ९५-तं च पुण परिग्गरं ममायंति लोहघत्था भवणवर-विमाण-वासिणो परिग्गहरुई परिग्गहे विविहकरणबुद्धी देवणिकाया य असुर-भुयग-गरुल-विज्जु-जलण-दीव-उदहि-दिसि-पवण-णिय-अणवणिय-पणवण्णिय-इसिवाइय-भूयवइय-कंदिय-महाकंदिय-कुहंड-पयंगदेवा पिसाय-भूय-जक्ख-रक्खसकिण्णर-किंपुरिस-महोरग-गंधवा य तिरियवासी / पंचविहा जोइसिया य देवा बहस्सई-चंद-सूर-सुक्कसणिच्छरा राहु-धमकेउ-बुहा य अंगारका य तत्ततवणिज्जकणयवण्णा जे य गहा जोइसिम्मि चारं चरंति, केऊ य गइरईया अट्ठावीसइविहा य णक्खत्तदेवगणा णाणासंठाणसंठियाओ य तारगाओ ठियलेस्सा चारिणो य अविस्साम-मंडलगई उवरिचरा। उड्डलोयवासी दुविहा वेमाणिया य देवा सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिद-बंभलोय-लंतकमहासुयक-सहस्सार-आणय-पाणय-आरण-अच्चुया कप्पवरविमाणवासिणो सुरगणा, विज्जा अणुत्तरा दुविहा कप्पाईया विमाणवासी महिड्डिया उत्तमा सुरवरा एवं च ते चउब्विहा सपरिसा वि देवा ममायंति भवण-वाहण-जाण-विमाण-सयणासणाणि य गाणाविहवत्थभूसणाप वरपहरणाणि य णाणामणिपंचवण्णदिव्वं य भायणविहिं गाणाविहकामरूवे वेउन्धियअच्छरगणसंघाते दीव-समुद्दे दिसाओ विदिसाओ चेइयाणि वणसंडे पव्वए य गामणयराणि य आरामुज्जाणकाणणाणि य कब-सर-तलाग-वाविदीहिय-देवकुल-सभप्पव-वसहिमाइयाई बहुयाई कित्तणाणि य परिगिण्हित्ता परिग्गहं विउलदवसारं देवावि सईदगा ण तित्ति ण तुट्टि उवलभंति / अच्चंत-विउललोहाभिभूयसत्ता वासहर-इवखुगार-बट्टपव्वय-कुडल-रुयग-वरमाणुसोत्तर-कालोदहि-लक्षण-सलिल-दहपइ-रइकर-अंजणक-सेल-दहिमुह-ओवाउप्पाय-कंचणक-चित्त-विचित्त-जमकवरिसिहरिकूडवासी। वक्खार-अकम्मभूमिसु सुविभत्तभागदेसासु कम्मभूमिसु जे वि य जरा चाउरंतचक्कवट्टी वासुदेवा बलदेवा मंडलीया इस्सरा तलवरा सेणावई इभा सेट्ठी रट्ठिया पुरोहिया कुमारा दंडणायगा माइंबिया सत्थवाहा कोडुबिया अमच्चा एए अण्णे य एवमाई परिग्गहं संचिणंति अणंत असरणं दुरंतं अधुवमणिच्चं असासयं पावकम्मणेम्मं अवकिरियव्वं विणासमूलं वहबंधपरिकिलेसबहुलं अणंतसंकिलेसकारणं, ते तं धणकणगरयणणिचयं पिडिया चेव लोहत्था संसारं अइवयंति सव्वदुक्खसंणिलयणं / ६५.--उस (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) परिग्रह को लोभ से ग्रस्त--लालच के जाल में फंसे हुए, परिग्रह के प्रति रुचि रखने वाले, उत्तम भवनों में और विमानों में निवास करने वाले (भवनवासी एवं वैमानिक) ममत्वपूर्वक ग्रहण करते हैं। नाना प्रकार से परिग्रह को संचित करने की बुद्धि वाले देवों के निकाय---समूह, यथा-प्रसुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, ज्वलन (अग्नि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org