________________ यहां पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि तीर्थंकर अर्थ रूप में उपदेश प्रदान करते हैं, वे अर्थ के प्रणेता हैं। उस अर्थ को सूत्रबद्ध करने वाले गणधर या स्थविर हैं। नन्दीसत्र ग्रादि में प्रागमों के प्रणेता तीर्थकर कहे हैं। जैन आगमों का प्रामाण्य गणधरकृत होने से ही नहीं, अपितु अर्थ के प्रणेता तीर्थकर की वीतरागता और सर्वार्थसाक्षात्कारित्व के कारण हैं। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं। अगवाह्य पागम की रचना करने वाले स्थविर हैं। अंगवाह्य प्रागम का प्रामाण्य स्वतन्त्र भाव से नहीं, अपितु गणधरप्रणीत पागम के साथ अविसंवाद होने से है। आगम की सुरक्षा में बाधाएं वैदिक विज्ञों ने वेदों को सुरक्षित रखने का प्रबल प्रयास किया है, वह अपूर्व है, अनठा है। जिसके फलस्वरूप ही आज वेद पूर्ण रूप से प्राप्त हो रहे हैं। आज भी शताधिक ऐसे ब्राह्मण वेदपाठी हैं, जो प्रारम्भ से प्रान्त तक वेदों का शुद्ध-पाठ कर सकते हैं / उन्हें वेद पुस्तक की भी आवश्यकता नहीं होती ! जिस प्रकार ब्राह्मण पण्डितों ने वेदों की सुरक्षा की, उस तरह आगम और त्रिपिटकों की सुरक्षा जैन और बौद्ध विज्ञ नहीं कर सके / जिसके अनेक कारण है। उसमें मुख्य कारण यह है कि पिता की ओर से पुत्र को वेद विरासत के रूप में मिलते रहे हैं / पिता अपने पुत्र को बाल्यकाल से ही वेदों को पढ़ाता था। उसके शुद्ध उच्चारण का ध्यान रखता था। शब्दों में कहीं भी परिवर्तन न हो, इस का पूर्ण लक्ष्य था। जिससे शब्द-परम्परा की दृष्टि से वेद पूर्ण रूप से सूरक्षित रहे। किन्तु अर्थ को उपेक्षा होने से वेदों की अर्थ-परम्परा में एकरूपता नहीं रह पाई, वेदों की परम्परा वंशपरम्परा की दृष्टि से अबाध गति से चल रही थी। वेदों के अध्ययन के लिये ऐसे अनेक विद्याकेन्द्र थे जहाँ पर केवल वेद ही सिखाये जाते थे / वेदों के अध्ययन और अध्यापन का अधिकारी केवल ब्राह्मण वर्ग था। ब्राह्मण के लिये यह आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य था कि वह जीवन के प्रारम्भ में वेदों का गहराई से अध्ययन करे / वेदों का विना अध्ययन किये ब्राह्मण वर्ग का समाज में कोई भी स्थान नहीं था। वेदाध्ययन ही उस के लिये सर्वस्व था। अनेक प्रकार के क्रियाकाण्डों में वैदिक सूक्तों का उपयोग होता था / वेदों को लिखने और लिखाने में भी किसी भी प्रकार की बाधा नहीं थी। ऐसे अनेक कारण थे, जिनसे वेद सुरक्षित रह सके, किन्तु जैन आगम पिता की धरोहर के रूप में पुत्र को कभी नहीं मिले / दीक्षा ग्रहण करने के वाद गुरु अपने शिष्यों को आगम पढ़ाता था। ब्राह्मण पण्डितों को अपना सुशिक्षित पत्र मिलना कठिन नहीं था। जबकि जैन श्रमणों को सुयोग्य शिष्य मिलना उतना मरल नहीं था। श्रतज्ञान की दष्टि से शिष्य का मेधावी और जिज्ञासु होना आवश्यक था। उसके अभाव में मन्दबुद्धि व पालसी शिष्य यदि श्रमण होता तो वह भी श्रत का अधिकारी था / ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र ये चारों ही वर्ण वाले बिना किसी संकोच के जैन श्रमण बन सकते थे। जैन श्रमणों की प्राचार-संहिता का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट है कि दिन और रात्रि के आठ प्रहरों के चार प्रहर स्वाध्याय के लिये आवश्यक माने गये, पर प्रत्येक श्रमण के लिये यह अनिवार्य नहीं था कि वह इतने समय तक प्रागमों का अध्ययन करे ही ! यह भी अनिवार्य नहीं था, कि मोक्ष प्राप्त करने के लिये सभी आगमों का गहराई से अध्ययन आवश्यक ही है। मोक्ष प्राप्त करने के लिये जीवाजीव का परिज्ञान आवश्यक था / सामायिक अादि आवश्यक क्रियाओं से मोक्ष सूलभ था। इसलिये सभी श्रमण और 7. आवश्यक नियुक्ति 192 8, नन्दीसूत्र 40 शेषावश्यक भाष्य गा.५५० (ख) बृहत्कल्पभाष्य गा. 144 (ग) तत्त्वार्थभाष्य 1-20 (घ) मर्वार्थ सिद्धि 120 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org