Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ उपासकदशा प्रस्तुत विवेचन के परिपार्श्व में उपासकदशा धर्मकथानुयोग का भाग है। इसके नामसे प्रकट है, इसमें उपासकों या श्रावकों के कथानक हैं / जैनधर्म में साधना की दृष्टि से श्रमण-धर्म तथा श्रमणोपासक-धर्म के रूप में दो प्रकार से विभाजन किया गया है। श्रमण शब्द साधु या सर्वत्यागी संयमी के अर्थ में प्रयुक्त है। श्रमण के लिए आत्मसाधना ही सर्वस्व है। दैहिक जीवन का निर्वाह होता है, यह एक बात है पर साधना की कीमत पर श्रमण वैसा नहीं कर सकता / शरीर चला जाए, यह उसे स्वीकार होता है पर साधना में जरा भी आंच आए, यह वह किसी भी दशा में स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि उसकी व्रताराधना-संयमपालन में विकल्प का स्थान नहीं है / जिस दिन वह श्रमण-जीवन में आता है, “सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि" अर्थात् आजसे सभी सावद्य-पापसहित योगों-मानसिक, वाचिक व कायिक प्रवत्तियों का त्याग करता हूँ, इस संकल्प के साथ आता है। वह मन, वचन, काय-इन तीनां योगों तथा कृत, कारित, अनुमोदित–इन तीनों करणों द्वारा हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह से सर्वथा विरत हो जाता है। वह न कभी हिंसा करता है, न करवाता है, न अनुमोदन करता है / ऐसा वह मन से सोचता नहीं, वचन से बोलता नहीं। सभी व्रतों पर यही क्रम लागू होता है / अपवाद या चिक़ल्पशून्य होने से यहाँ व्रत महाव्रतों की संज्ञा ले लेते हैं। महर्षि पतञ्जलि ने भी उन यमों या व्रतों को जिनमें जाति, देश, काल, समय आदि की सीमा नहीं होती, जो सार्वभौम सब अवस्थाओं में पालन करने-योग्य होते हैं अर्थात् जहाँ किसी भी प्रकार का अपवाद स्वीकृत नहीं है, महाव्रत कहा है।' गृही उपासक का साधनाक्रम महावतों की समग्र, परिपूर्ण या निरपवाद आराधना हर किसी के लिए शक्य नहीं है। कुछ ही दृढचेता, प्रात्मबली और संस्कारी पुरुष ऐसे होते हैं, जो इसे साध सकने में समर्थ हों। महाव्रतों की साधना की अपेक्षा हलका, सुकर एक और मार्ग है, जिसमें साधक अपनी शक्ति के अनुसार ससीम रूप में व्रत स्वीकार करता है / ऐसे साधक के लिए जैन शास्त्रों में श्रमणोपासक शब्द का व्यवहार है। श्रमण और उपासक----ये दो शब्द इसमें हैं। उपासक का शाब्दिक अर्थ उप-समीप बैठने वाला है। जो श्रमण की सन्निधि में बैठता है अर्थात श्रमण से सद ज्ञान तथा व्रत स्वीकार करता है, उसके महाव्रतमय जीवन से अनुप्राणित होकर स्वयं भी साधना या उपासना के पथ पर आरूढ होता है, वह श्रमणोपासक है। उपासना या आराधना के सधने का मार्ग यही है / केवल कुछ पढ़ लेने से, सुन लेने से जीवन बदल जाय, यह संभव नहीं होता। साधनामय, महाव्रतमय-उच्च साधनामय जीवन का सान्निध्य, दर्शन-व्यक्ति के मन में एक लगन और टीस पैदा करते हैं, उस ओर बढ़ने की। अतः गृही साधक के लिए जो श्रमणोपासक शब्द का प्रयोग हुआ, वह वास्तव में बड़ा अर्थपूर्ण है। ऐसे ही सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद् में बड़ी सुन्दर व्याख्या है / वहाँ लिखा है---- 1. जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम् ।-पातञ्जलयोगदर्शन साधनपाद 31 . 2. उप-समीपे, आस्ते--इत्युपासकः / [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org