________________ पुरुष थे / वे अलौकिक एवं अनुपम दयालु थे। उनके हृदय के कण-कण में, मन के अणु-अणु में करुणा का सागर कुलाचे मार रहा था। उन्होंने संसार के सभी जीवों की रक्षा रूप दया के लिये पावन प्रवचन किये। उन प्रवचनों को तीर्थंकरों के साक्षात् शिष्य श्रतकेवलः गणधरों ने सूत्ररूप में प्रावद्ध किया। वह-गणिपिटक पागम है।' आचार्य भद्रबाहु के शब्दों में यों कह सकते हैं, तप, नियम ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ़ होकर अनन्त ज्ञानी केवलो भगवान् भव्य जनों के विवोध के लिये ज्ञान-कुसुम की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धि-पट में उन कुसुमों को झेल कर प्रवचनमाला गूथते हैं / वह आगम है। जैन धर्म का सम्पूर्ण विश्वास, विचार और प्राचार का केन्द्र आगम है / प्रागम ज्ञान-विज्ञान का, धर्म और दर्शन का, नीति और अध्यात्मचिन्तन का अपूर्व खजाना है। वह अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में विभक्त है। नन्दीसत्र प्रादि में उसके सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। अपेक्षा दृष्टि से जैन आगम पौरुषेय भी हैं और अपौरुषेय भी। तीर्थकर व गणधर ग्रादि व्यक्ति विशेष के द्वारा रचित होने से वे पौरुषेय हैं। और पारमाथिक-दृष्टि से चिन्तन किया जाय तो सत्यतथ्य एक है। विभिन्न देश काल व व्यक्ति की दृष्टि से उस सत्य तथ्य का आविर्भाव विभिन्न रूपों में होता है। उन सभी आविर्भावों में एक ही चिरन्तन सत्य अनुस्यूत है। जितने भी अतीत काल में तीर्थकर हुये हैं, उन्होंने प्राचार की दृष्टि से अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सामायिक, समभाव, विश्ववात्सल्य और विश्वमैत्री का पावन संदेश दिया है। विचार की दृष्टि से स्याद्वाद, अनेकान्तबाद या विभज्यवाद का उपदेश दिया / इस प्रकार अर्थ की दृष्टि से जैन पागम अनादि अनन्त हैं। ममवायाङ्ग में यह स्पष्ट कहा है-द्वादशांग गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, यह भी नहीं है कि कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, यह भी नहीं है। बह था, है, और होगा / वह ध्रव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। प्राचार्य संघदास गणि ने बृहत्कल्पभाज्य में लिखा है कि तीर्थंकरों के केवलज्ञान में किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता। जैसा केवलज्ञान भगवान् ऋषभदेव को था, वैसा ही केवलज्ञान श्रमण-भगवान महावीर को भी था। इसलिये उनके उपदेशों में किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता। प्राचारांग में भी कहा गया है कि जो अरिहंत हो गये हैं, जो अभी वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सभी का एक ही उपदेश है कि किसी भी प्राण भूत, जीव और सत्त्व की हत्या मत करो। उनके ऊपर अपनी सत्ता मत जमायो। उन्हें गुलाम मत बनायो, उन्हें कष्ट मत दो। यही धर्म ध्रव है, नित्य है, शाश्वत है, और विवेकी पुरुषों ने बताया है। इस प्रकार जैन आगमों में पौरुषेयता और अपौरुषेयता का सुन्दर समन्वय हुआ है। 1. यद् भगवद्भिः सर्वजैः सर्वदशिभिः परमर्षिभिरहद्भिस्तत्स्वाभाव्यात् परमशुभस्य च प्रवचनप्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थकरनामकर्मणोऽनुभावादुक्तं, भगवच्छिष्यरतिशयवद्भिस्तदतिशयवाग्बुद्धिसम्पन्नर्गणधरैर्टब्धं तदङ्गप्रविष्टम् / -तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाध्य 20 2. तवनियमनाणरुक्खं प्रारुढो केवली अमियनाणी। तो मुयइ नाणवति भवियजणविबोहटाए / तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेसं / -अावश्यक नियुक्ति, गा. 89-90 3. क-समवायांग-द्वादशांग परिचय ख-नन्दीसूत्र, सूत्र 57 4. बृहत्कल्पभाष्य 202-203 5. (क) प्राचारांग अ. 4 सूत्र 136 (ख) सूत्रकृतांग 211:15, 2 / 2 / 41 6. अन्ययोगव्यच्छेदिका 5 ग्रा. हेमचन्द्र [14] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org