Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ मृषावादी] पहले यह जगत् अन्धकार रूप था / यह न किसी से जाना जाता था, न इसका कोई लक्षण (पहचान) था / यह तर्क-विचार से अतीत और पूरी तरह से प्रसुप्त-सा अज्ञेय था। तब अव्यक्त रहे हुए भगवान् स्वयंभू पांच महाभूतों को प्रकट करते हुए स्वयं प्रकट हुए। यह जो अतीन्द्रिय, सूक्ष्म, अव्यक्त, सनातन, सर्वान्तर्यामी और अचिन्त्य परमात्मा है, वह स्वयं (इस प्रकार) प्रकट हुमा / उसने ध्यान करके अपने शरीर से अनेक प्रकार के जीवों को बनाने की इच्छा से सर्वप्रथम जल का निर्माण किया और उसमें बीज डाल दिया / वह बीज सूर्य के समान प्रभा वाला स्वर्णमय अंडा बन गया / उससे सर्वलोक के पितामह ब्रह्मा स्वयं प्रकट हुए। नर-परमात्मा से उत्पन्न होने के कारण जाल को नार कहते हैं। वह नार इसका पूर्व घर (मायन) है, इसलिए इसे नारायण कहते हैं / जो सब का कारण है, अव्यक्त और नित्य है तथा सत् और असत् स्वरूप है, उससे उत्पन्न वह पुरुष लोक में ब्रह्मा कहलाता है। एक वर्ष तक उस अंडे में रहकर उस भगवान ने स्वयं ही अपने ध्यान से उस अंडे के दो टुकड़े कर दिए। उन दो टुकड़ों से उसने स्वर्ग और पृथ्वी का निर्माण किया। मध्यभाग से आकाश, पाठ दिशाओं और जल का शाश्वत स्थान निर्मित किया। इस क्रम के अनुसार पहले भगवान् स्वयंभू प्रकट हुए और जगत् को बनाने की इच्छा से अपने शरीर से जल उत्पन्न किया। फिर उसमें बीज डालने से वह अंडाकार हो गया। ब्रह्मा या नारायण ने अंडे में प्रकट होकर उसे फोड़ दिया, जिससे समस्त संसार प्रकट हुआ। इन सब मान्यताओं को यहाँ मषावाद में परिगणित किया गया है / जैसा कि आगे कहा जायगा, जीवाजीवात्मक अथवा षड्द्रव्यात्मक लोक अनादि और अनन्त है / न कभी उत्पन्न होता है और न कभी इसका विनाश होता है। द्रव्यरूप से नित्य और पर्याय रूप से अनित्य है / तदण्डमभवद्ध मं, सहस्रांशुसमप्रभम् / तस्मिन् जज्ञे स्वयं ब्रह्मा, सर्वलोकपितामहः // पापो नारा इति प्रोक्ता, पापो वै नरसूनवः / ता यदस्यायनं पूर्व, तेन नारायणः स्मृतः / / यत्तत्कारणमव्यक्तं, नित्यं सदसत्कारणम् / तद्विसृष्ट: स पुरुषो, लोके ब्रह्मति कीय॑ते / / तस्मिन्नण्डे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम् / स्वयमेवात्मनो ध्यानात्तदण्डमकरोद् द्विधा / / ताभ्यां स शकलाभ्यां च, दिवं भूमि च निर्ममे / मध्ये व्योम दिशश्चाष्टावपां स्थानञ्च शाश्वतम् / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org