Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 28] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्र. 1, अ. 1 हिंसकों की उत्पत्ति २२--तस्स य पावस्स फल विवागं अयाणमाणा बड्ढंति महम्मयं प्रविस्तामवेयणं दोहकालबहुदुक्खसंकडं णरयतिरिक्खजोणि / २२-(पूर्वोक्त मूढ़ हिंसक लोग) हिंसा के फल-विपाक को नहीं जानते हुए, अत्यन्त भयानक एवं दीर्घकाल पर्यन्त बहुत-से दुःखों से व्याप्त--परिपूर्ण एवं अविश्रान्त-- लगातार निरन्तर होने वाली दुःख रूप वेदना वाली नरकयोनि और तिर्यञ्चयोनि को बढ़ाते हैं। विवेचन-पूर्व में तृतीय गाथा में कथित फलद्वार का वर्णन यहाँ किया गया है / हिंसा का फल तिर्यंचयोनि और नरकयोनि बतलाया गया है और वह भी अतीव भयोत्पादक एवं निरन्तर दुःखों से परिपूर्ण / तियंचयोनि की परिधि बहुत विशाल है / एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव तिर्यंचयोनिक ही होते हैं / पंचेन्द्रियों में चारों गति के जीव होते हैं। इनमें पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक जीवों के दुःख तो किसी अंश में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु अन्य एकेन्द्रियादि तिर्यंचों के कष्टों को मनुष्य नहीं-जैसा ही जानता है / एकेन्द्रियों के दुःखों का हमें प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। इनमें भी जिनको निरन्तर एक श्वासोच्छ्वास जितने काल में साधिक 17 वार जन्म-मरण करना पड़ता है, उनके दुःख तो हमारी कल्पना से भी प्रतीत हैं। नरकयोनि तो एकान्तत: दु:खमय ही है / इस योनि में उत्पन्न होने वाले प्राणी जन्मकाल से लेकर मरणकाल तक निरन्तर-एक क्षण के व्यवधान या विश्राम विना सतत भयानक से भयानक पीड़ा भोगते ही रहते हैं / उसका दिग्दर्शन मात्र ही कराया जा सकता है। शास्त्रकार ने स्वयं उन दुःखों का वर्णन आगे किया है। कई लोग नरकयोनि का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते / किन्तु किसी की स्वीकृति या अस्वीकृति पर किसी वस्तु का अस्तित्व और नास्तित्व निर्भर नहीं है / तथ्य स्वतः है। जो है उसे अस्वीकार कर देने से उसका प्रभाव नहीं हो जाता। कुछ लोग नरकयोनि के अस्तित्व में शंकाशील रहते हैं। उन्हें विचार करना चाहिए कि नरक का अस्तित्व मानकर दुष्कर्मों से बचे रहना तो प्रत्येक परिस्थिति में हितकर ही है। नरक न हो तो भी पापों का परित्याग लाभ का ही कारण है, किन्तु नरक का नास्तित्व मान कर यदि पापाचरण किया और नरक का अस्तित्व हुआ तो कैसी दुर्गति होगी ! कितनी भीषणतम वेदनाएँ भुगतनी पड़ेंगी ! प्रत्येक शुभ और अशुभ कर्म का फल अवश्य होता है। तो फिर घोरतम पापकर्म का फल घोरतम दुःख भी होना चाहिए और उसे भोगने के लिए कोई योनि और स्थान भी अवश्य होना चाहिए / इस प्रकार घोरतम दुःखमय वेदना भोगने का जो स्थान है, वही नरकस्थान है। नरक-वर्णन २३---इयो आउक्खए चुया असुभकम्मबहुला उववज्जंति परएसु हुलियं महालएसु वयरामयकुडा-सह-णिस्संधि-दार-विरहिय-णिम्मदव-भूमितल-खरामरिसविसम-णिरय-घरचारएसु महोसिणसया-पतत्त दुग्गंध-विस्स-उव्वेयजणगेसु बीभच्छदरिसणिज्जेसु णिच्चं हिमपडलसीयलेसु कालोभासेसु य भीम-गंभोर-लोमहरिसणेसु णिरभिरामेसु णिपडिमार-वाहिरोगजरापीलिएसु अईव णिच्चंधयार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org