Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 130] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : बु. 1, अ. 4 श्वेत कमल के समान विकसित (प्रमुदित) एवं धवल होते हैं / उनकी भ्र --भौंहें किंचित् नीचे झुकाए धनुष के समान मनोरम, कृष्ण अभ्रराजि-मेघों की रेखा के समान काली, उचित मात्रा में लम्बी एवं सुन्दर होती हैं। कान आलीन-किचित् शरीर से चिपके हुए-से और उचित प्रमाण वाले होते हैं। अतएव उनके कान सुन्दर होते हैं या सुनने की शक्ति से युक्त होते हैं। उनके कपोलभागगाल तथा उनके आसपास के भाग परिपुष्ट तथा मांसल होते हैं / उनका ललाट अचिर उद्गत-- जिसे उगे अधिक समय नहीं हुआ, ऐसे बाल-चन्द्रमा के आकार का तथा विशाल होता है / उनका मुखमण्ड पूर्ण चन्द्र के सदश सौम्य होता है। मस्तक छत्र के प्राकार का उभरा हा होता है। उनके सिर का अग्रभाग मुद्गर के समान सुदृढ नसों से आबद्ध, प्रशस्त लक्षणों-चिह्नों से सुशोभित, उन्नत उभरा हुआ, शिखरयुक्त भवन के समान और गोलाकार पिण्ड जैसा होता है। उनके मस्तक की चमड़ी टांट—अग्नि में तपाये और फिर धोये हुए सोने के समान लालिमायुक्त एवं केशों वाली होती है / उनके मस्तक के केश शाल्मली (सेमल) वृक्ष के फल के समान सघन, छांटे हुएमानो घिसे हुए, बारीक, सुस्पष्ट, मांगलिक, स्निग्ध, उत्तम लक्षणों से युक्त, सुवासित, सुन्दर, भुजमोचक रत्न जैसे काले वर्ण वाले, नीलमणि और काजल के सदृश तथा हर्षित भ्रमरों के झुंड को तरह काली कान्ति वाले, गुच्छ रूप, कुंचित-धुंघराले, दक्षिणावर्त्त-दाहिनी ओर मुड़े हुए होते हैं / उनके अंग सुडौल, सुविभक्त--यथास्थान और सुन्दर होते हैं / वे यौगलिक उत्तम लक्षणों, तिल आदि व्यंजनों तथा गुणों से (अथवा लक्षणों और व्यंजनों के गुणों से) सम्पन्न होते हैं / वे प्रशस्त---शुभ-मांगलिक बत्तीस लक्षणों के धारक होते हैं। वे हंस के, कौंच पक्षी के, दुन्दुभि के एवं सिंह के समान स्वर–आवाज वाले होते हैं। उनका स्वर अोध होता हैअविच्छिन्न और अत्रुटित होता है / उनकी ध्वनि मेघ की गर्जना जैसी होती है, अतएव कानों को प्रिय लगती है। उनका स्वर और निर्घोष—दोनों ही सुन्दर होते हैं। वे वज्रऋषभनाराचसंहनन और समचतुरस्रसंस्थान के धारक होते हैं। उनके अंग-प्रत्यंग कान्ति से देदीप्यमान रहते हैं। उनके शरीर की त्वचा प्रशस्त होती है। वे नीरोग होते हैं और कंक नामक पक्षी के समान अल्प आहार करते हैं। उनकी आहार को परिणत करने-पचाने की शक्ति कबूतर जैसी होती है। उनका मल-द्वार पक्षी जैसा होता है, जिसके कारण मल-त्याग के पश्चात् वह मल-लिप्त नहीं होता। उनकी पीठ, पार्श्वभाग और जंघाएँ सुन्दर, सुपरिमित होती हैं / पद्म–कमल और उत्पल-नील कमल की सुगन्ध के सदृश मनोहर का श्वास एवं मुख सुगन्धित रहता है। उनके शरीर की वायु का वेग सदा अनुकल रहता है। वे गौर-वर्ण, स्निग्ध तथा श्याम होते हैं (या उनके सिर पर चिकने और काले बाल होते हैं।) उनका उदर शरीर के अनुरूप उन्नत होता है। वे अमृत के समान रस वाले फलों का पाहार करते हैं / उनके शरीर को ऊँचाई तोन गव्यूति की और आयु तीन पल्योपम की होती है। पूरी तीन पल्योपम की आयु को भोग कर वे अकर्मभूमि-भोगभूमि के मनुष्य (अन्त तक) कामभोगों से अतृप्त रहकर ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं। विवेचन-उल्लिखित सूत्रों में यद्यपि देवकुरु और उत्तरकुरु नामक अकर्मभूमि-भोगभूमि के नाम का उल्लेख किया गया है, तथापि वहाँ के मनुष्यों के वर्णन में जो कहा गया है, वह प्रायः सभी अकर्मभूमिज मनुष्यों के लिए समझ लेना चाहिए। देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत हैं। इन दो क्षेत्र-विभागों के अतिरिक्त शेष समग्र महाविदेह कर्मभूमि है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org