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आचा०
॥ ५६६॥
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| तेज प्रमाणे घणा प्रकारे शउपणुं करे तेथी बहु शठ कहेवाय, तथा संसारी कृत्यना घणा विचारो करे तेथी बहु संकल्पी (संकल्पवाळी) कहेवाय एज प्रमाणे चोर विगेरेनी पण एक चर्या (अप्रशस्तमां) जाणवी, आवी रीतनो होय तेनी केवी अवस्था थाय, ते कहे छे:'आसव' विगेरे आस्रवो ते हिंसा विगेरे छे, तेमां सक्त (संग) राखे ते आसव सक्त कहेवाय, अर्थात् हिंसा विगेरे पाप करनारो होय, 'पलित' ते कर्म तेनावडे अविच्छिन्न छे एटले कर्मयी अवष्टब्ध (लेपायलो) हे आवरीते अनेक दुर्गुणवाळो होय, छतां पण पोते (लोकोने ठगचा) शृं कड़े ते कहे छे:—
उट्टिय - धर्म चरण ( चारित्र) माटे हुँ उद्यम करनारो खुं, एटले पतित साधु पण एज प्रमाणे बोले के हुं चारित्र पाछे हुँ, अने से प्रमाणे न पाळवाथी कर्म वडे लेपाय छे, अने ते साधु वेषधारी मोढेथी पोताने साधु बोलतो आम्रवोमां वर्ततो छतां आजीत्रिकाना भवथी केवी रीते वर्ते छे. ते कहे छे. 'मागे' मने बीजा कोइ पाप करतां न देखो एथी ते पाप छानां करे छे, अथवा ते अज्ञानथी अथवा प्रमादना दोपथी पाप करे छे, वळी 'सयार्य' सतत (निरंतर) मोहनीय कर्मना उदयथी अथवा अज्ञानथी मूढ बनेलो श्रुत भने चारित्र धर्मने जाणतो नथी, एटले तेने धर्म अधर्मनो विवेक नथी, जो आम छे, तो भुं करवुं ते कड़े छे:—
अट्टा - विषय कषायोथी आर्त (पीडायला) बनीने तेओ आठ प्रकारनां कर्म बांधव कोविद (कुशल) छे. पण धर्म अनुष्ठानम कुशळ नथी, [ एवं गुरु सांभळनार भव्य जीवोने आश्रयी कहे के. ] हे जंतुओ ! हे मनुष्यो ! तमे जुओ ! (मनुष्य धर्म करवाने योग्य होवाथी मनुज शब्द लीघेल छे ) हवे क्या मनुष्यो निरंतर धर्मने न समजतां कर्म बन्धमा कुशल छे ? ते कहे छे:
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'जे अणुवरया' - जे कोइ (चोकस अमुक एम नहीं) पण पाप अनुष्ठानथी त्रिरक्त [निवृत्त] न होय, तेओ ज्ञान दर्शन चारित्र
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सूत्रम
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