Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ मृषावादी] [57 और काला वस्त्र तैयार करने के लिए काले तंतुओं को काम में लाया जाता है। यदि कारण में अविद्यमान गुण भी कार्य में आने लगें तो बाल को पीलने से भी तेल निकलने लगे। किसी भी वस्तु से कोई भी वस्तु बन जाए ! किन्तु ऐसा होता नहीं। बालू से तेल निकलता नहीं। गुड़-शक्कर के बदले राख या धूल से मिठाई बनती नहीं। इस निर्विवाद सिद्धान्त के आधार पर पांच भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति की मान्यता पर विचार किया जाए तो यह मान्यता कपोल-कल्पित ही सिद्ध होती है / नास्तिकों से पूछना चाहिए कि जिन पांच भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति कही जाती है, उनमें पहले से चैतन्यशक्ति विद्यमान है अथवा नहीं ? यदि विद्यमान नहीं है तो उनसे चैतन्यशक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि जो धर्म कारण में नहीं होता, वह कार्य में भी नहीं हो सकता / यदि भूतों में चेतना विद्यमान है तो फिर चेतना से ही चेतना की उत्पत्ति कहनी चाहिए, भूतों से नहीं / मदिरा में जो मादकशक्ति है, वह उसके कारणों में पहले से ही विद्यमान रहती है, अपूर्व उत्पन्न नहीं होती। ___ इसके अतिरिक्त चेतनाशक्ति के कारण यदि भूत ही हैं तो मृतक शरीर में ये सभी विद्यमान होने से उसमें चेतना क्यों नहीं उत्पन्न हो जाती ? कहा जा सकता है कि मृतक शरीर में रोग-दोष होने के कारण चेतना उत्पन्न नहीं होती, तो यह कथन भी प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि आयुर्वेद का विधान है मृतस्य समोभवन्ति रोगाः। . अर्थात् मृत्यु हो जाने पर सब-वात, पित्त, कफ-दोष सम हो जाते हैं-नीरोग अवस्था उत्पन्न हो जाती है। अनात्मवादी कहते हैं-आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं है। इन्द्रियों से उसका परिज्ञान नहीं होता, अतएव मन से भी वह नहीं जाना जा सकता, क्योंकि इन्द्रियों द्वारा जाने हुए पदार्थ को ही मन जान सकता है। अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। इस प्रकार किसी भी रूप में आत्मा का प्रत्यक्ष न होने से वह अनुमान के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता / पागम परस्पर विरोधी प्ररूपणा करते हैं, अतएव वे स्वयं अप्रमाण हैं तो प्रात्मा के अस्तित्व को कैसे प्रमाणित कर सकते हैं ? यह कथन तर्क और अनुभव से असंगत है। सर्वप्रथम तो 'मैं हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ' इस प्रकार जो अनुभूति होती है, उसी से प्रात्मा की सिद्धि हो जाती है / घट, पट आदि चेतनाहीन पदार्थों को ऐसी प्रतीति नहीं होती। अतएव 'मैं' की अनुभूति से उस का कोई विषय सिद्ध होता है और जो 'मैं' शब्द का विषय (वाच्य) है, वही प्रात्मा कहलाता है / गुण का प्रत्यक्ष हो तो वही गुणी का प्रत्यक्ष माना जाता है। घट के रूप और आकृति को देखकर ही लोग घट को देखना मानते हैं। अनन्त गणों का समुदाय रूप समग्र पदार्थ कभी किसी संसार के प्राणी के ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होता। इस नियम के अनुसार चेतना जीव का गुण होने से और उसका अनुभव-प्रत्यक्ष होने से जीव का भी प्रत्यक्ष मानना चाहिए / __ अनुमान और पागम प्रमाण से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। एक ही माता-पिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org