________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि? (सू. ११७) आचाका इच्छित वस्तुनी अप्राप्ति अथवा इष्ट वस्तुनो नाश थतां मनमां जे विकार थाय ते अरति छे, अने इच्छित वस्तुनी प्राप्तिमा । सूत्रम्
आनंद थाय छे, आ अरति के आनंद योगिना चित्तमा होतो नथी, कारणके ते महात्माने धर्मध्यान के शुक्लध्यानमा चित्त 81 ॥४७६॥12 रोकावाथी तेने संसारी वस्तुनी अरति के आनंद उत्पन्न थवाना कारणनो अभाव छे. तेथी मूत्रमां कडं के अरति अने आनंद ए
P४७६॥ 15/ छे? (अर्थात् कंइज नथी) पण संसारी जीवनी माफक तेमणे ते विकल्पने राख्यो नथी. । जो आ प्रमाणे होय तो तेवा जीवने असंयममां अरति अने संयममा आनंद तेने होवो जोइए एम सिद्ध थयु, तेनुं आचार्य समाधान करे छे, के तेथु नथी अने अमारो अभिप्राय तमे समज्या नथी, कारण के जेमां रति अरतिना विकल्पनो अध्यवसाय
निषेध कर्यो छे, तो बीजा प्रसंगमां पण रति अरति न होय तेज सूत्रकार कहे छे ए महात्माने अरति अने आनंद बने दूर थवा & रूप छे एटले तेमने तेवो आग्रह नथी तेथी ते 'अग्रह' कहेवाय छे, एनो भावार्थ आ छे के उत्तम साधु शुक्र ध्यानथी बीजे 181
रति आनंद कोइ निमित्ते आवे तो पण तेना आग्रह रहित बने, अने ते बन्नेमां मध्यस्थ रहे (संयम अने असंयम व्यवहारथी बाह्य 8 क्रियारूप छे. शुक्ल ध्यानवाळाने ते बाह्य क्रियाओनी श्रेणीमां जरुर नथी; अने ते ध्यानबाळाने थोडा समयमां केवलज्ञान थवान
छे. ते अपेक्षाए आ बचन छे के, संयममा रति, असंयममां अरति न होय; परंतु शुक्लध्यान शिवायना चीजा आत्मार्थी साधुने तो 2 कंडक होय छे) फरी उपदेश आपे छे, सर्व हास्य, अथवा हास्यनां कारणो तजे; अने मर्यादामा रही इन्द्रियोने कबजे राखी लीन रहे।
For Private and Personal Use Only