Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ भारकों का बीभत्स शरीर] 11. कुम्भ -ये असुर नारकों को कुम्भियों में पकाते हैं / 12. बालु-ये वैक्रियलब्धि द्वारा बनाई हुई कदम्ब वालुका अथवा वज्र-बालुका-रेत में नारकों को चना आदि की तरह भूनते हैं। 13. वैतरणी-ये यम पुरुष मांस, रुधिर, पीव, पिघले तांबे-सीसे आदि प्रत्युष्ण पदार्थों से उबलती-उफनती वैतरणी नदी में नारकों को फेंक देते हैं और उसमें तैरने को विवश करते हैं / 14. खरस्वर-ये वज्रमय तीक्ष्ण कंटकों से व्याप्त शाल्मली वृक्ष पर चढ़ा कर करुण आक्रन्दन करते नारकों को इधर-उधर खींचते हैं / 15. महाघोष-ये भयभीत होकर अथवा दुस्सह यातना से बचने के अभिप्राय से भागते हुए नारक जीवों को वाड़े में बन्द कर देते हैं और भयानक ध्वनि करते हुए उन्हें रोक देते हैं / इस प्रकार हिंसा करने वाले और हिंसा करके आनन्द का अनुभव करने वाले जीवों को नरक में उत्पन्न होकर जो वचनागोचर घोरतर यातनाएँ भुगतनी पड़ती हैं, यहां उनका साधारण शब्द-चित्र ही खींचा गया है / वस्तुतः वे वेदनाएँ तो अनुभव द्वारा ही जानी जा सकती हैं। नारकों का बीभत्स शरीर-- २४--तस्य य अंतोमत्तलद्धि भवपच्चएणं णिवतंति उसे सरीरं हुंडं बीभच्छवरिसणिज्जं बोहणगं अटि-हार-णह-रोम-वज्जियं प्रसुभगं दुक्खविसहं / तमो य पज्जत्तिमुवगया इंविएहि पंचहि एंति असुहाए वेयणाए उज्जल-बल-विउल-कक्खडखर-फरस-पयंड-घोर-बोहणगदारुणाए। २४-वे पूर्वोक्त पापी जीव नरकभूमि में उत्पन्न होते ही अन्तर्मुहूर्त में नरकभवकारणक (वैक्रिय) लब्धि से अपने शरीर का निर्माण कर लेते हैं। वह शरीर हुंड-हुंडक संस्थान वालाबेडौल, भद्दी प्राकृति वाला, देखने में बीभत्स, घृणित, भयानक, अस्थियों, नसों, नाखूनों और रोमों से रहित; अशुभ और दुखों को सहन करने में सक्षम होता है। शरीर का निर्माण हो जाने के पश्चात् वे पर्याप्तियों से- इन्द्रिय, श्वासोच्छवास और भाषामन रूप पर्याप्तियों से पूर्ण-पर्याप्त हो जाते हैं और पांचों इन्द्रियों से अशुभ वेदना का वेदन करते हैं। उनकी वेदना उज्ज्वल, बलवती, विपुल, उत्कट, प्रखर, परुष, प्रचण्ड, घोर, बोहनक-डरावनी . और दारुण होती है। - विवेचन-वेदना का सामान्य अर्थ है-अनुभव करना / वह प्रायः दो प्रकार की होती हैसातावेदना और प्रसातावेदना / अनुकूल, इष्ट या सुखरूप वेदना सातावेदना कहलाती है और प्रतिकल, अनिष्ट या दुःखरूप वेदना को असातावेदना कहते हैं / नारक जीवों की वेदना असातावेदना ही होती है। उस असातावेदना का प्रकर्ष प्रकट करने के लिए शास्त्रकार ने अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है। इन विशेषणों में आपाततः एकार्थकता का आभास होता है किन्तु 'शब्दभेदादर्थभेदः' अर्थात् शब्द के भेद से अर्थ में भेद हो जाता है, इस नियम के अनुसार प्रत्येक शब्द के अर्थ में विशेषता-भिन्नता है, जो इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org