Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गसत्र
मूलम्-गंता च तत्थ अदुवा अगंता,
वियागरेज्जा समियासु पन्ने । अणारिया दंसणओ परित्ता,
इति संकमाणो उति तत्थ ॥१८॥ छाया--गत्वा च तत्राऽथवाऽगत्वा, च्यागृणीयात्समतयाऽऽशुप्रजः।
____ अनार्या दर्शनतः परीता इति शङ्कमानो नोपैति तत्र ॥१॥
अन्वयार्थ:--(आसुपन्ने) आशुमज्ञः (गंता) गत्वा (तत्थ) तत्र-प्रश्नकर्तुः संमीपम् (अदुवा) अथवा (अगंता) अगत्वैव मश्नकर्तुः समीपम् (वियागरेज्जा)
'गंता च तत्थ अदुवा अगंता' इत्यादि ।
शब्दार्थ--'आस्तुपन्ने-अशुपज्ञः' सर्वज्ञ महावीर 'तस्थ-तत्र' प्रश्न करनेवाले के समीप 'गंता-गत्वा' जाकरके 'अदुवा-अथवा' अथवा 'अगंता-अगत्वा' न जाकर भी 'समिया-समतया समभावसे 'चियागरेज्जा-व्यागृणीयात्' धर्मका उपदेश अथवा प्रश्नों के उत्तर देते हैं। रागद्वेष से युक्त होकर कभी भी भाषण नहीं करते, 'अणारिया-अनार्याः' अनार्य जन 'दसणओ-दर्शनात्' सम्यक्त्वसे 'परित्ता-परीता' भ्रष्टरहित होते हैं 'इति संकमाणो-इति शङ्कमान:' ऐसी आशंका से 'तत्य -तत्र' उनके पास अनार्य देशमें 'न उवेति-नोपैति' नहीं जाते हैं। भय के कारण न जाते हों ऐसा कहना उचित नहीं है ॥गा०१८॥
अन्वयार्थ-सर्वज्ञ महावीर स्वामी श्रोताओं के समीप जाकर 'गंताव तत्थ अदुवा अगता' त्या
शा---'आसुपन्ने-आशुप्रज्ञः' सपन महावी२२१ामी 'तत्थ-तत्र' प्रश्र ४२वापानी पांसे 'ग'ता-गत्वा' ने 'अदुवा-अथवा' अथवा 'अगंता आगत्वा' या विना ५४ 'समिया-समतया' समभावथी 'वीयागरेज्जा-व्यागृ. णीयात्' धर्मनी यश अथवा प्रश्नोना उत्त३। मापे छे. राषथी युक्त थने तेसो साप ४२ नथी. 'अणारिया-अनार्याः' मनायो । 'दसणओ -दर्शनात्' सभ्यत्पथी परित्ता-परीता' भ्रष्ट मेले में सभ्यत्व विनाना हाय छ. 'तत्थ-तत्र' या तमानी पांसे मनाय देशमा 'न उति-नोपैति' लता નથી, ભયના કારણે તેઓની સમીપ જતા નથી તેમ નથી. ૧૮
અન્વયાર્થ–સર્વજ્ઞ મહાવીર સ્વામી શ્રોતાઓની પાસે જઈને અથવા
श्री सूत्रतांग सूत्र : ४