Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ संसार-सागर [105 छुटकारा पाकर पुनः अनन्तर भव में नरक में उत्पन्न नहीं होता, अतः चोर का जीव किसी तिर्यंच को पर्याय में जन्म लेता है। वहाँ भी उसे नरक जैसे कष्ट भोगने पड़ते हैं। तिर्यंचगति से मर कर जीव पुनः तिर्यंच हो सकता है, अतएव वह वार-वार तिर्यंचों में और बीच-बीच में नरकगति में जन्म लेता और मरता रहता है / यों जन्म-मरण करते-करते अनन्त काल तक व्यतीत हो जाता है। तत्पश्चात् कभी किसी पुण्य-प्रभाव से मनुष्यगति प्राप्त करता है तो नीच कूल में जन्म लेता है और पशुओं सरीखा जीवन व्यतीत करता है। उसकी रुचि पापकर्मों में ही रहती है। वार-वार नरकभव में उत्पन्न होने के कारण उसकी मति ही ऐसी हो जाती है कि अनायास ही वह पापों में प्रवृत्त होता है। नरकगति और तिर्यचगति में होने वाले दुःखों का प्रथम प्रास्रवद्वार में विस्तारपूर्वक वर्णन किया जा चुका है, अतएव वहीं से समझ लेना चाहिए। पापी जीव अपनी प्रात्मा को किस प्रकार कर्मों से वेष्टित कर लेता है, इसके लिए मूल पाठ में 'कोसिकारकीडोव्व' अर्थात कोशिकारकीट-रेशमी कीड़े की बहत सुन्दर उपमा दी गई है। यह कीड़ा अपनी ही लार से अपने आपको वेष्टित करने वाले कोश का निर्माण करता है। उसके मुख से निकली लार तन्तुओं का रूप धारण कर लेती है और उसी के शरीर पर लिपट कर उसे घेर लेती है। इस प्रकार वह कीड़ा अपने लिए आप ही बन्धन तैयार करता है। इसी प्रकार पापी जीव स्वयं अपने किये कर्मों द्वारा बद्ध होता है। संसार-सागर ७७–एवं ण रग-तिरिय-जर-अमर-गमण-पेरंतचक्कवालं जम्मजरामरणकरणगंभीरदुक्खपक्खुभियपउरसलिलं संजोगवियोगबीची-चितापसंग-पसरिय-वह-बंध-महल्ल-विपुलकल्लोलं कलुणविलविय-लोभ-कलकलित-बोलबहुलं अवमाणणफेणं तिखिसणपुलपुलप्पभूय-रोग-वेयण-पराभवविणिवायफरुस-धरिसण-समावडिय-कठिणकम्मपत्थर-तरंग-रंगंत-णिच्च-मच्चु-भयतोयपढें कसायपायालसंकुलं भव-सयसहस्सजलसंचयं अणंतं उन्वेयगयं अणोरपारं महन्मयं भयंकरं पइभयं अपरिमियमहिच्छ-कलुस-मइ-वाउवेगउद्धम्ममाणं प्रासापिवासपायाल-काम-रइ-रागदोस-बंधण-बहुविहसंकप्पविउलदगरयरयंधकारं मोहमहावत्त-भोगभममाणगुप्पमाणुच्छलत-बहुगम्भवासपच्चोणियत्तपाणियं पहाविय-वसणसमावण्ण रुण्ण-चंडमारुयसमाहया मणुण्णवीची-वाकुलियभग्गफुट्टतणिटुकल्लोल-संकुलजलं पमायबहुचंडदुट्ठसावयसमाह्यउद्धायमाणगपूरघोरविद्ध सणस्थबहुलं अण्णाणभमंत-मच्छपरिहत्थं अणिहुतिदिय-महामगरतुरिय-चरिय- खोखुकभमाण-संतावणिचयचलंत-चवल- चंचल-प्रत्ताण-प्रसरण-पुवकयकामसंचयोदिण्ण-वज्जबेइज्जमाण-दुहसय-विवागघुण्णंतजल-समूहं / इड्ढि-रस-साय गारवोहार-गहिय- कम्मपडिबद्ध-सत्तकडिज्जमाण- णिरयतलहुत्त-सण्णविसण्णबहुलं अरइ-रइ-भय-विसाय-सोगमिच्छत्तसेलसंकडं प्रणाइसंताण-कम्मबंधण-किलेसचिक्खिल्लसुदुत्तारं अमर-णर-तिरिय-णिरयगइ-गमण-कुडिलपरियत्त-विपुलवेलं हिंसा-लिय-अदत्तादाण मेहणपरिग्गहारंभकरण-कारावणा-णुमायण-अदविह-अणिकपिडिय-गुरुभारक्तदुग्गजलोध-दूरपणोलिज्जमाण-उम्मग-णिमग्ग-दुल्लभतलं सारीरमणोमयाणि दुक्खाणि उप्पियंता सायस्सायपरितावणमयं उब्बुड्डणिब्बुड्डयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org