Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रजापति का सृष्टिसर्जन] ईश्वर को ही कर्मफल का प्रदाता मानते हैं। ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर ही संसारी जीव स्वर्ग या नरक में जाता है। इस प्रकार जगत् की सृष्टि के विषय में, यों तो 'मुण्डे मुण्डे मतिभिन्ना' इस लोकोक्ति के अनुसार अनेकानेक मत हैं, तथापि यहाँ मुख्य रूप से तीन मतों का उल्लेख किया गया है—अंडे से सृष्टि, प्रजापति द्वारा सृष्टि और ईश्वर द्वारा सृष्टि / किन्तु सृष्टि-रचना की मूल कल्पना ही भ्रमपूर्ण है। वास्तव में यह जगत् सदा काल से है और सदा काल विद्यमान रहेगा। इस विशाल एवं विराट् जगत् के मूलभूत तत्त्व जीव और अजीव हैं / ये दोनों तत्त्व न कभी सर्वथा उत्पन्न होते हैं और न कभी सर्वथा विनष्ट होते हैं। जगत का एक भी परमाण न सत से असत हो सकता है और न असत से सत् ही हो सकता है। साधारणतया लो विनाश कहलाता है, वह विद्यमान पदार्थों की अवस्थाओं का परिवर्तन मात्र है। मनुष्य की तो बात ही क्या, इन्द्र में भी यह सामर्थ्य नहीं कि वह शून्य में से एक भी कण का निर्माण कर सके और न यह शक्ति है कि किसी सत् को असत्-शून्य बना सके / प्रत्येक कार्य का उपादानकारण पहले ही विद्यमान रहता है। यह तथ्य भारतीय दर्शनों में और साथ ही विज्ञान द्वारा स्वीकृत है। ऐसी स्थिति में जगत् की मूलत: उत्पत्ति की कल्पना भ्रमपूर्ण है। अंडे से जगत् की उत्पत्ति कहने वालों को सोचना चाहिए कि जब पांच भूतों की सत्ता नहीं थी तो अकस्मात् अंडा कैसे पैदा हो गया ? अंडे के पैदा होने के लिए पृथिवी चाहिए, जल चाहिए, तेज भी चाहिए और रहने के लिए प्राकाश भी चाहिये! फिर देव और मनुष्य प्रादि भी अचानक किस प्रकार उत्पन्न हो गए ? विष्णुमय जगत् की मान्यता भी कपोल-कल्पना के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है / जब जगत् नहीं था तो विष्णुजी रहते कहाँ थे? उन्हें जगत्-रचना की इच्छा और प्रेरणा क्यों हुई ? अगर वे घोर अन्धकार में रहते थे, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था तो विना उपादान-सामग्री के ही उन्होंने इतने विराट् जगत् की सृष्टि किस प्रकार कर डाली ? सृष्टि के विषय में अन्य मन्तव्य भी यहां बतलाए गए हैं। उन पर अन्यान्य दार्शनिक ग्रन्थों में विस्तार से गंभीर ऊहापोह किया गया है / अतएव जिज्ञासुओं को उन ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए। विस्तृत चर्चा करना यहाँ अप्रासंगिक होगा। प्रस्तुत में इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि सृष्टि की रचना संबंधी समस्त कल्पनाएँ मृषा हैं / जगत् अनादि एवं अनन्त है। ईश्वर तो परम वीतराग, सर्वज्ञ और कृतकृत्य है / जो आत्मा आध्यात्मिक विकास की चरम सीमा प्राप्त कर चुका है, जिसने शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्रकट कर लिया है, वही आत्मा परमात्मा है-ईश्वर है / उसे जगत् को रचना या संचालन की झंझटों में पड़ने की क्या अपेक्षा है ? सृष्टि का रचयिता और नियंत्रक मानने से ईश्वर में अनेक दोषों की उपपत्ति होती है। यथा--यदि वह दयालु है तो दुःखी जीवों की सृष्टि क्यों करता है ? कहा जाए कि जीव अपने पापकर्मों से दुःख भोगते हैं तो वह पापकर्मों को करने क्यों देता है ? सर्वशक्तिमान होने से उन्हें रोक नहीं देता ? पहले तो ईश्वर जीवों को सर्वज्ञ होने के कारण जान-बूझ कर पापकर्म करने देता है, रोकने में समर्थ हो कर भी रोकता नहीं और फिर उन्हें पापकर्मों का दंड देता है ! किसी को नरक में भेजता है, किसी को अन्य प्रकार से सजा देकर पीडा पहुँचाता है ! ऐसी स्थिति में उसे करुणावान् कैसे कहा जा सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org