Book Title: Acharanga Stram Part 03
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020010/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir DETERSISTERIESSESSISISTEITICS ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ (श्रीसुधर्मास्वामीए रचेलं अने श्री श्रुतकेवलीभद्रबाहुरचित नियुक्तिसहित) ।आचाराङ्गसूत्रम्॥ भाग त्रीजी (मूल अने शीलाङ्काचाये रचेली टीकाना भाषांतरसहित) जामनगरनिवासी स्व. पण्डित हंसराजभाइ शामजीना स्मरणार्थे छपात्री प्रसिद्ध करनार-पण्डित हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) पडतर किंमत रु.२-८-० प्रति २०० श्रीजैनभास्करोदय प्रिन्टिंग प्रेसमा छाप्यु जामनगर. For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥४२१॥ *२२%२४२** ||श्रीजिनाय नमः। ॥श्रीआचाराङ्गसूत्रम्॥ (मूळ अने शिलांकाचायें रचेली टीकार्नु भाषांतर ) भाग त्रीजो छपाची प्रसिद्ध करनार-पण्डित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा) । । (शितोष्णीय नामनुं त्रीजुं अध्ययन.) बीजुं अध्ययन कई हवे त्रीजु कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छ-पूर्वे शस्त्रपरिज्ञा नामना पहेला अध्ययनमा आ अध्ययननो अधिकार कह्यो छे. के शीत, अने गरमीनो अनुकुल के प्रतिकुळ ( सुख-दुःख ) परिषद आवे; तो, समभावे सहन करखो. ते हवे कहे छे: अध्ययननो संबंध शस्त्रपरिज्ञामां कहेल महाप्रतने धारण करेला; अने, लोकविजय नामना अध्ययनमा बतावेल संयम पाळनारा 1 For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४२२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा कषाय विगेरेने जीतनारा मोक्षाभिलाषीसाधुने कोइ वखते अनुकुल के प्रतिकुळ परिषद आवे छे, ते वखते मन निर्मळ राखीने तेने समभावे सहन करवा. ए प्रमाणे, संबंधी आ त्रीजुं अध्ययन बताच्णुं छे. एना उपक्रम विगेरे चार अनुयोगद्वार थाय छे. तेमां उपक्रममा अर्थाधिकार वे प्रकारे छे, तेमां अध्ययननो अधिकार पूर्वे को छे. अने उद्देशनो अर्थाधिकार हवे नियुक्तिकार बतावे छे. पढमे सुत्ता अस्संजयत्ति.' ? विइए दुहं अणुहवंति । तइए न हुदुक्खेणं, अकरण याए व समणुत्ति १९८ उद्देसंमि उत्थे, अहिगारो उवमणं कसायाणं । पात्र विरईओ विउणो, उ संजमो एत्थ मुक्खुति ॥ १९९॥ (१) पला उद्देशामांकनुं छे केः- जे भावनिद्रामां सुता छे, ते सारा विवेकथी रहित छे. प्रश्नः - ते क्या छे ? उत्तरः- जे गृहस्थों के ते. ते भावी सुतेला ओना दोष कहे छे. तथा जे भावधी जागता हे, तेना गुणाने बतावे छे. सूत्र 'जरामच्चुं विगेरे. (२) बीजा उद्देशामां जे गृहस्थो भावनिद्रामां सुतेला छे, तेमने यतां दुःखो बतावे छे. ते सूत्र 'कामेसु गिद्धा ' श्रीजामांक ले केः -- फक्त दुःख सहन करवाथीन साधु न कहेवाय पण जो संयमअनुष्ठान करे; तो ते साधु छे नहींतो, ते साधु नहीं. ते सूत्र कहे छे. 'सहिए दुक्ख' चोथा उद्देशामां कषायोनुं वमन कर. एटले न करना; अने बाकीनां पापो छोडवां. ते पंडित साधुनुं संयम छे, अने प्रथम start लइने लोभ at कषायो दूर थवाथी क्षपकश्रेणिना क्रमथी केवळज्ञान प्राप्त थाय छे, भने अघातिकर्म दूर थवाथी आठे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४२२॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥४२३॥ कर्मोनो नाश थतां मोक्ष थाय छे, ने वे गाथामां बतायुं छे. नामनिष्पन्ननिक्षेपामा 'शीतोष्णीय' अध्ययन छे माटे शीत उष्ण ब-3 आचा० नेना निक्षेपा कहे छे: नाम ठवणा सायं, दवे भावे य होइ नायव्वं । एमेव य उण्हस्सवि, चउबिहो होइ निक्खेवोनि. गा.१२००1। ॥४२३॥ नाम. स्थापना, द्रव्य अने भाव एम चार प्रकारे निक्षेपा . तेमां नाम स्थापना सुगमने छोडी द्रव्य निक्षेपोशोत अने उष्णनो कहे छे. दव्वे सीयल दव्वे, दव्वुणहं चेव, उहदव्वं तु । भावे उ पुग्गलगुणो जीवस्स गुणो अणेगविहो ।२०१। . ज्ञ शरीर भव्य शरीर छोडी व्यतिरिक्तमा गुण गुणीना अभेदपगाथी द्रव्य शीत ठंडा गुणथी युक्त द्रव्य, अथवा शीतर्नु कारण ही जे द्रव्य ते द्रव्यना प्रधानपणाथी ने शीत द्रव्य हे, ते बरफ हिम करा विगेरे छे, एज प्रमाणे उष्णमां गरम पदार्थ लेवा. भाषयी चे प्रकारे छे एटले पुद्गालाश्रयी, तथा जीवाश्रयी छे, ते गाथाना वे पदमा बतावेल छे, तेमां पुद्दालाश्रयी ठंडो गुण ६ गुणना प्रधानपणाने बताववारूपे छे, तेम भाव उष्णमां पण जाणवू. जीवने आश्रयी शीत अने उष्ण रुपवाळो अनेक प्रकारे गुण छे. जेमके औदयिक विगेरेज भायो छे. तेमां औदयिक ते कर्मना उदयथी प्रगट ययेल नारकी विगेरे जीवोने भवना आश्रयी पोतानी मेळे कपाय थाय छे ते उष्ण भाव जाणवो. अने औपशमिक ते सात प्रकृतिना उपशमथी उपशम सम्यक्त तथा विरति (चारित्र) रूप ठंडो भाव छे. तथा क्षायिक भाव पण ठंडो छे. कारणके ते क्षायिक सम्यक्त्व तथा चारित्र रुपवालो छे. अथवा बघा कर्मनो दाह ते (क्षायिकभाव) सिवाय उत्पन्न यतो नथी. माटे ते उष्ण छे. तेज प्रमाणे विवक्षाथी बीजा पण थे ----- For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 15 कारे थाय छे (आम चे भाव आव्या, वाकीनामां पण तेज प्रमाणे जाणवा.) आचाई जीवना आ भवगुणनुं शीतपणुं अने उष्णपणाना रुपमुं वर्णन नियुक्तिकार खुलासाथी पोतेज कहे छे. सूत्रम् Hसीय परिसहपमायुवसमविरई सुहं चउण्हं तु । परीसहतचुजमकसाय, सोगाहिवेयारई दुक्खं दारं ।२०।। ॥४२४॥ भावशीत, ते अहीं जीवना परिणामरूपे ग्रहण करे छे. ते आ परिणाम छे, के संयममार्गमांथी न पडतां साधुए सकाम al॥४२॥ 16/निर्जरामाटे परिषहो समभावे सहन करवा, तथा कार्थमां शिथीलता एटले 'विहारमा प्रमाद' न करवो तथा मोहनीय कर्मने शांत करचु ते सम्यक्त्व. देशविरति तथा सर्व विरति लक्षणवाळो छे अथवा उमशम श्रेणो आश्रयो छे. ते अथवा क्षपक श्रेणी आश्रयी * कपाय विगेरेना क्षयरूप छे, P विरति-प्राणातिपात विगेरेथी दूर रहे, ते विरतिछे. एटले ते सत्तर प्रकारनो संयम छे, तथा सुख एटले पूर्वना पुन्यना। उदयथी भोगव_ ते छे. आ परिषह विगेरे तथा शीत गरमी बन्नेने गायाना चे पदमा कहे छे: परिषह पूर्वे कहेला स्वरूपवाला छे; अने तपमा उद्यम करवो; ते तप वार प्रकारच्छे, ते शक्ति प्रमाणे आचरg; तथा क्रोध 18/ विगेरे कषायो छे, तथा इष्ट न मळे अथवा नाश थाय, ते शोक थाय; ते आधि छे, तथा स्त्री, पुरुष, नपुंसक, एम त्रण वेद छे. अरति एटले, मोहना चिपाकथी चित्तमा मलिनता थाय ते छे, तथा रोग विगेरे दुःखो छे. आ परिषह विगेरे पीडाकारक होवाथी 1 आत्मा तपे तेथी उष्ण छे. आ प्रमाणे टुंकामां गाथानो अर्थ छे, अने एनुं विशेष वर्णन नियुक्तिकार पोते कहे छे:-परिषह,15) SOCIES For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४२५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शीत अने उष्णताना कया; तेमां मंदबुद्धिवाळाने विचार विना शंका याय के, उलडं समजाय; तेथी खुलासा करे छे. इत्थी सक्कारपरासहो य दो भावसीयला एए। सेसा वीसं उण्हा परीसहा हुंति नायव्वा ॥ २०३ ॥ स्त्री-परिसह, अने सत्कार -परिसह, ए बन्ने शीत छे, कारणके, भाव मनने ते गमे छे, बाकीना बीश परिसह प्रतिकुळ होवाथी ते मनने गमता नथी; माटे उष्ण छे. अथवा परिसहोनुं शीत-उष्णपशुं बीजी रीते कहे छे:जे तिब्वष्परिणामा, परिसहा तेभवे उण्हाउ । जे मंदष्परिणामा परिसहा ते भवे सीया ॥ नि. गा. २०४ दारं ॥ दुःखेकरीने सहन थाय; तेवा तीव्र स्वभाववाळा गरम परिसह जाणवा, अने जे मंदपरिणामवाळा ( सहेलाइथी सहन थाय; ) ते शीतपरिसह छे, तेनो खुलासा करे छे के, जे शरीरमां दुःख उत्पन्न करनारा थाय; अने सहेलाइथी सहन न थाय, तथा मनमा खेद करावे; ते तीव्र परिणामवाळा होवाथी उष्ण छे, अने जे परिषद फक्त शरीरने दुःख उत्पन्न करे छे, पण बळवान पुरुषने मननुं दुःख तेमां धतु न होय; ते भावथी मंदपरिणामवाळा होवाथी ते शीत-परिषद छे. अथवा जे घणा जोरमां परिषद आवे ते उष्ण छे, अने जे शरीर उपर थोडी असर करे; ते शीत-परिषध जाणवा. हवे, परिषह पछी साथेज शीतपणे जे प्रमादपद लीधुं छे अने तपश्चर्यामां उथम करवो; ते ऊष्णपणे लीधुं छे. ते बन्नेने नीचली गाथामां कहे छे: | धम्मंमि जो पमायइ अत्थेवासीअलुति तं बिंति । उज्जुतं पुण अन्नं तत्तो उपहंति णं विंति ॥ नि.२०५ ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४२५॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * आगा * ॥४२६॥ ॥४२६॥ * धर्म ते श्रमण धर्ममा जे साधु प्रमाद करे, पोतानी क्रिया न करे. अथवा जेनाथी अर्थ सधाय ते धन धान्य, सोनुं विगेरे मे ळवया उपाय करे, तेवाने शीत (ठंडो ) परिषह कहे छे, पण जे साधु प्रसाद न करे अने संयममा उद्यम करे ते उष्ण परिषह । कहेवाय छे. (मूत्रमा 'ण' शोभा माटे छे) हवे उपशम पदनी व्याख्या करे छे. सीईओ परिनिव्वुओ य संतो तहेव पण्हाणो (ल्होओ) । होउवसंत कसाओतेणु वसंतोभवे जीवो २०६ उपशम गुण क्रोध विगेरेना उदयना अभावमा होय छे, अने ते कपाय अग्नि ठंडो थवाथी आत्मा ठंडो थाय छे, तथा क्रोध विगेरे अनिनी ज्वाळा बुझे त्यारे ते परिनिर्वृत थाय छे, अने रागद्वेष रुप अग्निना उपशमथी उपशांत छे तथा क्रोधादि परिताप | दर थवाथी आत्मा आनंदित थाय छे अने तेज सुखी छे कारण के जेने कषायो शांत छे तेज सुखी छे. अने तेथीज उपशांत कषा| यवाळो आत्मा शीत थाय छे. आ बधां पदों एक अर्थवाळां छे. एटले (१) शीतीभूत (२) परिनिर्वृत (३) शांत (४) प्रल्हाद. आ | उपशांत कषाय कहेवाय छे (आ पदोनो अर्थ क्रोधादिने शांत करवानो छे) हवे विरतिपद कहे . अभय करो जीवाणं सीयघरो संजमो भवइ सीओ। अस्संजमो य उपहो, एसो अन्नोऽविपज्जाओ ॥