Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 751
________________ ७४० सूत्रकृतागसूत्रे संयमग्रहणात् पूर्व गृहस्थः-न साधुः, दीक्षाधारणानन्तरं साधुः जातः न गृहस्था, दीक्षापरित्यागानन्तरं पुनरपि गृहस्थ एव जातः न तु साधुः। 'अस्समणेणं सद्धि णो कप्पंति समगाणं निग्गंयाणं संभुंजित्तए' अश्रमणेन साध नो कल्पन्ते श्रमणानां निर्ग्रन्थानां संभोक्तुम् । साधवो नाऽभ्यवहरन्ति-अश्रमणेन सह। तादृशा चाराऽभावात् । ‘से एव मायाणह णियंठा से एव मायाणियन्वं तदेवं जानीतनिर्ग्रन्थाः तदेवं ज्ञातव्यम्, एवमेव प्रसादि प्रत्याख्यानस्थलेऽपि उसपर्याय माश्रित्यैव प्रत्याख्यानं न तु द्रव्यमाश्रित्येति बोद्धव्यमिति गौतमोऽकथयत्साधून प्रतीति ॥सू०११-७८॥ मूलम्-भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए, वयं णं चाउद्दसटमुहिट्पुण्णिमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा विहरिस्सामो, थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइस्सामो, एवं थूलगं अश्रमणों के साथ संभोग करना नहीं कल्पता है, क्योंकि उनका आचार श्रमणों जैसा नहीं होता है। अतएव हे श्रमण निर्ग्रन्थों ! आप ऐसा समझिए आपको ऐसाही समझना चाहिए। इसी प्रकार जिस श्रमणोपासक ने त्रस जीव की हिंसा का त्याग किया है, उसके लिए त्रस जीव हिंसा का विषय नहीं रहता। किन्तु जब वही जीव त्रस पर्याय त्याग कर स्थावर हो जाता है तो वह उसके त्याग का विषय नहीं रहता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान पर्याय की अपेक्षा से होता है, द्रव्य की अपेक्षा से नहीं होता। ऐसा गौतम स्वामी ने उन निर्ग्रन्थों को समझाया ॥११॥ સંગ કરવાનું કલ્પતું નથી. કેમકેતેઓને આચાર પ્રમાણે જે તે તેથી જ હે શ્રમણ નિ ! આપ એવું સમજે આપે એવું જ સમજવું જોઈએ. આજ પ્રમાણે જે શ્રમણોપાસકે ત્રસજીવની હિંસાને ત્યાગ કરેલ હોય, તેને માટે ત્રસ જીવ, હિંસાને વિષય બનતા નથી. પરંતુ જ્યારે એજ જીવ ત્રસ પર્યાયને ત્યાગ કરીને સ્થાવર બની જાય છે. તે પછી તે તેઓના ત્યાગને વિષય રહેતું નથી. આ રીતે પ્રત્યાખ્યાન પર્યાયની અપેક્ષાથી થાય છે. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ થતું નથી. આ પ્રમાણે ગૌતમસ્વામીએ તે નિગ્રન્થને, સમજાવેલ છે. ૧૧૫ શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૪

Loading...

Page Navigation
1 ... 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795