Book Title: Acharanga Stram Part 03
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 171
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५९२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विराधनानो संभव छे. [२] श्रुतथी अव्यक्त पण वयथी व्यक्त छे, तेने पण अगीतार्थपणाथी संयम तथा आत्म विराधनानो संभव होवाथी एकल विहारनो निषेध छे. [३] तथा श्रुतथी व्यक्त पण वयथी अव्यक्त होय तेने पण बाळकपणाथी सर्व प्रकारे पर भवना कारणे अने विशेषथी चोर तथा कुलिंगि ( अन्य दर्शनी बाबा विगेरे) नो भय छे, तेथी तेने पण एकलविहार न कल्पे. [४] पण जे बने प्रकारे व्यक्त छे, तेने कारण पडे अथवा प्रतिमा स्वीकारी होय, अथवा (चित्त सोबतीना अभावे) एकलविहार करवो पढे तो करे, आवाने पण कारणना अभावमां एकलविहारनी आशा आपी नथी. कारण के ते एकलविहारमां इर्या समिति तथा गुप्ति विगेरेमां घणा दोषो थाय छे, ते बतावे छे. [१] एकलो भमतां जे इर्यापथ (मार्ग) जोतो चाले, तेने पछवाडे कूतरा विगेरेनुं देखतुं बनी शके नहीं, अने कुतरा विगेरेने देखवा जाय तो इर्या पथनुं भान न रहे, ए प्रमाणे बधी समितिओनुं जाणी छेतुं, वळी अजीर्णना कारणे अथवा वायुना रोकनाथी अथवा रोगो उत्पन्न धतां संयम तथा आत्मानी विराधना थाय. तेथी चैन शासननी पण हीलना थाय, तथा तेना उपर दया लावीने गृहस्थी तेनी चाकरी करे, तो अज्ञानपणाथी छकायनुं उपमर्दन करतां संयमने बाधा उपजावशे, अने तेवो दयालु गृहस्थ न मळे तो दवा न करवायी ते साधुनी आत्मविराधना याय, तथा अतिसार (झाडा) विगेरेमां पेशाब झाडा, विगेरेथी कपडा तथा शरीर वरढाइ जवाबी दुर्गच्छा आवतां लोको जैन धर्मनी हीलना [निंदा] करे, बळी गामडा विगेरेमा रहेता ब्राह्मण विगेरे केश लुंचन विगेरेथी For Private and Personal Use Only XIGE सूत्रम् ॥५९२॥

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