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आचा०
॥५७६ ।।
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(स्वभाव) परिग्रहनी छे, अथवा से परिग्रहधारी पोते बधाय चमके थे. [ के मारो परिग्रह कोइ न लइ ले 1] अथवा दिगम्बरने आ शरीर नभावना आहारादिक लेवा बीजुं भल्प पात्र वकत्राण (कपडे) विगेरे रूप धर्मोपकरणना अभावथी गृहस्थना घरमां आहार वापरतां सम्यग् उपायना अभावथी अविधिए अशुद्ध आहार विगेरे खातां कर्मबन्धथी उत्पन्न यएल महाभयनो हेतु होवाथी महाभय छे, तथा आ धर्म शरीरने बधी रीते आच्छादन (ढांकवाना) अभावधी बीभत्स होवाथी बीजाओने महा भयरूप छे.
आ प्रमाणे परिग्रह महाभय छे, तेथी कहे छे के 'लोग' - असंगत लोकनुं अल्प विगेरे विशेषवाळं द्रव्य तेने महाभयरूप छे, (सूत्रमां व शब्द पुनः ना अर्थमां छे, फुं वाक्यनी शोभा माटे छे) अथवा लोक वित्तने बदले लोकहत लड़ए तो आहार भय मैथुन परिग्रह संज्ञाबाळु लोकतुत छे. ते लोकनुं वलण मोटा भयने माटे छे. एवं उत्तम साधुए इ परिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञा| बडे ते लोकोनी संसारी चेष्टाओने त्यागी देवी, ते त्यागनारने शुं थाय, ते कड़े छे, 'एएसंगे' -ए थोडं पणुं द्रव्य संग्रह करवानुं अथवा शरीर आहार विगेरेनी मूर्छाने न करवाथी ते परिग्रह राखवाथी धर्तु दुःख ते साधुने न थाय बळी:
से सुपडिबुद्धं सुवणीयंति नच्चा पुरिसा परमचक्खू विपरिक्कम्मा, एएस चेत्र बंभचेरं सिबेमि, से सुयं च मे अज्झत्थयं च मे -बंधपमुक्खो अज्झत्थेव, इत्थ विरए अणगारे दीराहयं तितिक्खए, पत्ते बहिया पास, अपमत्तो परिवए, एवं मोणं सम्मं अणुवासिजासि तिबेमि (सु० १५०) लोकसार अध्ययने द्वितीयोदेशकः ॥५-२॥
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सूत्रम्
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