Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 118 प्रश्नध्याकरणसूत्र :थ. 1, अ. 4 चक्रवर्ती को ऋद्धि बत्तीसंवररायसहस्साणुजायमग्गा चउसद्विसहस्सपवरजुवतीणणयणकता रत्ताभा परमपम्ह कोरंटगदामचंपकसुतविययवरकणकणिहसवण्णा सुवण्णा' सुजायसव्यंगसुंदरंगा महग्धवरपट्टणुग्गयविचित्तरागएणिपेणिणिम्मिय-दुगुल्लवरचीणपट्टकोसेज्ज-सोणिसुत्तगविभूसियंगा वरसुरभि-गंधवरचुण्णवासवरकुसुमभरियसिरया कप्पियछेयायरियसुकयरइतमालकडगंगयतुडियपवरभूसपिणद्धदेहा एकालिकंठसुरइयवच्छा पालंब पलंबमाणसुकयपउउत्तरिज्जमुद्दियापिंगलंगुलिया उज्जल-णेवत्थरइयचेल्लगविरायमाणा तेएण दिवाकरोव्व दित्ता सारयणवत्थणियमहुरगंभोरणिद्धघोसा उप्पण्णसमत्त-रयण-चक्करयणप्पहाणा णवणिहिवइणो समिद्धकोसा चाउरंता चाउराहिं सेणाहिं समणुजाइज्जमाणमग्गा तुरयवई गयवई रहवई णरवई विपुलकुलवीसुयजसा सारयससिसकलसोमवयणा सूरा तिलोक्कणिग्गयपभावलद्धसद्दा समत्तभरहाहिवा रिदा ससेल-वण-काणणं च हिमवंतसागरंतं धीरा भुत्तण भरहवासं जियसत्तू पवररायसीहा पुवकडतवप्पभावा णिविट्ठसंचियसुहा, अणेगवाससयमायुवंतो भज्जाहि य जणवयप्पहाणाहि लालियंता अतुल-सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे य अणुभवेत्ता ते वि उवणमंति मरणधम्म अवितत्ता कामाणं / 83, 84, ८५–पुनः असुरों, सुरों, तिर्यंचों और मनुष्यों सम्बन्धी भोगों में रतिपूर्वक विहार--- विविध प्रकार की कामक्रीडानों में प्रवृत्त, सुरेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा सत्कृत-सम्मानित, देवलोक में देवेन्द्र सरीखे, भरत क्षेत्र में सहस्रों पर्वतों, नगरों, निगमों-- व्यापारियों वाली वस्तियों, जनपदों--प्रदेशों, पुरवरों राजधानी आदि विशिष्ट नगरों, द्रोणमुखों-जहाँ जलमार्ग और स्थलमार्ग-दोनों से जाया जा सके ऐसे स्थानों, खेटों-धूल के प्राकार वाली वस्तियों, कर्बटों-कस्बों-जिन के आस-पास दूर तक कोई वस्ती न हो ऐसे स्थानों, संवाहों-छावनियों, पत्तनों व्यापार-प्रधान नगरियों से सशोभित, सरक्षित होने के कारण निश्चिन्त-स्थिर लोगों के निवास वाली. एकच्छत्र-एक के आधिपत्य वाली एवं समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का उपभोग करके चक्रवर्ती-जो मनुष्यों में सिंह के समान शूरवीर होते हैं, जो नरपति हैं, नरेन्द्र हैं—मनुष्यों में सर्वाधिक ऐश्वर्यशाली हैं, जो नर-वृषभ हैंस्वीकार किये उत्तरदायित्व को निभाने में समर्थ हैं, जो मरुभूमि के वृषभ के समान सामर्थ्यवान् हैं, अत्यधिक राज-तेज रूपी लक्ष्मी-वैभव से देदीप्यमान हैं जिनमें असाधारण राजसी तेज देदीप्यमान हो रहा है, जो सौम्य-शान्त एवं नीरोग हैं, राजवंशों में तिलक के समान-श्रेष्ठ हैं, जो सूर्य, चन्द्रमा, शंख, चक्र, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कच्छप--कछुवा, उत्तम रथ, भग-योनि, भवन, विमान, अश्व, तोरण, नगरद्वार, मणि (चन्द्रकान्त अादि), रत्न, नंद्यावर्त्त-नौ कोणों वाला स्वस्तिक, मूसल, हल, सुन्दर कल्पवृक्ष, सिंह, भद्रासन, सुरुचि---एक विशिष्ट प्राभूषण, स्तूप, सुन्दर मुकुट, मुक्तावली हार, कुडल, हाथी, उत्तम बैल, द्वीप, मेरुपर्वत या घर, गरुड़, ध्वजा, इन्द्रकेतुइन्द्रमहोत्सव में गाड़ा जाने वाला स्तम्भ, दर्पण, अष्टापद--वह फलक या पट जिस पर चौपड़ आदि खेली जाती है या कैलाश पर्वत, धनुष, बाण, नक्षत्र, मेघ, मेखला-करधनी, वीणा, गाड़ी का जूा, छत्र, दाम-माला, दामिनी—पैरों तक लटकती माला, कमण्डलु, कमल, घंटा, उत्तम पोतजहाज, सुई, सागर, कुमुदवन अथवा कुमुदों से व्याप्त तालाब, मगर, हार, गागर-जलघट या एक 1. 'सुवण्णा' शब्द ज्ञानविमलसूरि वाली प्रति में ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org