Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 686
________________ समयाथबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने!शालकस्य संवादनि० ६७५ अन्वयार्थः-(जे) ये पुरुषाः इहलोके (गरहियं ठणं आवसंति) गर्हितमशुभं स्थानम् आवसन्ति-गर्हितं-निविवे किजनाचरितं स्थानमाश्रयन्ति (जे यावि) ये चापि (चरणोववेया) चरणोपपेताः-सदाचाररताः अनयो यः (मईए) स्वमत्याऽज्ञानेन (समं उदाहउं) समं तुल्यमुदाहृतं कथितम् (तंतु) तत्तु-समत्वकथनं तु (अहाउसो) अथायुष्मन् ! (विप्परियासमेव) विपर्यासः-विपरीतबुद्धिरेव केवलमिति ॥५१॥ टीका-'इह लोए ज गरहियं ठाणं आवसंति' इह लोके ये गर्हितमशुभं स्थानमाचरणमावसन्ति-आचरन्ति 'जे यावि' ये चापि 'चरणोववेया' चरणोप पेता:-सदाचारे रताः-तयो यः 'मईए समं उदाहउ' स्वकीयमत्या सम-तुल्पमुदाहृतम् । आर्द्रको मुनिः कथयति-इह हि लोके यो निन्दनीयाचारमाचरतिउन दोनों को 'मईए-मत्या' जो अपनी कल्पना मति से 'सम उदाहउ' -समं उदाहृतं' ममान कहता है 'तंतु-तत्तु वह 'अहाउसो-अथायुष्मन्' 'विप्परियासमेव-विपर्यासमेव उसकी विपरीत बुद्धिका ही फल है ।५१॥ ___ अन्वयार्थ-इस लोक में जो पुरुष गर्हित स्थान में वसते हैं अर्थात् अविवेकी जनों द्वारा आचरित स्थान का आश्रय लेते हैं या अशुभ आचरण करते हैं और जो सदाचार में रत हैं उन दोनों को जो अपनी कल्पना मति से समान कहता है, वह हे आयुष्मन् ! उसकी विपरीत बुद्धि का ही फल है ॥५१॥ ____टीकार्थ-इस संसार में जो लोग अशुभ आचरण करने वाले है और जो शुभ आचरण में प्रवृत्त हैं, उनको अपनी बुद्धि से समान कहना विपरीत मति का फल है। आईक मुनि कहते हैं इस जगत् में जो अज्ञानी पुरुष निन्दनीय आचरण करते हैं और जो उत्तम आचरण करते पोतानी ना मुद्धिथी 'समं उदाहउ'-समं उदाहृतं' स२मा ४ छे. 'त'तु-ततु' ते तो 'अहाउसों-अथायुष्मन्' आयुष्मन् ‘विपरियासमेव-विपर्यासमेव' तेनी વિપરીત બુદ્ધિનું ફલ છે. ગા૦૫૧ અન્વયાર્થ-આ લેકમાં જે પુરૂષ નિદિત સ્થાનમાં વસે છે, અર્થાત અવિવેકી જનો દ્વારા આચરિત સ્થાનને આશ્રય લે છે અથવા અશુભ આચરણ કરે છે. અને સદાચારમાં રત રહે છે. આ બન્નેને જે પિતાની કલ્પના મતિથી સરખા કહે છે તે તે હે આયુષ્યન્ તેની વિપરીત બુદ્ધિનું જ ફળ છે. ૫૧ ટકાથું—આ સંસારમાં જે લોકો અશુભ આચરણ કરવાવાળા છે. અને જે અશુભ આચરણમાં પ્રવૃત્તિ વાળા છે. તેઓને પિતાની બુદ્ધિથી સમાન કહેવા તે વિપરીત બુદ્ધિનું જ ફળ છે, આદ્રકમુની કહે છે-આ જગતમાં જે અજ્ઞાની પુરૂષ નિંદનીય આચરણ કરે છે. અને જે ઉત્તમ પુરૂષ ધર્મયુક્ત श्री सूत्रता सूत्र : ४

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