Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [प्ररमव्याकरणसूत्र : शु. 1, अ.१ चमड़ी उयेड़ दो, नेत्र बाहर निकाल लो, इसे काट डालो, खण्ड-खण्ड कर डालो, हनन करो, फिर से और अधिक हनन करो, इसके मुख में (गर्मागर्म) शीशा उड़ेल दो, इसे उठा कर पटक दो या मुख में और शीशा डाल दो, घसीटो उलटा, घसीटो।। नरकपाल फिर फटकारते हुए कहते हैं-बोलता क्यों नहीं ! अपने पापकर्मों को, अपने कुकर्मों को स्मरण कर ! इस प्रकार अत्यन्त कर्कश नरकपालों की ध्वनि की वहाँ प्रतिध्वनि होती है। नारक जीवों के लिए वह ऐसी सदैव त्रासजनक होती है कि जैसे किसी महानगर में आग लगने पर घोर शब्द-कोलाहल होता है, उसी प्रकार निरन्तर यातनाएँ भोगने वाले नारकों का अनिष्ट निर्घोष वहाँ सुना जाता है। विवेचन-मूल पाठ स्वयं विवेचन है। यहाँ भी नारकीय जीवों की घोरातिघोर यातनाओं का शब्द-चित्र अंकित किया गया है। कितना भीषण चित्र है ! जब किसी का गला तीव्र प्यास से सूख रहा हो तब उसे उबला हुआ गर्मागर्म शीशा अंजलि में देना और जब वह आर्तनाद कर भागे तो जबर्दस्ती लोहमय दंड से उसका मुह फाड़ कर. उसे पिलाना कितना करुण है ! इस व्यथा का क्या पार है ? मगर पूर्वभव में घोरातिघोर पाप करने वालों-नारकों को ऐसी यातना सुदीर्घ काल तक भोगनी पड़ती हैं। वस्तुतः उनके पूर्वकृत दुष्कर्म ही उनकी इन असाधारण व्यथाओं के प्रधान नारकों की विविध पीड़ाएँ ३०–कि ते? असिवण-दम्भवण-जतपत्थर-सूइतल पखार-वावि-कलकलंत-वेयरणि-कलंब-वालुया-जलियगुहणि भण-उसिणोसिण-कंटइल्ल-दुग्गम-रहजोयण-तत्तलोहमग्गगमण-वाहणाणि / ३०--(नारक जीवों की यातनाएँ इतनी ही नहीं हैं / ) प्रश्न किया गया है—वे यातनाएँ कैसी हैं ? उत्तर है-नारकों को असि-वन में अर्थात् तलवार की तीक्ष्णधार के समान पत्तों वाले वृक्षों के वन में चलने को बाध्य किया जाता है, तीखी नोक वाले दर्भ (डाभ) के वन में चलाया जाता है, उन्हें यन्त्रप्रस्तर-कोल्हू में डाल कर (तिलों की तरह) पेरा जाता है, सूई की नोक समान अतीव तीक्ष्ण कण्टकों के सदृश स्पर्श वाली भूमि पर चलाया जाता है, क्षारवापी-क्षारयुक्त पानी वाली वापिका में पटक दिया जाता है, उकलते हुए सीसे आदि से भरी वैतरणी नदी में बहाया जाता है, कदम्बपुष्प के समान अत्यन्त तप्त-लाल हुई रेत पर चलाया जाता है, जलती हुई गुफा में बंद कर दिया जाता है, उष्णोष्ण अर्थात् अत्यन्त ही उष्ण एवं कण्टकाकीर्ण दुर्गम-विषम-ऊबड़खाबड़ मार्ग में रथ में (बैलों की तरह) जोत कर चलाया जाता है, लोहमय उष्ण मार्ग में चलाया जाता है और भारी भार वहन कराया जाता है। नारकों के शस्त्र ३१-इमेहि विविहिं पाउहेहिकि ते? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org