२०७॥ | जीवोने अभय करवानो आचार ते शीत (सुख) छे. ते, घर छे, ते, प्र. क्युं? उत्तर. सतर प्रकारनो संयम पाळबो ते शीत छे. कारण तेमां बधां दुःखनो हेतु जे रागद्वेष विगेरेना जोडलां छे, ते विरतिमां दुर थाय छे. एथी, उलटो असंयम ते उष्ण छे. * R-CGFSCSEKASIC CARRESTER For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् ॥४२७॥ आ शीत अने उष्ण लक्षणरूप-संयम, असंयपनो बीजो पर्याय, मुख दुःखरूप.छे. ते विवक्षाना कारणथी थाय छे. तेथी हवे, आचा। मुखपदनुं विवरण करे छे. निवाणसुहं सायं सीईभूयं पयं अणावाहं । इहमवि जं किंचि सुहं तं सोयं दुक्खमवि उण्हं नि. ॥२०॥ ॥४२७॥ मोक्षसुखनु स्वरूप अहींयां मुखने शीत का छे, अने ते रागद्वेष विगेरेनां बयां जोडको दूर थवाथी घणुंज अने एकांत वाधारहित लक्षणवाळू निरुपाधिक परमार्थ चिंतामा विचारता मुक्तिनुं सुख तेज साचं सुख छे, पण वीजुं नथी. अने ते सुख आठे कर्मनो ताप दूर थबाथी शीत छे. ते निर्वाण मुख बतावे छे, अने निर्वाण ते क्या कर्मनो क्षय जाणवो, अथवा विशिष्ट आकाश प्रदेशवाळू स्थान (सिद्धिस्थान) 8 तेमां (जीव निश्चल पणे) रहेवाथी निर्वाण सुख छे. अने आ वां पदो एक अर्थवाला छे. एटले साता शीतीभुत, अनावाधपद ए त्रणेनो अर्थ निर्वाण मुख छे. अने आ संसारमा पण सातावेदनीयना विपाकथी उदयमा आवेलुं सुख ते मनने आनंद आपत्राथी शीत छे. अने तेथी उलटुं पापथी उदयमां आवेलं दुःख ते उष्ण छे. हवे कषाय विगेरे पदो कहे छे. डिज्झइ तिबकसाओ सोगभिभूओ उइन्नवेओ या उण्हयरो होय तयो कसायमाईवि 'ज' डहाइ ॥२०॥ तीव्र एटले घणा प्रमाणमां विपाक उदयमा आवतां कषायो जेने उदयमा आव्या होय ते बळे छे. आ कलाय अग्निवाळो जीव Sax ॐॐॐEOS For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४२८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फक्त बळे छे, एटलंग नहीं पण शोक एटले व्हालांना वियोगथी उत्पन्न थयेल शोकथी मूढ बनीने शुभ व्यापार (धर्म) ने जे भुले ते पण बळे छे, तथा जेने संसारी सुख भोगववानी इच्छा थइ होय, तेवोपण बळे छे कारण के पुरुष वेदवाळो खीने इच्छे छे. अने स्त्री पण पुरुषने इच्छे छे, अने नपुंसक तो बनेने इच्छे छे तेनी प्राप्ति न धाय तो आकांक्षा पुरी न थवाथी ते अरति दाहे बळे छे, अने (च) शब्दथी (शब्द विगेरे पांच इन्द्रियना विषयोनी) इच्छा अने कामनी प्राप्ति न थाय तोपण जीव अरविना दाहे बळे छे, तेथी आ प्रमाणे कषायो शोक अने वेदनो उदय ए त्रणे जीवने बाळनारा होवाथी ते उष्ण छे, अथवा वधुं मोहनीयकर्म, अथवा आठे प्रकारनुं कर्म उष्ण छे आधी पण वधारे दाहकपणावा तप छे ते अधी गाथामां बतान्युं छे, कारण के उष्ण कपायने पण तप तपावे छे. माटे ते तप उष्णतर छे. मूळ गाथामां कषाय जोडे आदि शब्द छे. तेथी एम जाणवुं के तप कपायने वाले; तेम शोक अने वेद उदयने पण बाळे छे. आ प्रमाणे अनेक रीते शीत उष्ण बतावी जे अभिप्रायवडे आचार्ये द्रव्यभावथी भेदवाळा परिषह प्रमाद उद्यम विगेरे रूपवाळा शीत उष्ण बतावेल छे, ते आचार्यना अभिप्रायने हवे प्रगट करे छे. सी उपहास सुहदुहपरी सहकसाय वेय सोयसहो । हुज्ज समणो सया उज्जुओ, य तत्रसंजमोवसमे ॥ २९०॥ शीत अने उष्ण ए वन्नेनो जे स्पर्श छे, तेने सहन करे; एटले, शीतस्पर्श अने उष्णस्पर्श शरीरे (अधिकपणाम ) लागयाथी जीववेदनाने अनुभवतो होय; छतां आर्तध्यान न करे; एटले, शरीर अने मनने अनुकुळ थतां सुख अने विपरित धतां दुःख अनुभवे; तथा परिषद कषायवेद तथा शोक जे ठंडी तथा गरमीथी उत्पन्न थाय ते बधांने सहे छे. आ प्रमाणे ठंड अने उष्ण विगेरे For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ४२८ ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४२९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहीने साधु हंमेशां तप अने संयमना ऊपशममां उग्रमवाळो थाय (अर्थात् गृहस्थ उनाळामां के शियाळामां जीवोने दुःखरूपी पाणी छटवानुं के, अग्नि बाळवानुं पाप करे छे. तथा हायपीट करे छे, अथवा, बगीचा विगेरेमां जइ वनस्पतिने दुःख आपी पोते सुख मानी अहंकार करे छे ते साधुए न कां; पण सुखदुःखने समभावे सहन करीने समाधिमा रहेवुं.) हवे समाप्त करतां ए टंड तापने घणा प्रमाणां सहेवां ते बतावे छे. सीयाणि य उवहाणि य, भिक्खू हुंसि विसहियाइ । कामा न सेवियावा, सीओसणिजस्स निज्जुत्ती २११ परिषद्-प्रमाद उपशम-विरति सुखरुप जे पदो पूर्वे ठंडपणे यताव्यां; तथा परिषहतप उद्यम - कषाय शोकवेद अरतिरुप पूर्वे उष्णरूपे बतायां छे. ते बधांने मोक्षाभिलाषी साधुए सहेवां; पण, ते सुखनो हर्ष, अने दुःखनो शोक न करवो; ते परिषहोने सम्यक् दृष्टि जीव जो कामनी अभिलाषा दूर करे; तो तेनाथी सदन थाय छे, माटे, नियुक्तिकार कहे छे के: -- गमे तेवा परिषद ठंड के, उष्णताइना आवे; तोपण, ते कामो (खोटी इच्छाओ) मां चित्त न राखनुं तथा कुमार्गे न जनुं. आ प्रमाणे, त्रीजा अध्ययननो नामनिष्पन्न निक्षेपो को हवे, मूत्र अनुमममां अस्खलित विगेरे गुणवाळु निर्दोष वचन कहेतुं ते आछेसुत्ता अमुणी सया मुणीणो जागरंति (सूत्र० १०५) पूर्वसूत्र सानो संबंध बतावे छे, दुःखोना आर्त्त (चक्रावा) मां जे भमे ते दुःखी छे, एटले आ लोकमां जेओ भाव निद्रामां अज्ञानी जीवो सुताछे. ते दुःखोना चक्रावामां भमवाथी दुःखी छे. कनुं छे के:-- For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४२९॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४३०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नातः परमहं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञान महारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम् ॥१॥ आ जगतमां जे अज्ञानरूपी महारोग सर्वे जीवोने दःखे करीने दूर थाय तेवो असाध्य छे, तेनाथी बीजु दुःखनुं कारण हुँ मानतो नथी, विगेरे छे. अहिं सुतेला वे प्रकारना छे, द्रव्यथी अने भावधी तेमां निद्रा ममादवाळा द्रव्यथी सुता छे, अने मिथ्यात्व अने अज्ञानरुप महानिद्राथी मूढ वनेला जेओ मिथ्यादृष्टि (मोक्ष मार्गथी विमुख) अमुनि छे. तेओ निरंतर भावथी सुतेला जाणवा, कारणके तेओ (सर्व जीवोने अभय दान आपत्रा रूप) सम्यकज्ञान तथा चारित्रनी क्रियाथी रहित छे. पण निद्रामां पडेलानुं आ प्रमाणे समज के बखते मिध्यादृष्टि दोह अने सम्यक् दृष्टि पण होय, आ अमुनि यादे बतान्युं हवे मुनिओनुं वर्णन करे छे. तेओ हंमेशां सुबोधथी युक्त अने मोक्षमार्गथी चलायमान यता नथी पण निरंतर हिसने मेळवावा अहितने छोडवा. संयम पाळवा प्रयास करे | तेथी तेभी जागता छे अने शरीरनी स्वभाविक अशक्तिथी द्रव्य निद्रा तेओने होय ( सुवे ) तो पण रातना नवथी ऋण वाग्या सुधी शास्त्रमां बतावेली विषए सुवाथी तथा अल्प निद्राथी तेओ जागताज है, आज भाव स्वाप ( सुवुं ) तथा जागरण करवुं ते संबंधी नियुक्तिकार गाथा कहे छे: सुत्ता अमुणिओ सया मुणिओ सुत्ता त्रि जागरा हुति । धम्मं पडुश्च एवं निद्दासुत्त्रेण भइयां ॥ २१२ ॥ oret अने भावी बन्ने प्रकारे स्रुता छे, तेमां निद्राथी स्रुतेलानुं वर्णन पछी कहेशे अने भावयी सुतेलानुं पहलां कहे छे. जेओ अमुनि (गृहस्थो ) मिथ्यात्वथी तथा अज्ञानथी घेराइने हिंसा विगेरे पांच आस्रव सदा वर्ते छे, तेओ भावथी सुतेला छे. अने For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४३०॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandi आचा ॥४३१॥ मुनिश्रीने मिथ्यात अज्ञानरूप निद्रा दूर थवाथी सम्यक्त्व विगेरेनो बोध पामीने भावथी तेओ जागता छे. जो के, आचार्यनी आज्ञा लइने, मुनिश्री नवथी त्रणसुधो रात्रीना बोजा त्रीजा पहोरे दीर्घसंयम माटे शरीर आधाररूप होवाथी मत्रम सुवे; तोफ्ण तेश्रो सदाए जागताज छे. आ प्रमाणे धर्मने आश्रयीने मुता अने जामता बताव्या. हवे, द्रव्यनिद्रामा सुतेलामा भजना जाणवी; एटले, तेमनामा धर्म होय अथवा न पण होय, ॥४३१॥ एटले जो भावयी नागे; अने निद्राथी आंखो घेराबाथी मुवे तोपण तेने धर्म छे, अने भाववी जागतो होय; पण निदा अने|| प्रमादमा तेनुं ध्यान होयतो, तेने न पग होय; पण जे द्रव्यभाव बन्नेमा मुताछे, तेने न होय; एम भजनानो अर्थ छे. मनः-द्रव्यथी सुतेलाने धर्म केम न होय ? उत्तरः-द्रव्यथी सुतेलाने निद्रा होय छे, ते निद्रा दुःखेथी दूर थाय छे, कारणके, स्त्यानदि (थीणद्धि) त्रिकना उदयमा सम्यक्त्वनी प्राप्ति मोक्षमा जनारा भवसिद्धि जीवोने पण थती नथी; अने तेनो बंध मिथ्याष्टि, अने सास्वादननी साथे अनंतानुबधी B कषायना बंधवाळाने होय छे. R अने तेनो क्षय अने अनिवृत्ति बादर गुणस्थान कालना संख्येय भागोमांना केटलाक भाग जाय त्यांसुधी होय छे. तेज प्रमाणे निद्रा, अने प्रचलाना उदयमां पण पूर्व माफक छे. बंधनो उपरम (दूर थq.) तो, अपूर्व करणकाळना असंख्येय भागना अंतमां थाय छे. पण तेनो क्षय तो, ज्यारे वधा कषायो Hदुर थाय; तेना द्वीचरम समयमां (छेल्लानो पहेलामां) थाय छे. For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आब० ॥