Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अकर्मभूमिज नारियों की शरीर-सम्पदा ] उच्चत्तेण य गराण थोवूणमूसियाओ सिंगारागारचारुवेसाओ सुदरथणजहणवयणकरचरणणयणा लावण्णरूवजोवणगुणोववेया णंदणवणविवरचारिणीओ अच्छराओव्य उत्तरकुरुमाणुसच्छराओ अच्छेरगपेच्छणिज्जियाओ तिण्णि य पलिओवमाइं परमाउं पालइत्ता ताओ वि उवणमंति मरणधम्म अवितित्ता कामाणं / ___८९—उन (युगलिकों) की स्त्रियाँ भी सौम्य अर्थात् शान्त एवं सात्त्विक स्वभाव वाली होती हैं। उत्तम सर्वांगों से सुन्दर होती हैं। महिलाओं के सब प्रधान--श्रेष्ठ गुणों से युक्त होती हैं / उनके चरण---पैर अत्यन्त रमणीय, शरीर के अनुपात में उचित प्रमाण वाले अथवा चलते समय भी अतिकोमल, कच्छप के समान उभरे हुए और मनोज्ञ होते हैं। उनकी उंगलियाँ सीधी, कोमल, पुष्ट और निश्छिद्र-एक दूसरे से सटी हुई होती हैं / उनके नाखून उन्नत, प्रसन्नताजनक, पतले, निर्मल और चमकदार होते हैं। उनकी दोनों जंघाएँ रोमों से रहित, गोलाकार श्रेष्ठ मांगलिक लक्षणों से सम्पन्न और रमणीय होती हैं। उनके घुटने सुन्दर रूप से निर्मित तथा मांसयुक्त होने के कारण निगूढ होते हैं। उनकी सन्धियाँ मांसल, प्रशस्त तथा नसों से सुबद्ध होती हैं। उनकी ऊपरी जंघाएँ--सांथल कदली-स्तम्भ से भी अधिक सुन्दर आकार की, घाव आदि से रहित, सुकुमार, कोमल, अन्तररहित, समान प्रमाण वाली, सुन्दर लक्षणों से युक्त, सूजात, गोलाकार और पुष्ट होती हैं। उनकी श्रोणि--- कटि अष्टापद टापद-द्यतविशेष खेलने के लहरदार पट के समान प्राकार बाली, श्रेष्ठ और विस्तीर्ण होती है। वे मुख को लम्बाई के प्रमाण से अर्थात् बारह अंगुल से दुगुने अर्थात् चौबीस अंगुल विशाल, मांसल-पुष्ट, गढे हुए श्रेष्ठ जघन--कटिप्रदेश से नीचे के भाग को धारण करने वाली होती हैं / उनका उदर बज्र के समान (मध्य में पतला) शोभायमान, शुभ लक्षणों से सम्पन्न एवं कृश होता है। उनके शरीर का मध्यभाग त्रिवलि-तीन रेखाओं से युक्त, कृश और नमित-झुका हुया होता है। उनकी रोमराजि सीधी, एक-सी, परस्पर मिली हुई, स्वाभाविक, बारीक, काली, मुलायम, प्रशस्त, ललित, सुकुमार, कोमल और सुविभक्त यथास्थानवर्ती होती है। उनकी नाभि गंगा नदी के भंवरों के समान, दक्षिणावर्त चक्कर वाली तरंगमाला जैसी, सूर्य की किरणों से ताजा खिले हुए और नहीं कुम्हलाए हुए कमल के समान गंभीर एवं विशाल होती है। उनकी कुक्षि अनुद्भट नहीं उभरी हुई, प्रशस्त, सुन्दर और पुष्ट होती है। उनका पार्श्वभाग सन्नत-उचित प्रमाण में नीचे झुका, सुगठित और संगत होता है तथा प्रमाणोपेत, उचित मात्रा में रचित, पुष्ट और रतिद-प्रसन्नताप्रद होता है। उनकी गात्रयष्टि--देह पीठ की उभरी हई अस्थि से रहित, शुद्ध स्वर्ण से निर्मा आभूषण के समान निर्मल या स्वर्ण की कान्ति के समान सुगठित तथा नीरोग होती है। उनके दोनों पयोधर स्तन स्वर्ण के दो कलशों के सदृश, प्रमाणयुक्त, उन्नत--उभरे हुए, कठोर तथा मनोहर चूची (स्तनाग्रभाग) वाले तथा गोलाकार होते हैं। उनकी भुजाएँ सर्प की आकृति सरीखी क्रमशः पतली, गाय की पूछ के समान गोलाकार, एक-सी, शिथिलता से रहित, सुनमित, सुभग एवं ललित होती हैं / उनके नाखून ताम्रवर्ण-लालिमायुक्त होते हैं / उनके अग्रहस्त-कलाई या हथेली मांसल-पुष्ट होती है। उनकी अंगुलियाँ कोमल और पुष्ट होती हैं। उनकी हस्तरेखाएँ स्निग्ध-चिकनी होती हैं तथा चन्द्रमा, सूर्य, शंख, चक्र एवं स्वस्तिक के चिह्नों से अंकित एवं सुनिर्मित होती हैं / उनकी कांख और मलोत्सर्गस्थान पुष्ट तथा उन्नत होते हैं एवं कपोल परिपूर्ण तथा गोलाकार होते हैं। उनकी ग्रीवा चार अंगुल प्रमाण वालो एवं उत्तम शंख जैसी होती है। उनकी ठुड्डी मांस से पुष्ट, सुस्थिर तथा प्रशस्त होती है / उनके अधरोष्ठ-नीचे के होठ अनार के खिले फूल जैसे लाल, कान्तिमय, पुष्ट, कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org