Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 106] [ प्रश्नव्याकरणसूत्र :श्र. 1, अ. 3 करता चउरंतमहंत-मणवयग्गं रुई संसारसागरं अट्टियं प्रणालंबण-मपइठाण-मप्पमेयं चुलसीइ-जोणिसयसहस्सगुविलं प्रणालोकमंधयारं प्रणंतकालं णिच्चं उत्तत्थसुण्णभयसण्णसंपउत्ता वसंति, उब्धिग्गवासवहिं। हिं प्राउयं णिबंधति पावकम्मकारी, बंधव-जण-सयण-मित्तपरिवज्जिया अणिट्ठा भवति प्रणाइज्जविणीया कुठाणा-सण-कुसेज्ज-कुभोयणा असुइणो कुसंघयण-कुप्पमाण-कुसंठिया, कुरूवा बहु-कोह-माण-माया-लोहा बहुमोहा धम्मसण्ण-सम्मत्त-परिभट्ठा दारिद्दोबद्दवाभिभूया णिच्च परकम्मकारिणो जीवणस्थरहिया किविणा परपिंडतषकगा दुक्खलद्धाहारा परस-विरस-तुच्छ-कय-कुच्छिपूरा परस्स पेच्छता रिद्धि-सरकार-भोयणविसेस-समुदयविहिं गिदंता प्रप्पगं कयंतं च परिवयंता इह य पुरेकडाई कम्माइं पावगाइं विमणसो सोएण डझमाणा परिभूया होंति, सत्तपरिवज्जिया य छोभा सिप्पकला-समय-सत्थ-परिवज्जिया जहाजायपसुभूया अवियत्ता णिच्च-णीय-कम्मोवजीविणो लोग-कुच्छणिज्जा मोघमणोरहा णिरासबहुला। ७७---(बन्धनों से जकड़ा वह जीव अनन्त काल तक संसार-सागर में ही परिभ्रमण करता रहता है। संसार-सागर का स्वरूप कैसा है, यह एक सांगोपांग रूपक द्वारा शास्त्रकार निरूपित करते हैं--) नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में गमनागमन करना संसार-सागर की बाह्य परिधि है / जन्म, जरा और मरण के कारण होने वाला गंभीर दुःख ही संसार-सागर का अत्यन्त क्षुब्ध जल है। संसार-सागर में संयोग और वियोग रूपी लहरें उठती रहती हैं। सतत--निरन्तर चिन्ता ही उसका प्रसार-फैलाव-विस्तार है / वध और बन्धन ही उसमें लम्बी-लम्बी, ऊंची एवं विस्तीर्ण तरंगें हैं। उसमें करुणाजनक विलाप तथा लोभ की कलकलाहट की ध्वनि की प्रचुरता है। उसमें अपमान रूपी फेन होते हैं—अवमानना या तिरस्कार के फेन व्याप्त रहते हैं / तीव्र निन्दा, पुनः पुनः उत्पन्न होने वाले रोग, वेदना, तिरस्कार, पराभव, अधःपतन, कठोर झिड़कियाँ जिनके कारण प्राप्त होती हैं, ऐसे कठोर ज्ञानावरणीय प्रादि कर्मों रूपी पाषाणों से उठी हुई तरंगों के समान चंचल है। सदैव बना रहने वाला मृत्यु का भय उस संसार-समुद्र के जल का तल है / वह संसार-सागर कषायरूपी पाताल-कलशों से व्याप्त है / लाखों भवों की परम्परा ही उसकी विशाल जलराशि है / वह अनन्त है-उसका कहीं ओर-छोर दृष्टिगोचर नहीं होता / वह उद्वेग उत्पन्न करने वाला और तटरहित होने से अपार है / दुस्तर होने के कारण महान् भय रूप है। भय उत्पन्न करने वाला है। उसमें प्रत्येक प्राणी को एक दूसरे के द्वारा उत्पन्न होने वाला भय बना रहता है / जिनकी कहीं कोई सीमा--अन्त नहीं, ऐसी विपुल कामनाओं और कलुषित बुद्धि रूपी पवन आंधी के प्रचण्ड वे कारण उत्पन्न तथा आशा (अप्राप्त पदार्थ को प्राप्त करने की अभिलाषा) और पिपासा (प्राप्त भोगोपभोगों को भोगने की लोलुपता) रूप पाताल, समुद्रतल से कामरति-शब्दादि विषयों सम्बन्धी अनुराग और द्वष के बन्धन के कारण उत्पन्न विविध प्रकार के संकल्परूपी जल-कणों की प्रचुरता से वह अन्धकारमय हो रहा है / संसार-सागर के जल में प्राणी मोहरूपी भंवरों (पावत्तों) में भोगरूपी गोलाकार चक्कर लगा रहे हैं, व्याकुल होकर उछल रहे हैं तथा बहुत-से बीच के हिस्से में फैलने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org