४३२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अने उदय तो उपशमक, अने उपशांत मोहवाळा मुनिओने पण होय छे. एथी, निद्रा प्रमादने दुरंत को छे. (दर्शनावरणीय कर्मनी नव प्रकृतिमां पांच निद्रा छे, तेमां निद्रा, प्रचला, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, अने थीणद्धि अनुक्रमे प्रमाणमां बधारे निद्रा छे, तेनुं वर्णन कर्मग्रंथमां छे, त्यांथी जोबुं. अहीं एटलं कहेवानुं छे के, परमार्थ (मोक्षनुं) लक्ष राख; अने बने त्यांधी अल्प निद्रा करवी.) अने द्रव्यथी निद्रामा सुतेो दुःख पामे छे. (जेमके, ऊंघणसी माणस वरमां आग लागतां बळीजाय छे, घरमाथी धन चोराइ जाय छे.) तेज प्रमाणे भावथी सुतेला पण दुःख पाये छे ते बतावे छे. | जह सुप्त मन्त मुच्छिय असहीणो पावए बहुं दुक्खं । तिव्वं अपडियारंपि वद्यमाणो तहा लोगो ॥ नि. २९३॥ निद्रा तेल तथा दारू विगेरेना निशाथी गांडो थलो तथा घणो मार मर्मस्थनमां पडवाथी बेशुद्ध बनेलो तथा वायु विगेरे दोषथी चक्री आani परश यएलो जोव बहु दुःख पामे छे छतां पोते ते वखते बदलो के उपाय लइ शकतो नथी तेज प्रमाणे भाव निद्रा एटले मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कपाय विगेरेमां सुतेलो जीव समूह नरक विगेरेना भवनां दुःखो भोगवे छे, इवे बीजी रीते उलटा दृष्टांतथी उपदेश देवा कहे छे: एसेव य उवएसो पदित्त पयलाय पंथमाईसुं । अणुहवइ जह सचेओ सुहाई समणाऽवि तहचेव ॥नि. २१४ ॥ उपर कहेलो उपदेश जे विवेक अने अविवेक संबंधी थाय छे. ते बतावे छे जेमके सवेतन (बुद्धिमान) विवेकी आग लागतां For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४३२॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्रम ॥४३३॥ ॐ: वितेमांथी नीकळीने मुखी थाय छे अने विनवाला अने विनरहित एवा मार्गनुं ज्ञान जेने छे ते सुखेथी पार पहोंचे छे. आदि शब्दथी जाणवू के चोर विगेरेना भवमा विवेकी माणस सुखथी ते विनमे दर करी सुखी थाय छे. तेज प्रमाणे साधु पण भावी सदा विवेकी | होवाथी जागतो रहिने बयां कल्याणने मेळवे छे मुता अने जागता सबंधी गाथाओ कहे है:॥४३३॥ जागरह णरा णि जागरमाणस्स बड़ए बुद्धी । जो सुअइ नसो धण्णो जो जग्गइ सो सया धन्नो ॥१ जागता माणसोनी बुद्धि व छे माटे हे माणसो ! तमे जागो ( अल्पनिद्रा करो.) जे मुवे छे, ते धन्यवादने योग्य नथी, पण जागतो माणस धन्यवादने योग्य छे. सुअइ सुअं तस्स सुअं संकियखलियं भवे पमनस्स । जागरमाणस्स सुअंथिरपरिचिअमप्पमत्तस्स ॥२॥ 8 जे घणु सुवे के तेने प्रमादथी तेनुं भणेलं शंकावालु तथा भुलोवाळ याय छे, पण अप्रमादी जागता साधुनु भणेलुं स्थिर परि-18 चयत्राळ (भुल वगरन) रहे छे. नालस्सेण समं सुक्ख, न विजा सह निदया। नवेरग्गं पमाएणं, नारंभेण दशलया ॥३॥ | आळसनी साथे सुख नथी. ( आळमुने मुख न होय; ) तथा निद्रानी साथे विद्या न होय; प्रमादनी साथे वैराग्य न होय; तथा आरंभ करनारने दया न होय. जागरिआ धम्मीणं, आहम्मीणं तु सुत्तया सेआ। वच्छाहिव भगिणाए अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥४॥ %ESSESex RX For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४३४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवने जाग सारं, अधर्मीने सुवं सारुं एवं भगवान् महावीरे वत्स देशना राजानी बेन जयंती श्राविकाने कहुं छे:सुयइ य अयगरभृओ सुअंपि से नासई अमयभूअं । होहिइ गोणभूओ नहंमि सुए अमयभृए ॥५४॥ जे अजगरनी माफक सुवे छे, तेनुं अमृत जेवं भणेलुं नाश थाय छे, तथा तेने अमृत जेवं भणेलुं नाश थतां मुडदाल- वळदीया माफक तेनुं अपमान थाय छे. आ प्रमाणे दर्शनावरणीय कर्मना उदयथी कोइक बखत कोइ साधु स्रुतो होय; पण मोक्षाभिलाषी, अने यतनावाळो होवाथी; तथा तेणे दर्शन मोहनीयरूप-निद्रा दूर करवाथी ते जागतोज छे. पण जेओ, अज्ञानना उदयथी सुतेला छे, ते अज्ञानीज खरा मुतेला छे, अने अज्ञान ते महादुःख छे, अने ते दुःख जंतुओने अहितकारी छे, ते सूत्रकार बतावे छे. लोयंसि जाण अहिया दुक्खं, समयं लोगस्स जाणित्ता, इत्थ सत्थोवरए, जस्सिमे सदा य वाय रसाय गंधाय फासा य खभिसमन्नागया भवंति (सूत्र १०६) छ जीवनीकाय संबंधी तुं दुःखने जाण; एटले अज्ञान अथवा, मोह (मूढपं) ते जीवने नरकादि भवमां दुःख आपनाएं अहितने माटे छे, अथवा तेनुं अज्ञान, तेने अहींयाज बंधने माटे, वधने माटे, तथा शरीर, अने मन संबन्धी पीडाने माटे थाय छे. (अर्थात् गुरु शिष्य कहे छे के:-आ संसारमां अज्ञानी जीवो पोते अज्ञानदशामां पापो करीने नरक विगेरेमां जाय छे, अने त्यां तथा, अहीं अनेक प्रकारनां दुःख सहे छे) ते तुं ध्यानमा राख; अने अज्ञानने छोड, हवे एम जाणवानुं फळ बतावे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४३४॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥४३५॥ ॥४३५॥ द्रव्य अने भाव ए वे प्रकारनी निद्राथी सुतेला जीवो अज्ञानी छे. तेमने धता दुःखथी दूर रहेQ ए ज्ञान- फळ छे. बळी समय एटले आचारागसूत्रमा बतावेल अनुष्टान ( संयम ) ने जाणीने अथवा लोक एटले जीवसमूहने जाणीने तेने जे शस्त्रोथी दुःख थाय ते अस्त्र ज्ञानी साधुए न जणाचवा (शान भणवानुं फळ ए छे के कोइ पण जीवने दुःख न देवू) आ प्रमाणे पहेलांना मूत्र साथे पोजा मुत्रनो संबन्ध छे. कारण के संसारी जीवो भोगना अभिलापीपणाची जीवहिंसा विगेरे कषाय हेतुवाछ कर्म बांधीने नरक विगेरे पीडाना स्थानमा उत्पन्न थाय . त्यांची कोइ वखते नीकळीने बधा दुःखोनुं नाश करनार धर्मर्ने कारण जेमा छे तेवू आर्यक्षेत्र विगेरेमा मनुष्य जन्म पामे छे. बळी त्यां पण (धर्म पाळवाने बदले ) महा मोहना कारणे मोहित मतिवालो बनी ( इन्द्रियोना स्वादने माटे) एवां एवां कार्य करे छे के जेने लीधे ते नीचेनीचे (नारकोमा) जाय छे, पण संसारमाथी पार पहोंचतो नथी (आबुं लोकोतुं वर्तन जाणीने तेवू तयारे न करवू.) अथवा समभाव एटले समता (समयनो अर्थ समता लीयो) छे तेने जाणीने बधा जीवो उपर एटले पोताना आत्मा बरोबर परने जाणीने अथवा शत्रु मित्रने समभावे जाणीने तेमना उपर राग द्वेष तुं न कर, अथवा बधा जीवो एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय सुधी पोताना उत्पन्न यवाना स्थानमा रमवानी इच्छावाळा छे, मरणथीहरे छे, सुखना चाहक छे. दुःस्वना द्वेषी छे आq तेओर्नु समानपणुं जाणीने साधुए Y करवू ते कहे छे, छ जीवनीकायना द्रव्य भावना भेदवाळा शखथी दर रहेचा धर्म जागरणथी जागतो रहे, अथवा जेजे संयमनां शस्त्रो छे ते ते आस्रवद्वार माणातिपात विगेरे छे, अथवा शब्द विगेरे पांच प्रकारना काम गुणो (विषयप्रेम) छे. तेनाथी जे दूर रहे ते मुनि छे. तेज सूत्रकार कहे छे केजे मुनिने पोताना आत्याना अनुभवेला बीजा वधा पाणी संबन्धी इन्द्रियोनी प्रवृत्तिना विषयरूप शन्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्श ते सुंदर अने ॐॐॐ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir 1904 विरुप एम वे भेद छे, ते समीप आवतां अनुकूळ वहाला, अने प्रतिकूळ ते अणगमता लागे छे, तेवू जे मुनि जाणे ते लोकने जाणे স্বাৰা छे. तेनो अर्थ आ छे -मुनिए तेवा विषयो प्राप्त थाय; तोपण अनुकूळमां राग 'न' करवो; अने प्रतिकूळमां द्वेष न करवो तेज सूत्रम् म खरीरीते तेओर्नु अभिसमन्वा गमन (जाणवापणु) छे, पण चीजुं नथी. (आ संसारमा मुनिने बिहार विगेरेमां पुण्योदयथी मधुर है। ॥४३६॥ 15 अवाज, सुंदर देखाव, रमणीय सुगंधी खटरस-भोजन, तथा कोमळ स्पर्श विगेरे प्राप्त थाय छे, तथा पापना उदयथी तेथी उलटुं ॥३६॥ Kथाय छे. तेवा समयमा संसारी-जीवो हर्षखेद करे छे, तेम मुनिए न करवो.) अथवा आलोकमांज शब्द विगेरे विषयो प्राणीओने दुःखने माटे थाय छे, तो परलोकनुं तो, शुं कहे ? कj छे के:5 उक्तंच-रक्तः शब्दे हरिणः स्पर्श नागो रसे च वारिचरः। कृपणपतको रूपे भुजगो गन्धे ननु विनष्टः ॥१॥ हरिण शब्दमां रक्त ययलो, हाथी स्पर्शमा, माछल रसमां, अने रुपमां गरीब पतंगी, तथा मुगंधीमा साप, (अथवा भमरो) खरेखर, नाश पाम्या छे, पच्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा यत्रागृहीतपरमार्थाः । एकः पञ्चसु रक्तः प्रयाति भस्मान्ततामबुधः ॥२॥ आ प्रमाणे, पांच इन्द्रियोमांथी एकमां रक्त थयेला परमार्थ न जाणनारा ते, पांचे अहींयां नाश पाम्या छे, तेम मूर्ख माणस एकलो पांचेमां रक्त थतां तेनो नाश थाय छे. अथवा, पुष्पशाळयी शब्दमां भद्रा नाश पामी अर्जुन चोररुप जोवा जतां नाश पाम्यो; गंधमां गंध मियकुमार नाश पाम्योः रसमां सौदास, अने स्पर्शमां सत्यकि विद्याधर, अथवा सुकुमारीकानो पति ललितांग नाश पाम्यो; SEASESASRKESACS For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् ॥४३७॥ अने तेओने परभवमां नरक विगेरे दुःख भोगववानो भय बाकी रहे छे. आ प्रमाणे गायन विगेरे बन्ने लोकमां दुःख आपनारा आचा० जाणीने जे मुनि तजे, ते केचा गुणो मेळवे ते कहे छे: से आयवं नाणवं वेयवं धमवं बंभवं पन्नाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणिति दुच्चे, धम्मविऊ ॥४३७॥ उज्जू आवदृसोए संगमभिजाणइ (सू०१०७) जे मुनि महामोहनिद्रामा सुतेला लोकांने अहितने माटे यतुं दुःख जाणे; ते लोक समयदर्शी छे, ते शखथी दूर रहीने मधुर गायन विगेरे पांच कामगुणो एकलान दुःखना हेतुओ तरीके ब-परिवावडे जाणे छे, तथा पत्याख्यान परिज्ञावडे त्यागे छे, ते मोक्षा-ल Pभिलापी मुनि छे, अने ते आत्माने जाणनारो छे. एटले, ज्ञानादिक गुणवाळो आत्मा तेणे मेळव्यो; ते आत्मावान छे, कारणके, & शब्दादि विषय त्यागवाथी एणे आत्यानुं रक्षण कयु छे, जो, तेम रक्षण न कयु होत; तो, पोतानां पापथी नारकी, तथा एकेन्द्रिय | विगेरेमा उत्पन्न यतां आत्मानुं कार्य मोक्षमा जवानुं न करवाथी तेनो आत्मा केवी रीते गणाय ? (आत्मानुं कार्य ज्ञानमा रमणता करी; चारित्र पाळी; मोक्षमांज जवानुं छे, ते जे प्राप्त करे; तेणे आत्मा मेळव्या जाणचा; अने तेज आत्भावाळो छे.) ____ अने तेज ज्ञानवान् पण छे. एम जाणवू अथवा, बोजा प्रतिमा आयवी नाणवी छे, तेनो अर्थ आछे केः पोताना आत्माने वभ्र (नरक) विगेरेमा पडतां अटकावे; ते आत्मवित् (आत्माजानी) छे तथा प्रभुए जेवू पदार्थ→ स्वरुप | बताव्यु; ते, जाणे, ते ज्ञानवित् (तत्त्वज्ञानी) ते, तथा जीवादि स्वरूपने जेनावडे जाणे ते वेद एटले, आचारा विगेरे मूत्र जा 253 -30 For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४३८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनारो होय; ते वेदवित् कहेवाय छे. तथा, दर्गतिमां पडता जीवने धारी राखनार, तथा स्वर्गमोक्ष अपावनार धर्मने जाणे से धर्मविद छे. ए प्रमाणे, बधां कर्मरुप -मळ, कलंकथी रहित, एवं योगीनुं सुख ब्रह्मचर्य छे, तेने जाणे ते, ब्रह्मवित् छे, अथवा, अढार मकारनुं ब्रह्म छे. आ प्रमाणे, ज्ञान, वेद धर्म, अने ब्रह्मचर्य प्रकर्षथी ( उत्कृष्टपणे) जेनावडे ज्ञेय पदार्थों जणाय; ते प्रज्ञानो छे एटले, | मति विगेरे पहेला भागमां बतावेल ज्ञानवडे जीवलोक जेवे रुपे रह्यो छे तेने जाणे; अथवा जीवलोकने रहेवानुं जे स्थान, जे क्षेत्रलोक छे, तेने पोते जाणे अर्थात् जे शब्दादि विषयोनो राग तजे; तेज, ज्ञानि यथावस्थित लोकतुं स्वरूप जाणे छे, अने तेवो ज्ञानी प्रथम बतावेला गुणवाळो (एटले जे आत्मवान् ज्ञानवान वेदवान् धर्मवान् ब्रह्मवान् ) थोडा अथवा, समस्त मज्ञानवडे लोकोने जाणे तेने मुनि कहेवो; कारणके, जगतनी त्रणे काळनी अवस्थाने माने अथवा जाणे तेने मुनिशास्त्रमां को छे. धर्म ते चेतन अने अचेतन द्रव्पना स्वभावरूप, अथवा श्रुतचारित्ररूप - धर्मने जाणे; ते धर्मवित् जाणवो. रुजु (सरल) शानदर्शन- चरित्र नामना मोक्षमार्गनां जे अनुष्टान छे, तेनाथी अकुटिल छे, अथवा यथार्थरीते पदार्थनुं स्वरुप जाणवाथी सरल छे अथवा वधी उपाधिथी शुद्ध से अवक्र (सरल) के आ प्रमाणे धर्म जाणनार रुजु मुनि होय तेने शुं लाभ मळे ते कहे छे. आटले भाव आवर्त्तते जन्म जरा मरण रोग शोकना दुःख आपवाना स्वभाववालो संसार छे, कहां छे के, रागद्वेष वशाविद्धं, मिथ्या दर्शन दुस्तरम् || जन्मात्र जगत्क्षिप्तं प्रमादाद्भ्राम्यते भृशम् ॥१॥ दुस्तर अने जन्मना आवर्त्तमां फेंकायलं जगत् छे. तेमां प्रमादथी जीवो रागद्वेषना वशी विधाये मिथ्यादर्शनना कारणे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥૩૮॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् आचाखरी रीते कोने कडेवो ? ते कई प्रोतना संगनो खरो जाणनारो ॥४३९॥ पणुं भ्रमण करे छे. भाव श्रोतपण शब्दादि काम गुगनो चिपय अभिलाष छे, अने ते वने 'आवर्त' अने श्रोत मळीने आवर्त श्रोतः शब्द बने छे ते बन्नेमां रागद्वेषबडे संग (संबंध) थाय छे, तेने जाणे छे के आ आवर्त अने श्रोतनुं कारण छे. आ जाणनारो खरी रीते कोने कहेवो ? ते कहे छे, जे अनर्थने जाणीने त्यागे, ते जाणनारो छे. अर्थात् संसार श्रोत ते रागद्वेष रुप संग छे. ४/तेने जाणीने जे त्यागे तेज आवर्त श्रोतना संगनो खरो जाणनारो छे. उपर बताव्या प्रमाणे सुता अने जागताना दोषो तथा गुणोने का जाणनारो क्या गुणो मेळवे, ते कहे छे. साउसिगच्चाई से निग्गट्टे अरइरइसहे, फरूलयनो वेएइ, जागर वेरोवरए, वीरे एवं दुक्खा पमुख्खसि, जरामच्चुवलो वणिए नरे सययं मृढे धर्म नाभिजाणइ (सूत्र १०८) ते आत्मार्थी मुनि बाह्य अभ्यंतर ग्रंथ रहित (निय) बनीने शीत अने उष्णतानो त्यागी एटले सुख दुःखने न गणनारो अ। थवा ठंड तापना परिषहने सारी रीते समभावे सहन करनारो संयममां रति (प्रेम) अने असंयममा अरति बतावनारो बनी पीडा करनारी परिषहो अने उपसर्गोनी कठोर वेदनाने सहे छे, पण पीडाकारी मानतो नथी, (जेम गजमुकुमाळना ससराए भीनी माटीनी पाळ बांधी माथामा वळता अंगारा भर्या, ते समये घणी पीडा थइ, छतां तेणे ससरानो उपकार मान्यो, अने केवळ ज्ञान । पामी मोक्षमा गयो. तेम बीजा साधुए करवू) अथवा संयम के तपथी शरीरमा पीडा था परुपता (कठोरपणु) आवे अथवा कर्म लेप दूर थवाथी संसारथी खेदी मनवाळो मोक्षाभिलाषी निराबाध सुखनो चाहक बनीने संयम तपमा पीटा थाय तो पण समभावे HSSASARS For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आबा० ॥४४०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहे पण खेद न पामे. 'जागर' एटले असंयम निद्रा दूर थवाथी पोते संयममां जागतो छे अने अभिमानथी यता अमर्ष (अदेखा ) एटले बीजानुं बगाडवानो अध्यवसाय (विचार) ते वैर छे. ते वैरथी पोते दूर के एटले जागर अने वैर उपरत गुणवाळो वीर बने छे, ते कर्म शत्रुने दूर करवानी शक्तिवालो छे तेवा वीरने उद्देशीने गुरु कहे छे हे वीर ! तुं उपरना गुण धारण करीने पोताने अथवा बीजाने संसारना दुःखथी अथवा दुःखना कारणरूप कर्मथी बचीश अने वचावीश. अने उपरना उत्तम गुणोथी रहित प्रमादी जीव संसारना चक्रमां अने दुःखना प्रवाहमां संग करीने उंबतो रहीने ते शुं मेळवे छे ते कहे छे. जरा अने मृत्यु ए ने वश थइने ते प्राणी निरंतर महा मोहथी मूढ बनेलो स्वर्ग अने मोक्ष आपनार धर्मने जाणतो नथी अने संसारमां जीवने एवं कोइ पण स्थानज नथी के ज्यां जरा मृत्यु न होय, प्रश्नः - देवताओने जरा (बूढापो) नथी. उत्तर - देवताओने पण त्यांथी व्यववाना छ महिना पहेला उत्तम लेश्या वळ सुख मधु अने सुंदर वर्णनी हानि थाय छे। तेथी तेमने पण जरानो सद्भाव छे, कां छे के. देवा णं भंते! सवे समवण्णा ? नो इणडे समहे, सेकेणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ गोयमा' देवा दुविहा- वोवणग्गा य पच्छोचवणग्गा य तत्थ णं जे ते पुढोवत्रणग्गा तेणं अविसुद्ध वण्णयरा, जेणं पच्छोववणग्गा ते णं विसुद्धवण्णयरा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४४०॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie ७ गौतमनो मन-हे भगवन् ? बघा देवता समान रुपयाला छे ? -तेम नथी. प्र.-तेनुं शुं कारण ? आचा उ०-हे गौतम ! देवो चे प्रकारना छे. पहेला उत्पन्न थयेला अने पछी उत्पन यता तेमा जे पहेला उत्पन्न थयेल छे ते के-4) सुत्रम 18 इक प्रांखा रुपवाळा अने जे पाछळथी उत्पन्न थया ते विशुद्ध सुंदर रूपवाला होय छे. तेज प्रमाणे लेश्या विगेरेमा पण जाण. ॥४४१H अने च्यवनना वखते तो वधाने बधु प्रांखुज होय छे. जेमके ॥४४१॥ मल्यम्लानिः कल्पवृक्ष प्रकम्पः श्री हीनाशो वाससां चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरागडभड़ो, दृष्टिभ्रान्तिāपयुश्चारतिश्च ॥१॥ माला करमाइ जाय छे कल्पवृक्ष कंपतुं देखाय छे, श्री अने हीनो नाश थाय छे कपडा उपरथी प्रेम उठी जाय छे.दीनता आवे । छे, आळस पाय छे, काम रागनो अने अंगनो भंग दाय छे, दृष्टिमां भ्रांति थाय छे. अने कंपारो थाय छे, अने वधु रमणिक ते अरमणिक लागे छे. (जेम, अहींयां मनुष्यने मरती वखते घरनी ऋदि के, वैभव उपरथी अणगमो थाय छे, तेम देवताने पण देवलोक छोडतां घणो खेद थाय छे, अने कल्पांत करे छे.) जो, आवी रीते हे तो, नकी थयु के, वथा जीवो जरा मृत्युने वश छे तो, तेवू जाणीने पंडित मुनि श्रृं करे ? ते कहे छ:पासिय आउरपाणे अप्पत्तो परिवए, मंता य मइमं, पास आरंभजं दुक्खमिणंतिणच्चा,माई पमाई पुण एइ गम्भं, उवेहमाणो सहरूवेसु ऊज्ज़ माराभिसंकी मरणा पमुच्चई, अपमत्तो AA%EROSEX For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वा सूत्रम् ॥४२॥ कामेहि, उवरओ पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते खेयन्ने जे पजवजाय सत्थस्स खेयन्ने, असआचा त्थस्स खेयन्ने जे अत्थस्स खेयन्ने से पजवजायसस्थस्स खेयन्ने, अकम्मस्स ववहारोन वि१४४ जइ कम्मुणा उवाही जायइ, कम्मं च पडि लेहाए.(सूत्र १०९) ते भावथी जागतो मुनि भावनिद्रामा सुतेला जीवोने मन संबंधी दुःखोधी पीडाता जुबे छे. ते दुःखी जीवो विचारे छे के, हवे अमारे शुं करवू ? एम मूढ बनेला तथा, दुःखसागरमा डुबेला प्राणीओने देखीने पोते तेवो दुःखमां न पडवा माटे मुनि अपमत थइने विचरे; अने संयम अनुष्ठानने बरोबर करे; तेवा शिष्यने गुरु फरीथी कहे छे:-हे बुद्धिमान् ! हे भणेला शिष्य ! तुं भा1 वनिद्राथी सुतेला दुःखीओने जो, अने जागताना गुणो तथा सुताना दोषोने जाणीने सुवानी मति न कर (पमादी न था.) बली पाप क्रियानो आरंभ करनारानां दुःखो तथा दुःखना कारण कर्म, तेने तुं प्रत्यक्ष जो! जेओ जीवहिंसा (खुन) चोरी विगेरे करे छे. तेओने थती शिक्षा साक्षात जो! अने ते जाणीने आरंभ रहित बनीने आत्महितमा जाग्रत था! . (जेभो साधु छे तेपने मोक्ष साधवानो होवाथी गृहस्थ माफक खेती विगेरे आरंभ करवानो नथी छतां जेओ त्यागी नाम का धरावी खेती विगेरे करे छे ते पण ग्रहस्थ माफक दुःखी थाय छे.) पण जे विषय कषायथी मलीन चित्तवाळो भावशायी (पमादी) छे, ते शू मेळवे ते कहे छे. मायी बने, छे, अने माया लेवाथी विधा कषायोवाळो बने तेज कहे थे, क्रोधी मानी मायी लोभी बनीने दारु विगेरेना नसामा प्रमादी थइ नारकीनां दुःख अनुभवी CRICE-SERIES For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Y माऊनच हा पाछो तिर्यंचा गर्भना दुःखने अनुभवे छे. पण जे मुनि कपायरहित अप्रमादी छे तेने शुं लाभ थाय छे. ते बतावे छे. शब्द रुप आचा विगेरेमा जे रागद्वेष थाय छे तेनी उपेक्षा करतो रुजु (सरल) यति थाय छे. एटले खरी रीते जे यति (साधु) छे ते रुजु छे. पण सूत्रम गृहस्थ तो स्त्री विगेरे पदार्थ ग्रहण करवाथी वक्र छे (स्त्री विगेरेने मेळववा राजी राखवा गृहस्थने कपट करवु पढे छे.) वळी ते ॥४४३॥ 5 सरल साधु गायन निगेरेनो उपेक्षा करतो मरण (मार) नी शंका करे छे. एटले बीजाने मारता (दुःख देतां) डरे छे. तेथी पोते ॥४४३॥ पण मरणथी बचे छे. बळी ते काम (पाप चेष्टाभो) थी अप्रमादी रहे छे. अने जे साधु काम चेष्टाना पापोथी दूर रहे, तेज खरी रीते मन वचन कायाना पापथी उपरत (वचेलो) छे. कोण बचे छे? ते कहे छे. जे वीर छे तेज गुप्त आत्मा छे. अने ते खेदज्ञ छे (एटले बीना जोबोना खेदने जाणे छे तेयी कोइने दुःख देतो नथी ते खेदज्ञ साधु गायन विमेरेना आनंदना विषयोना पर्यव४ (भागो) अनुकुल थतां पोते तेना निमित्तना शस्त्रने पाणीभीने दुःखकारक जाणीने तेमा लीन न थतां ते निपुण साधु निरवद्य अनुष्ठान जे अशस्त्र छे ते करे छे. अने ते संयमना खेदने जाणनारो पर्यव जात शस्त्रना खेदने जाणनारो छे, तेनो सार आ छे के जे| साधु पासे शब्दादि पर्यायो सुंदर के विरुप आवे तो लेवानी के त्यागवानी क्रिया वीजा जीवोने दुःखरुप छे तेम जाणे छे अने । मध्यस्थपणुं राखg ते अपीडाकारक होवाथी जे अशस्त्ररुप-संयम छे. ते पोताने अने परने उपकार करनारो छे, एवं जाणे छे. IP आ प्रमाणे, जाणीने शस्त्रने छोडे, अने अशस्त्र (संयम) तेने ग्रहण करे; एटले ज्ञाननुं फळ ए छे के विषयोनः आनंदने छोडनारों; समभाव राखनारो जीवाने बचावी संयम पाळे छे, (अने जीवो उपर रागद्वेष करे; तो, संयम पाळी शकतो नथी.) । अथवा, गायन विगेरे पर्यायोथी, अथवा गायन विगेरेथी उत्पन्न थयेल रागद्वेषना पर्यायोथीं जे ज्ञानावरणीय विगेरे कर्म द For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बंधाय छे, तेने दाहकपणाथी तप ते शस्त्र छे, ते तपना खेदने जाणे ते खेदज्ञ छे. कारणके तेना ज्ञान तथा योग्य अनुष्ठानवडे 21 आचा० जे अशख-संयम छे, तेने पण जागनारो छे, अने संयम तप खेदने जाणनारो आश्रवनिरोध विगेरेथी भवभ्रमणां कर्म जे पूर्वे एकठां की छे, तेनो क्षय थाय छे, अने कर्मक्षयथी जे लाभ थाय छे, ते कहे छे:waen अकर्मनुं वर्णन... __ अकर्म पटले, जेने आठ प्रकारनां कर्ममाथी एक पण कर्म न होय; ते छे, अने ते नारक, तियेच, नर, देव एवी चार गतिमां भ्रमण करवानो व्यवहार नथीः तथा, पर्याप्त-अपर्याप्त अवस्था नथी; तथा बाळपण, तथा कुमारपणुं विगेरे संसारी व्यपदेशो (जुदी 6 जुदी व्यवस्थान नाम) नथी; अने जे सकर्मी छे, तेने कर्मवडे नारकादि व्यपदेश होय छे. तथा ते कर्मनी उपाधिवडे एटले, ज्ञानावरणीय विगेरेथी जुदा जुदा विशेषणो कर्म संबंधी थाय छे ते कहे छे:-जेमके, मति, श्रुत अधि, मनःपर्याय ज्ञानवानो होय; तेने तेनी बुद्धिना प्रमाणमां मंदबुद्धिवाळी, अथवा तीक्ष्ण बुदिवाळो कहेवाय छे. (१) तथा चक्षुदर्शनी अचक्षुदर्शनी निद्रालु विगेरे छे. (२) तथा मुखीदुःखी कहेवाय छे. (३) मिध्यादृष्टि, सम्यग पिथ्याष्टि, स्त्रीपुरुष नपुंसक कषायो विगेरे छे. (४) 8 तथा सोपक्रम निरुपक्रम आयुवाळो, अल्प आवखावालो; विगेरे छे. (५) नारक तिर्यंचयोनीवाळो, तथा एकेन्द्रिय, बे इन्द्रिय, पर्याप्तो-अपर्याप्तो, सुभग-दुर्भग विमेरे छे. (६) उंचगोत्रवाळो, नीचगोत्रवाळो छ, (७) कृपण, त्यागी, निरुप भोगी, निर्षीय छे.(८) आ प्रमाणे आठे कर्मने लीधे संसारी जीवो ओळरवाय छे. जो आवी रीते छे तो शुं करवू ते कहे छे. बानावरणीय विगेरे कर्म छे % For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४४५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेनी उपेक्षा करीने अथवा तेना बंधने प्रकृति स्थिति अनुभाव प्रदेशरूपे विचारीने तेनी सत्ता विपाकने पामेला प्राणीओ जेवी रीते भावनिद्रामां सुए छे ( अने दुःख भोगवे छे ) ते विचारीने कर्म तोडवामां भाव जागरण करवा साधुए उद्यम करतो, ते कर्म तोडवानुं आत्रा क्रमथी थाय छे. प्रथम आठ कर्मवाळो माणस छे ते दीक्षा लड़ने मोहने तोडे पछी अप्रमादी यह क्षपकश्रेणी करे ते आठमे गुणस्थाने क्रोधादि ओछा करो अग्यारमे गुणस्थाने लोभनो सर्वथा नाश करे अने वारमा गुणस्थानना अंते ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अंतराय कर्म दूर करी तेरमे गुणस्थाने चार अघाती कर्मवाळो रहे. आ गुणस्थाने जघन्ययी अंतर्मुहुर्त, अने उत्कृष्टथी पूर्व कोडीमां थोडो ओछो काळ रहे, त्यारपछी १४मे गुणस्थाने पांच स्त्र अक्षर बोलवा जेटलो काळ शैलेशी अवस्थाने अनुभवीने अकर्म थाय छे. हवे, उत्तरप्रकृतिभनुं छतापणुं - अछतापणुं बतावे छे. ज्ञानावरणीय तथा अंतराय ते दरेकनी पांच पांच मेदनी प्रकृति चौदे जीवस्थानम होय छे. तथा, चौद गुणस्थानमां मिध्यादृष्टिथी मांडीने वारमा गुणस्थान सूत्री पांचे प्रकृतिओ होय छे, तेमां बीजो विकल्प थतो नथी तथा दर्शनावरणीयनां त्रण सत्कर्मनां स्थान छे. (सत्कर्म एटले सत्ता छे.) पांच निद्रा, अने चार दर्शन, ए नव प्रकृति सर्व जीवस्थानमां रहे छे. (१) अने गुणस्थानमा अनिवृत्ति वादरकाळना संख्येय भाग सुधी होय छे. (२) केटलाफ संख्येय भागना अंतमां थीणद्धिनिद्रात्रिक क्षय धवाथी छ कर्मत्रा बीजुं स्थान छे. त्यारपछी, क्षीणकषायना अंत समयना पहेला समयमा निद्रा अने प्रचला, ए बेना क्षय थवाथी चार कर्मनुं स्थान छे। अने ते पण क्षय थवाथी क्षीणकषाय काळना अंतमां त्रीजुं स्थान छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४४५॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४४६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वेदनीय कर्मनां वे सत्तास्थान छे. ते आ प्रमाणे: (१) साता अने असावा बन्ने होय. (२ तथा वन्नेमांथी एक साता, अथवा असाता ज्यारे पोते शैलीशी अवस्थामां सौथी डेल्ला समयना पहेला समयमां मोक्ष जवाना काळभां होय; त्यारे कोइपण एक साता के, असाता भोगवे ते बीगुं स्थान छे. मोहनीय कर्मनां पंदर सत्तास्थान छे ते आ प्रमाणे: (१) सोळ कषाय, नत्र नो कषाय अने ऋण दर्शन होय; त्यारे सम्यक्दृष्टि जीवने अठ्ठावी प्रकृति होय छे. (२) सम्यक् वमत मिश्रदृष्टिए सत्तावीस होय छे. (३) स्वभाव अनादि मिध्यादृष्टि होय; अथवा वे दर्शन वमतां छवीश होय. (४) सम्यक्दृष्टिने अट्ठावीश प्रकृतिमांथी अनंतानुबंधी चार कषाय वमतां अथवा क्षय थतां चांबीश होय. (५) तेनेज मिथ्यात्व क्षय थतां २३ (६) मिश्रदृष्टि क्षय थतां २२ (७) क्षायिक सम्यक्दृष्टि २१ (८) अमत्याख्यान अने प्रत्याख्यान - कषाय जतां १३ (९) कोइपण एक वेद क्षय थतां १२ (१०) बीजो वेद क्षय थतां ११ (११) हास्यादि छ दूर यतां ५ (१२) पुरुषवेदना अभावमा ४ (१३) संचलन क्रोध क्षय थतां ३ [१४] मान क्षय थतां २ (१५) मायाक्षय थतां ए एक लोभ रहे. अने ए लोभ दूर तो मोहनीय सत्ता पण गइ. सामान्यधी आयुष्य कर्मनी सुतानां वे स्थान छे ते आ प्रमाणे - ( १ ) परभवना आयुना बंधना उत्तर काळमां वे आयुष्य होय; अने तेना बंधना अभावमां जे आधुमां होय; तेज बीजुं स्थान छे. For Private and Personal Use Only 20 सूत्रम् ||४४६ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामनां चार स्थान कहे छे. आचा० नामकर्मनी प्रकृतिनां बार सत्तास्थान छे, ते आ प्रमाणे: सूत्रम् (१) ९३ (२) ९२ (३)९१ (४) ८८(५)८६ (७) ७९ (८) ७८ (९) ७६ [१०] ७५ [११]९ [१२] ८ तेनी विगतः॥४४७॥ गति चार, पांच जाति, पांच शरीर, पांच संघात, पांच बंधन, छ संस्थान अंगोपांग त्रण, संहनन छ, वर्ण पांच, गंध बे, रस/५/ ॥४४७॥ पांच, आठ स्पर्श, अनुपूर्वी चार. अगुरु लघु, उपघात, पराधात, उछ्वास आतप, उद्योत. ए छ तथा प्रशस्त अने अप्रशस्त, ए वे विहायोगति, तदा प्रत्येक शरीर, प्रस, शुभ, सुभग, सुस्वर मूक्ष्म, पर्याप्त स्थिर आदेय अने यश आ दश शुभ छे अने तेनाथी उलटी बीजी दश अशुभ छे. 11 कुल २० तथा निर्माण अने तीर्थकर एम वधी मळीने नाम कर्मनी ९३ प्रकृति छे. तेमांथी तीर्थकर नामना अभावमा ९२ छे अने आहारक शरीर संपात बंधन अंगोपांग ए चारना अभावमा ९३माथी ४ बाद। ४ कस्ता ८९ छे तेमांथी पण तीर्थकर नामकर्म बाद करता ८८ तथा देवगति तथा अनुपूर्वी वमेली बाद करता ८६ अथवा नरकगति | योग्य बांधतां तेनी गति तथा अनुपूर्वी तथा वैक्रिय चतुष्ठ बांधनारने ८० साथे आ छ मेळवता ८६ छे तथा देवगति पायोग्य बांधनारने पण ८६ छे अने नरक गति तथा अनुपूर्वी मळी बे तथा वैक्रिय चतुष्क चार ए छ वमता ८० रहे छे. वळी मनुष्यगति अनुपूर्वी बन्ने वमता ७८ छे. आ अक्षपक जीवोनां कर्मनां सत्ता स्थान छे अने हवे आपकबाळानां कहे छे. ९३ प्रकृतिमाथी नरक निर्यक गति तथा अनुपूर्वी बन्नेनी मळी तथा १, २, ३, ४, इन्द्रिय जाति मळी चार तथा आतपद ॐ For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० १४४८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्योत स्थावर सूक्ष्म साधारण मळी कुल १३ प्रकृति क्षय थतां ८० प्रकृति रहे छे तथा तीर्थकर नाम न होय तो ९२मांथी १३ जतां ७९ छे. तथा आहारकचतुष्टय दूर थतां ९३ मांथी ८९ रहे अने तेमांथी नारकी विगेरे संबंधी १३ दूर थतां ७६ रहे अने तीर्थकर नाम न होय तो ८९ मांधी १ दूर थतां ८८ रहे अने तेमांथी १३ जतां ७५ रहे छे. तेम ८० अथवा ७६ मांथी तीर्थकर केवळी शैलेशी अवस्थामां पहोंचेलाने छेल्लाना पहेला [द्विचरम ] समयमा तीर्थकर नाम कर्म उमेरवाथी वेदात नव कर्म प्रकृति सिवायनी प्रकृति दूर थतां बाकी अंत समये नव प्रकृति सत्तामां रहे छे ते कहे छे. [१] मनुष्य गति [२] पंचेन्द्रिय जाति [३] स [४] बादर [५] पर्याप्तक [६] सुभग [७] आदेय [८] यशकीर्ति [९] तीर्थकर ए नव सिवायनी बाकीनी ७१ अथवा ६७ द्विचरम समयमा नट थाय छे भने तीर्थकर सिवायना केवळीने आठ होय छे एटले तेने तीर्थकर नाम छोडीने बाकीनी आठ प्रकृति सत्तामां होय छे आ तेनुं छेल्लुं स्थान के [त्यार पछी मोक्षमां जतां एक पण प्रकृति नथी] गोत्रनां वे सत्तास्थान छे. उंच नीच गोत्रना सद्भावमां एक सत्तास्थान के तथा अनिकाय अने वायुकायने उंच गोत्र वमतां मलिनभाववाळी अवस्थामा फक्त नीच गोत्रनी सत्ता रहे है, अथवा अयोगी गुणस्थाने द्विचरम समये नीच गोधनी सत्ता दूर थतां उंच गोत्र एकलुं रहे छे एटले वे गोत्रनी अवस्थामां प्रथम सत्ता स्थान छे अने बनेमांथी एक होय ते बीजुं सत्ता स्थान छे [अंतरायनी पांचे प्रकृतिओ साथे दूर थती होवाथी तेनुं जुदुं वर्णन बताच्यं नथी.) आ ममाणे कर्मोनी सत्ता जाणीने साधुए ते सत्ताने दूर करवा मयत्न करवो. वळी बीजुं कहे छे, For Private and Personal Use Only सूत्रम् વડા Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४४९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कम्ममूलं च जं छणं, पडिलेहिय सवं सामायाय 'दोहिं' अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिज्ञाय 'मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मेहावी परिक्कमि जाति ॥सूत्र ११० ॥ तिबेमि शीतोष्णीयोदेशः ? कर्मनुं मूळ कारण मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योग छे एने समजीने क्षण एटले हिंसा ते प्राणीओने दुःख देवारुप कृत्य कर्मनुं मुख्य मुळ समजीने छोड पाठांतरमा 'कम्ममाहू' पाठ के तेनो अर्थ आछे के उपादान क्षण आ कर्मना छे ते क्षण कर्म के ते कर्म मेळवीने तेज क्षणे | निवृत्ति करे तेनो भावार्थ आ छे; अज्ञान प्रमाद विगेरेथी जे क्षणे कर्मना हेतुरुप अनुष्ठान कर्तुं तेज क्षणे चित्त स्थिर करीने तेना उपादान हेतुने निवृत्ति करे (जेनाथी कर्म बंधाय तेने छोटे अथवा तेनी गुरु पासे शीघ्र आलोचना ले) वळी उपदेश करे छे पूर्वे कहेलां कर्मने समजीने तथा कर्मना विरूद्ध (कर्म हणनार) गुरुनां उपदेश सांभळीने जे रागद्वेष अंतरुपे छे तेनाथी दूर रही अथवा | तेनो संबन्ध छोडीने अथवा कर्म उपादाननां कारण रागादिकने ज्ञ परिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे तजे अने रागादिथी मोहित लोक अथवा विषय कषाय लोक जाणीने तथा विषयनी वांछा अथवा धन उपर ममत्रभाव छोडीने मर्यादामा रहेलो ते मुनि संयम-अनुष्ठानमा प्रयत्न करे; अथवा विषयतृष्णा, अथवा छरिदुर्वर्गने. अथवा आठ कर्मने आवतां अटकावे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे के हुं हुं छं. शीतोष्णीय नामना अध्ययननो पहेलो उद्देशो समाप्त भयो. For Private and Personal Use Only सुत्रम ॥४४९॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४५० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजो उद्देशो पहेलो उदेशो का पछी बीजो कहे छे. तेनो संबन्ध आ प्रमाणे छे:- पहेला उद्देशामां भाव सुतेला बताव्या; अने अहीं तेओना सुवाथी "दुःख पडवानं " फळ बतावे छे. एम ते बन्नेनो संवन्ध छे. सूत्र अनुगम होवाथी सूत्र कहे छे: जाई च वुद्धिं च इहज्ज ! पासे, भूएहिं जाणे पडिलेह सायं, तम्हाऽतिविजे परमंतिणच्चा, संमती न करेइ पावं ॥१॥ जाति एटले, जन्मथी लइने बाळकुमार-यौवन बूढापा सुश्री वृद्धि छे, ते मनुष्यलोकमां, अथवा संसारमां हमणीज (काळना विलंब बिना) तु जो. तेनो सार आ छे के गुरु शिष्यने कहे छे केः हे भद्र ! हमणां जनमता जीवोने बूढापासुधीमां शरीर मन संबन्धी केवां के दुःखो भोगवाय छे ते तुं विवेक चक्षुथी जो, कनुं छे केःजायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो । तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरइ जाइ मध्पणो ॥ १ ॥ जनमता माणसं जे दुःख छे, ते माणसने मरमी बखते पडतां दुःखथी ते तपेलो होवाथी पूर्वथी जाती पण विसरी गयो के. विरसरसियं रसंनो तो सो जोणीमुहाउ निप्फडइ । माऊए अप्पणोऽविअ वेअणमडलं जणेमाणो ॥२॥ माना चावेला आहारने गर्भमां बैठेलो बाळक परवश थइने खाय छे, अने पोते जनमती वखते पोताने तथा, माताने घणी पीडा आपीने योनिद्वारा बहार नीकळे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४५०॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SEXHI हीणभिण्णसरो दीणो विवरीओ विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खीओ वसइ, संपत्तो चरिमं दसं ३॥ आचा० अने ते वृद्धावस्थामा हीन-भिन्न (खोखरो) अवाज होय छे. रांकडु मुख तथा विपरीत विकल्प करनारो दुर्बळ दुःखी अवस्थामां खो अवस्थामा सुत्रम ते पडेलो होय छे, अथवा हे आर्य ! एवं महावीर प्रभु मैत्तिमने कहे छे, के जाति वृदि अने तेनुं मूळ कारण कर्म तथा कार्य दुःख । ॥४५॥ 18/छे तेने जो, अने देखीने बोध पाम, अने तेवू जन्म विगेरेनुं दुःख तने न आवे, एबुं संयम अनुष्ठान कर. . बळी चौद प्रकारना भूत ग्राम (जोबोनां चौद स्थान) छे. तेनी साये तारा आत्मानं मुख सरखाव एटले जेम तुं मुखने वांछे छे तेम बघा पण वांछे छे अने तने दुःख गमतुं नथी तेम चीजान पण समज, तेथी तुं कोइने दुस्ख न दे तो तेथी तने जन्मादि दुःख 13 नहि मळे. कयुं छे के: यथेष्टविषयाः सातमनिष्टा इतरत्तव । अन्यत्रापि विदित्वैवं, न कुर्यादप्रियं जने ॥१॥ जेवी रीते तने इन्द्रियोना रस ब्हाला छे अने अनिष्ट अमिय छे एवी रीते जाणीने बीजाने अप्रिय कृत्य न करतो. शिष्य पूछे छे तो शुं करवू? उ०-जाति वृद्धि सुख दुःख देखीने तत्व बतावनारी श्रेष्ट विद्याने जाण, अनेजे तत्व जाणेला होय, ते मोक्ष अथवा 51 परम ज्ञान विगेरे अथवा मोक्ष मार्गने जाणीने सम्यक्त्वदर्शी बनीने पाप न करे, अर्थात् सारो साधु पाप व्यापार न करे. हवे पापर्नु मूळ संसारी स्नेहना पासो छे, ते छोडवा उपदेश आपे छे, उम्मच पासं इह मच्चिएहि, आरंभजीवी उभयाणपस्सी: कामेस गिद्धा निचयं करति, सं ARKAR २% For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४५२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिचमाणा पुनरिति गर्भ ॥ सूत्र. २|| काव्य आ चार प्रकारना कषाय तथा विषयमा विमोक्षमां समर्थ आधार रूप मनुस्य लोकमां संसारी मनुष्यो साथै द्रव्यथी तथा भावथी बने प्रकारे जे पाश (मोहजाळ) छे, तेने सर्वदा छोड; कारण के ते जन समूह काम भोगनी लालसावालो के तथा ते मेळववा | माटे जीव हिंसा विगेरे पापा आरंभे छे. तेथीज सूत्रमां क ले के ते आरंभथी जीववावाळो छे, अने महारंभ परिग्रहथी रचना करीने जीवननो उपाय योजे छे, तथा उभय एटले शरीरना तथा मन संबंधो अथवा आ लोक तथा परलोक संबन्धी (भोगाकांक्षी) छे, वळी ते काम भोगमां रक्त थइने अशुभ कर्मनां उपचय करे छे। अने ते कर्म संचय करीने एक गर्भथी नीकळी बीजा गर्भमां प्रवेश करे छे। अने संसार चक्रवाळ (चक्रावा) मां अरटनी घटमाळ जेम भराय अने उलवाय ते न्याये जुनां कर्म भोगवे, अने फरी | नवां वांधीने भ्रमण करे छे. बळी ते अनिवृत (विना विचारनो) आत्मा केवो (दुष्ट) थाय छे ते कड़े छे. अविसे हासमासज्ज, हंता नंदीसि मन्नई अलं बालस्स संगेण, वेरं वट्ठेइ अप्पणी (सू० ३) काव्य. लज्जा भय विगेरेना निमित्तथा चित्तना विप्लववाळूं जे हास्य (झांसी) छे, तेने मेळवीने इच्छा प्रेमी बनी (क्रीडानी खातर) जीवने हणी [शिकारमां ] आनंद माने छे, अने बीजाओने फसाववा ते महा मोहथी घेरायलो अशुभ विचारवाळो बोले छे के “आ मृग विगेरे पशुओ शीकारने माटे बनाव्यां है, तथा शिकार सुखी पुरुषांनी क्रीडा माटे छे." जेबी रोते जीव हिंसा सिद्ध करे छे. तेम जुठ चोरीमां पण सिद्ध करे के. आ जुटुं बोली ठगनुं के चोरी करवी ए तो बुद्धि बळनुं तथा बहादुरीतुं काम छे विमेरे समजी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४५२॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४५३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | ले जो आवी रीते संसारी मनुष्यो पाप करनारा छे. तो साधुए शुं करनुं, ते आचार्य कहे छे. के जे मनुष्यो शिकारी विगेरे होय, अथवा विषयय कषायमां रक्त होय, तो तेवा बालजीव साथे हास्यादि तथा संग न करवो; | जो पापीनो संग करे तो मांहोमाई लडाइ यतां वैर बधे छे, अने परस्पर वैर लेवानो प्रसंग आवे छे. जेमके गुणसेन राजाए जुदी जुदी रीते करेला हास्यना कारणे अभिशर्मा ब्राह्मण साथै वैर वधीने नव भव सुधी चाल्युं. [समरादित्य चरित्रमां तेनी कथा छे के अभिशर्मा ब्राह्मण कुरुप जोइ राजकुमार गुणसेने तेनी हांसी करो. तेथी ब्राह्मणे कंटाळी तापस वनी तप करी विख्यात थयो. अनुक्रमे गुणसेन राजा बनी ते तापस पासे आव्यो पूर्वनी वात सांभळी राजाए क्षमा चाही पारणामां जमवानुं आमन्त्रण क. त्रणे वार आमन्त्रण वखते राजा भूली गयो, अने तापस पालो गयो. तेथी तापसने आ दरेक खते हांसो लागी, अने वैर लेवानुं नियाणु कर्यु. गुणसेन ते समरादिस्य थयो, अने नव भव सुधी तेनी साथे तापसनुं बैर रहूं, माटे हांसी न करवो, तेम हांसी कर| नारनो संग पर न करवो] एज प्रमाणे विषय संग विगेरेमां पण दुःख अने वैर वधवानुं जाणी तेवाओनो संग न करवो. जो एम छे, तो साधुए धुं करवुं ? ते कहे छे. तम्हातिविज्जो परमं तिणच्चा, आयंकदंसो न करेइ पावं, अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिच्छिदियाणं निक्कम्मदंसी (सू० ४) काव्य. बाळ (पापी) नी संगतिथी वैर वधे छे, तेथी अति विद्वान् (गीतार्थ) सुनि परम एटले मोक्षपद अथवा सर्व संवररुप चारित्र For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४५३ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४५४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथवा सम्यग ज्ञान अथवा सम्पग दर्शन [ए त्रणे उत्तम होवाथी] तेने जाणीने शुं करे ते गुरु कहे छे. आतक दर्शी — आतंक ते नरक बिगेरेनां दुःख छे, तेने (हृदय चक्षुवडे) देखवाना स्वभाववाळा ते आतंकदर्शी छे. ते पूर्वे कहेला पापोना अनुबन्धरूप अशुभ कर्मने करतो नथी. तेम पाप करावे पण नहि, तथा अनुमोदतो पण नथी; बळी गुरु उपदेश आपे छे, के. अग्र-चार अघाति कर्म जे भवोपग्राही छे. ते अग्र छे, अने मूल ते चार घातीकर्म छे. ते मूळ छे. (अथवा बीजीरीते लइए तो) मोहनीय कर्म मूळ छे. वाकीनां सात कर्म अग्र छे. अथवा मिथ्यात्व मूळ छे. बाकी बधी प्रकृति अग्र छे. ए प्रमाणे वां अग्र तथा मूळ कर्मने दूर कर; आ सूत्रयी एम सूचयुं के कर्म ते पुतलनो समूह छे, तेनो सर्वथा क्षय यतो नयी, पण योग्य अनुछान करवायी आत्माथी सर्वथा दूर थइ शके छे. मोहनीयनुं अथवा मिध्यात्वनुं बधां कर्ममां मूळपणुं केवी रीते घटे छे ? आम जो कोइने शंका होय तो आचार्य कहे छे के तेना कारणे वाकीनी बधी प्रकृतिओनो बंध पडे छे. कछे के न मोहमतिवृत्य बंध, उदितस्त्वया कर्मणां न चैकविध बंधनं, प्रकृतिबंधविभवो महान् ॥ अनादिभत्र हेतुरेष, न च बध्यते नासकृतः स्वयाऽतिकुटिला गतिः कुशल ! कर्मणां दर्शिता ॥१॥ ताभ्यो नथी, अने ते मोहनुं अनेक प्रकारतुं बन्धन छे अने प्रकृतिनो महान ते अनेकवार बन्धाय एम नथी. पण वारंवार बन्धाय छे. एथी कर्मेनी कु हे कुशल प्रभो! तमेकमेनो बन्ध मोह विना विभव छे; अने आ मोह अनादि भवनो हेतु छे. अने For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४५४॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie क आचा ॥४५५॥ टिल गति आपे बतायी छे! तेज प्रमाणे आगम कहे - कहण्णं भंते जीवा अट्ठ कम्मपगडीआ बंधति,? गोयमा! णाणावरणिजस्स उदएणं दरिसणावरणिज सुत्रम् P कम्मं नियच्छइ, दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दसणमोहणीयं कम्मंनि यच्छइ, दसणमोहणिजस्स उदएणं मिच्छत्तं नियच्छइ मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं एवं खलु जीवे अट्ठकम्मपगडीआ बंधइ ॥ ४॥५५॥ हे भगवान! जीवो केवी रीते आठ कर्म बांधे छे ? हे गौतम! ज्ञानावरणोयना उदयथी दर्शनावरणीय कर्म बांधे , दर्शनावरणीय कर्मना उदयथी दर्शनमोहनीय कर्म बांधे छे, अने मिथ्यत्वना उदयथी आठे कर्मप्रकृतिओ बांधे छे, तेवी रीते क्षय पण, मोह-14 नीयकर्मना क्षय साथेज भय थाय छे. कयु छे के:नायगंमि हते संते, जहा सेणा विणस्सई । एवं कम्मा विणस्संति, मोहणिजे खयं गए ॥१॥ नायक हणावाथी जेम; सेना नाश पामे छे, तेवी रीते मोहनीयकर्मनो क्षय थवाथी बीजां सात कर्मो नाश थाय छे. अथवा मूळ ते असंयम अथवा कर्म छे, अने अग्र ते संयम तपसा अथवा मोक्ष छे, ते मूळना अग्रमा अक्षोभ्य (अचळ) धीर) तुं था; अथवा बुद्धि र शोभायमान एका शिष्यने गुरु कहे छ:-हे धीर ; विवेकथी असंयपने दुःखनुं कारण तथा, संयमने मुखना कारणपणे मान, तथा तप अने संयमवडे राग विगेरेनां बन्धन अथवा तेनां कार्य जे कर्म छे, तेने छेदीने कर्मरहित तु बन; एटले न तुं पोताना आत्माने कर्मरहित बनाव. एवा स्वभाववाळो निष्कर्मदर्शी कहेवाय छे. अथवा, मोहनीयकर्म क्षय यतां शानदर्शनना आव For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० AKINGERS दुर थतां, ते सर्वदर्शी, तथा सर्वज्ञानी थाय छे,अने कर्मर हित थयलो, अथवा सर्वज्ञ बनेलो बीजु | मेळवे छे ते कहे छे:एस मरणा पमुच्चइ, से हु दिदृभए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिए सूत्रम सहिए सया जए कालखी परिवए, बहं च खलु पावं कम्मं पगडं (सू० १११) B ॥४५६॥ ए सर्वज्ञ साधु मूळ अने अग्रनो रेचक कर्मने तोडनारो] बनीने निष्कर्मदर्शी कहेवाय छे, ते मरणथी मुकाय छे, कारणके घातीको दुर थवाथी अघातीकर्ममा रहेलु आयु नवा भवनुं बंधातुं नथी, अथवा वारंवार मरवू, अथवा क्षणे क्षणे मरवु ए मरणथी ते मुकाय छे | | अथवा बघोज आ संसार मरण युक्त छे तेथी पोते मुकाय छे चली ते, मुनि संसारमा रहेलो भय, अथवा संसार संबंधी सात प्रकारको भय तेने देखे छे. के (संसारीने आवा भयो आवे छे.) ते दृष्टभय कहेबाय छे, वळी ते छ द्रव्यना आधाररुप-लोक अथवा, चौदल जीवस्थानवाळो लोक छे तेमां परम जे मोक्ष छे. अथवा तेनुं कारण संयम छे तेने देखवाना स्वभाववाळो होय ते परमदर्शी छे तथा स्त्रीपशु नपुंसक साधुना ब्रह्मचर्यने घात करनार छे, तेनाथी रहित एवा मकानमा रहे छे, ते द्रव्यथी विविक्त कहेवाय. तथा रागद्वेषयी रहित निर्मळ चित्त राखवाथी भाषयी विविक्त कहेवाय, ते मुणवाळो होवाथी विविक्तजीवी कहेवाय छे. आवो मुनि इंद्रिय त्या मनने शांत राखवाथी उपशांत छे, अने ने पांच समितिथी युक्त होवाथी अथवा सरळ ते मोक्षमार्गे जबाथी समित छे, अने ज्ञान विगेरेथी युक्त छे, तेम अप्रमादि पण छे. वळी ते मुनि तेवीरीते आखी जींदगी सुधी उत्तम गुणकालो रहे; ते काळ आकांक्षी कहेवाय; भने ए प्रमाणे पंडित मरणनी आकांक्षावाळो संयम-अनुष्ठानमां रहे. For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie आवू शामाटे करे ते कई छे. आचा मूळ उत्तरप्रकृतिना भेदवाळु तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाव, प्रदेश, एम चार प्रकारे बन्धवाळ, तथा बन्ध उदय-सत्तानी व्यव प्रसुत्रम् स्थावाळु, तथा बांध, स्पर्श करचो जोडावं, एकपणे मळवू; विगेरे अवस्थावालु कर्म छे; अने ते थोडाक कालमा क्षय थाय; तेवू | ॥४५७॥ नथी, तेथी काळ आकांक्षी कधु के. ४॥४५७॥ __तेमां बन्धस्थाननी अपेक्षाए मूळ उत्तरप्रकृतिनुं बहुपणुं बतावीए छीए. जेमकेः वधी मूळ प्रकृतिओ अंतर्मुहूर्त सुधी साये बांधे; ते आठ प्रकारनो कर्मबन्ध छे, अने आयुष्य न बांधे; तो, सात प्रकारनो के, अने ते आयुने काळ जघन्यथी अंतर्मुहुर्त छे, अने उत्कृष्टधी तेना शिवायनां ३३ सागरोपममा पूर्वकोडीनो श्रीजो भाग बधारे छे, A अने सूक्ष्मसंपरायनो मोहनीयकर्म नो बन्ध दूर थतां, नथा आयुना बन्धनो अभाव थवाथी छ प्रकारनो कर्मबन्ध छे, अने ते जघन्यथी। Pएक समयमो अने उत्कृष्टधी अंतर्मुहूर्त छे, तथा उपशांत क्षीणमोह तथा, संयोगी केवळीने सात प्रकारना कर्मना बन्धनो उपरम यतां | एक प्रकारचें सातावेदनीयकर्म बन्धाय छे. ते जयन्पथी एक समय अने उत्कृष्टथी पूर्वकोडीमां थोडं ओर्छ छे. हवे, उत्तरप्रकृतिनां वन्धस्थान कहे छे:ज्ञान आवरण, अने अंतरापना पांचे मेदनुं ध्रुवबंधीपणुं होबाथी एकज बंधस्थान छे, तथा दर्शनावरणीयनां त्रण बंधस्थान कई छे: (१) पांच निद्रा अने चार दर्शन साथे रहेबाथी ते नवेनुं ध्रुव बन्धीपणुं होवथी नवविधनुं एक स्थान छे, (२) तेमाथी थीणदि निद्रात्रिक अनंतानुबंधीनी चोकडी साथे दुर थवाथी ते णना बंधनो अभाव था छ प्रकृतिनो बन्ध ले (३) अपूर्व करणना संख्येय For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४५८॥ www.kobatirth.org भागे निद्रा अने प्रचलन बन्ध दूर थतां चार प्रकारंना दर्शनावरणनो बन्ध रहेवायी ते श्रीजुं स्थान छे. वेदनीय कर्मनुं एक बन्ध स्थान छे. चाहे साता बांधे चाहे असाता बांधे, पण एक बीजानी विरोधी होवाथी बने साथे न बाँचे. मोहनीयकर्मनां दश बन्धस्थान छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१) एक मिध्यात्व १, सोळ कषायो १६, कोइ पण एक वेद १, हास्य रतिनुं जोडकुं अथवा अरति शोकनुं एक जोडकं तेमांथी एक जोडकुं लेतां ते बे २ तथा भय १, जुगुप्सा २, मळी फुल २२ प्रकृतिनो बंध होय छे. (२) मिथ्यात्वनो बन्ध दूर थर्ता सास्वादन गुणस्थानमा २१ नो बन्ध छे. (३) मांयी मिश्र अथवा अरतिसम्यगदृष्टिने अनंतानुबन्धी चोकडी दूर दवाथी १७ प्रकारनो बन्ध छे. (४) तेमांथी देशविरति गुणस्थाने अपत्याख्याननी चोकडीना बन्धनो अभाव थवाथी १३ नो बन्ध छे, (५) तेमांथी ममत्त अप्रमत्त अपूर्वकरणमां वर्तता साधुने प्रत्याख्याननी चोकडो दूर थवायी ९ नो बन्ध छे. (६) तेमांथी हास्य विगेरेनुं जोडकुं तथा भय जुगुप्सा दूर थवाथी फक्त ५नो बन्ध अपूर्व करणना चरम [छल्ला ] समये छे. (७) तेमांथी अनिवृत्तिकरणना संख्येय भाग बीते थके पुरुष वेदना बन्धनो अभाव थतां चारनो बन्ध छे. (८) तेमांची तेज गुणस्थाने संख्येय भाग गये थके अनुक्रमे क्रोधनो क्षय थतां ३ नो वध छे. (९) माननो क्षय थतां २नो बन्ध छे [१०] मायानो क्षय थतां १नो बन्ध छे त्यार पछी अनिवृत्तिकरणना छल्ला समयमा मोनीयना बन्धनो अभाव थवाथी अवन्धक छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४५८॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ४५९॥ चार मकारना आयुमांथी कोइ पण नाम कर्मन आठ बन्धस्थान छे. www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सामान्यथी आयुकर्मनो बन्ध एक प्रकारनो के एकनो बन्ध होय पण वे अथवा त्रण साथै बन्धावानो अभाव होवाथी एक बन्ध जाणवो (१) २३ प्रकृति तिर्यच गतिने योग्य बांधतां थाय छे. ते नीचे प्रमाणे तिर्यच गति, १ एकेंद्रिय जाति १ औदारिक तेजस कार्मण शरीरो ३ हुंड संस्थान १ वर्ण गंध रस स्पर्श ४ तिथेग गतिने योग्य अनुपूर्वी १ अगुरु लघु १ उपघात १ स्थावर १ बादर सूक्ष्ममांथी १ कोइ पण एक, अपर्याप्तक १ प्रत्येक साधारणमाथी एक १ अस्थिर १ अशुभ १ दुर्भग अनादेय १ अयश कीर्ति १ निर्माण १ एम फुल २३ छे तेनो बन्ध एकेंद्रिय अपर्याप्ताने योग्य मिध्यादृष्टिने बांधतां होय छे. (२) ते त्रीशमां पराघात अने उच्छ्वास मळी एम २५ पर्याप्ता एकेंद्रियने बन्ध जाणवो. [अपर्याप्ताने बदले पर्याप्ताने २५ प्रकृति लेवी. (३) एम आतप अथवा उयोत एक प्रकृतिनो बन्ध मेळवतां २६ थाय पण साधारणनी जम्याए प्रत्येक अने सूक्ष्मनी जग्याए बादर लेवी. (४) देवगतिने योग्य बांधतां २८ प्रकृतिनो बन्ध नीचे मुजब छे, देवगति १ पंचेंद्रिय जाति १ वैक्रिय तेजस कार्मण ऋण शरीर ३ समचतुरस्र संस्थान १ अंगोपांग १ वर्ण विगेरे चतुष्टय, ४ अनुपूर्वी १ अगुरुलघु १ उपघात १ पराघात १ उच्छवास १ प्रशस्त विहायोगति १ स वादर १ पर्याप्त १ प्रत्येक १ स्थिर अस्थिरमांथी एक, १ शुभ सुभग १ सुस्वर १ आदेय १ यशः कीर्त्ति १ अथवा अयशःकीचि निर्माण १ [टीकामां शुभ अनुभवांवी कोइ पण एक होय छे, एम लखपुं छे. टीपणमां एकली शुभ लीची For Private and Personal Use Only इलाम सुत्रम ॥४५९॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir আদা ॥४६०॥ ॐॐॐॐ ] एम कुल २८ नो बन्ध थाय छे.: F (५) तेमां तीर्थकर नामकर्म उमेरवाथी २९ (६) हवे त्रीशनो बन्ध बतावे छे. देवमति, १ पंचेद्रियजाति १ बैकिय आहारक शनीर २ अंगोपांग २ तेजसकार्मण २ पहेली सूत्रम् संस्थान १ वर्णादि चतुष्क ४ अनुपूर्वी १ अगुरुलघु १ उपघात . पराघात । उच्छवास । प्रशस्तविहायो गति १ अस बादर पर्याप्त ॥४६०॥ प्रत्येक स्थिर शुभ सुभग मुस्वर आदेय यश-कीर्ति ए दशक १० तथा निर्माण १ नाम मळी फुल ३० [७] एमां तीर्थंकर नाम मेळवबाथी ३१ थाय छे. आ प्रमाणे एकेंद्रिय घेईदिय प्रेयेंद्रिय नरकगति विगेरे आश्रयी अनेक भेदे बन्धना घणा प्रकारो छे. ते कर्म ग्रंथथी जाणवा. (८) अपूर्वकरण आदि प्रण गुण स्थाने देवगति पायोग्य बन्धना उपरमथी यशःकीर्तिज फक्त बांधे छे. तेथी एक विधबन्ध के. त्यारपछी नामकर्मना बन्धनो अभाव छे. गोत्रकर्ममा सामान्यरीते उंच अथवा नीचनो एकनो पन्ध छे. उंच अने नीच बन्ने विरोधी होवाथी साये पन्धावानो अभाव #. कोन आ प्रमाणे बन्धद्वारमा लेशथी घणा प्रकारपणुं बताव्युं. सूत्रकार तेथी कहे छे के:-आ कर्म जीवे बांध्यां छे. ते सुलेखुल्लु छे, कारणके, ते प्रमाणे भोगवतां दरेकने अनुभवाय छे. मूत्रमा खल शब्द वाक्यालंकारमा छे अथवा निश्चयअर्थमांछे के, कर्म बहु प्रकारेज .] जो आ प्रमाणे छे, तो ते कर्मबन्धनने | दूर करवा शुं करवू ? ते कहे : ॐ For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सच्चमि घिई कुवहा, एत्थोवरए मेहावी, सवं पावं कम्मं जोसह (सू० ११२) आचा० उत्तम जीवोने हित करनार ते सत्य छे, अने तेनेज संयम कहे छे. ते संयममा धैर्यता राख, अथवा यथावस्थित वस्तुनु स्वरूप मसूत्रम् IM जिनेश्वरे बताववाथी तेमनु कहेलं मौनींद्र आगम (जैन सिद्धांत) सत्य (तत्व) छे. ते भगवंतना वचनमा उपरत [अतिशय रक्त] बनीने I ॥४६॥ n ॥१६॥ मेघावी [तत्वदर्शी] साधु बर्षा पाप कर्म जे संसार समुद्रमा भ्रमण करावे छे तेने [संयम अनुष्ठान तथा तप बडे] क्षय करे छे. आ| प्रमाणे अप्रमादी साधुना उत्तम गुणो बताव्या ते अप्रमादनो शत्र प्रमाद छे, ते कषाय विगेरे ममादथी प्रमत्त बनेलो केवो दुर्गुणी थाय छे. ते कद्दे छे. ___अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरिण्णए, से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अण्णपरिग्गहाए जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए (सु० १९३) खेति वेपार मजुरी विगेरे अनेक प्रकारना कार्यमां तेनुं चित्त लागवाथी ते संसारी जीव अनेक चित्तवाळोज छे. एटले सं-18 सार सुखनो अभिलाषी अनेक चित्त (चंचळ चित्त) वाळो होय छे. "आ पुरुष" एम कडेवाथी संसारी जीव बताव्यो. अहीं पूर्वे कहेल दधि घटिका अने कपिल दरिद्रीनो दृष्टांत कहेवो. (उत्तराध्ययन मूत्रमा कपिलनो दृष्टांत बतावेल छे.) हवे जे अनेक चित्तवाळो छे ते शुं करे छे, ते बतावे छे. द्रव्य केतन एटले चालणी पूरनारो अथवा समुद्र छे. अने भावकेतन ते लोभनी। H इच्छा छे. एटले पूर्व कोइए पण भर्यु नथी, तेने पोते भरवा इच्छे छे, तेनो सार आ छे के पैसाना लोभमां शक्य अथवा । सम्बर For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 15 अशक्य कार्यमा विचार्या विना अशक्य अनुष्ठानमा वर्ने छे, अने लोभनी इच्छा पूरण करवामां ब्या- कुल मतिवाळो बनीने । मुं करे छे, ते कहे छे; ते लोभीओ बोजा पाणीोना वधमां तत्पर थाय छे, अने बीजा जीवोने शरीर तथा मन संबंधी परिताप करावे छे तेज प्रमाणे वे पगवालां मनुष्य चार पगवाळां मनुष्य पशु विगेरेनो संग्रह करे छे, तथा जानपद एटले जन है ॥४६२॥ पदमा थएला काळ प्रष्ट विगेरे अथवा राजा विगेरेनो वध करवा तैयार थाय छे, अथवा लोकोनी निंदा माटे कृत्य करे छे, ॥४२॥ वा एटले आ चोर के एम बीजानी चुगली करे छ, अथवा पारकानां छिद्र उघाडे छे, अथवा मगध विगेरे देशो जीतवा यत्न करे छे | (मूळ मूत्रमा क्रियापद नयी लीधुं ते लेबु) आ प्रमाणे लोभीआ मनुष्यो वध विगेरे क्रिया करे ले के बीजं पण पण करे छे ते बतावे छे. आसेवित्ता एतं (व) अढ इचेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवे, निस्सारं पासिय नाणी, उपवायं चवणं णच्चा, अणणं पर माहणे, से नछणे न छणावए छणतं नाणु जाणइ, निविंद नंदि, अरए पयासु. अणा मदस्तिनिसपणे पावेहिं कम्मेहि (सु. ११४) । उपर बताच्या प्रमाणे बीजा जीबोनो वध करवो, संग्रह करवो, तथा वीजा जीवोने दुःख देवू विगेरे पाप करीने पोताना लो६ भनी इच्छा पूर्ण करीने केटलाक मनुष्यो भरतचक्रवर्ती विगेरे (ते जीवोना यता दुःखने नजरे देखीने वैराग्य पामीने) मन वचन कायाना दुष्ट व्यापारने धिकारी शुभ व्यापारमा एटले संयम अनुष्ठानमा यत्न करे छे अने महान तपश्चर्या करवाथी तेज भवमा SEASOFESS प्रभा For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४६३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोक्षमां जाय छे, अने ते प्रमाणे विचारी संयम अनुष्ठानमां वतने काम भोग तथा हिंसा विगेरे आसवारने त्यागीने शुं करते कहे छे. जेणे भोग स्याभ्या ते माणसे प्रतिल्ला करीने बीजी वखत भोगना लालचु न थवं, अथवा जुठ अथवा असंयममां वर्तषु नहि. कारण के पांच इंद्रियोना स्वादने खातर असंयम सेवे छे पण ते विषयो सार विनाना छे कारण के जे सार वस्तु के ते मेळववाथी वृप्ति थाय छे पण जे वस्तुथी तृष्णा बधे तेथी ते निःसार छे, एवं देखीने तत्व जाणनारी साधु विषय अभिलाष न करे, आ मनुब्योना विषयस्सो असार छे, अने अनित्य छे एटलं नहि पण देवताओनुं पण विषय सुख तथा जीवित अनित्य छे ते बतावे छे. उपपात (उत्पन्न ) थ, च्यवन (नाश पामं) ते जाणीने विषय संगना सुखनो त्याग करजे. कारण के विषयसमूह अथवा बघो संसार अथवा सर्वे स्थान अशाश्वत छे तेथी भुं कर ते कहे छे. मोक्ष मार्गथी अन्य असंयम छे ते अन्यने छोडीने अनन्य ज्ञानादिक छे, तेनुं सेवन कर, माहण एटले मुनि तेने आ उद्देश आध्यो छे. वळी ते मुनि संयम पाळनारो प्राणीओने दुःख न दे, न हणे, न हणावे, न हिंसा करनारने अनुमोदे, आ प्रमाणे हिंसाथी निवृत व चोथुं व्रत पाळे, ते कहे छे विषयथी उत्पन्न थएल जे आनंद तेने धिक्कार, तथा स्त्री विगेरेमां राग रहित थइने आवी भावना भाव, "आ विषयो किपाक फळनी उपमावाळा छे अने कडवा तुरियाना जेवा कडवां फळ आपनारा छे" एम जाणीने ते विषय सुख लेवाना परिग्रहना ममत्वने त्यागी दे, हवे उत्तम धर्म पाळवा माटे कहे छे. अवम एटछे मिथ्यादर्शन अत्रिरति विगेरे छे तेनाथी उलडं अनवम एटले संयम छे, तेने देखवाना स्वभाववाळो ते सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्रवाळो थइने उपर कथा सुजब तुं स्त्री संगनी बुद्धिने दूर कर. विषयोनी निंदा कर, आ सूत्रनो परमार्थ छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४६३ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥४६॥ जे अनवमदर्शी के ते निसन्न छे एटले पाप कर्मोथी खेदी बनीने से करतो नथी, अथवा पाप कर्मोथी दर रहे छे. वळी वीजा गुणो मेळववा बताचे छे. कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं तम्हा य वीरे विरए वहाओ, छिदिज सायं ॥४६॥ लहभूयगामी ॥१॥ गंथं परिपणाय इहज! धीरे सायं परिणाय, चरिज दंते । उम्मज लधुं इह माणवेहि, नोपाणिणं पाणे समारभिजा सि तिबेमि ॥ द्वितीय उद्देशकः ३-२॥ क्रोध जेमा पहेलो छे ते क्रोधादि कषायो छे. तथा जेनावडे मपाय ते मान, एटले अनंतानुबन्धी विगेरे कषायोना चार भेदो छे ते अथवा क्रोध अने मान जे क्रोधk कारण छे ते गर्वने साधु हणे अने ते हणनारो वीर छ, तथा जेम द्वेषरूप क्रोध मानने राहणे, तेमज राम दूर करवा कहे छे. लोभ पण अनंतानुबंधी विगेरे चार प्रकारनो छे तेनी स्थिति अने विपाकने जो, कारणके तेनी ६ स्थिति सूक्ष्म संपराय नामना दशमा गुणस्थान सुधी मोटी छे, अने तेनो विपाक अप्रतिष्ठान विगेरे नरकवासनी प्राप्ति सुधी छे.. तेथी सूत्रमा कबुंछे के "गच्छा मणुआ य सत्तमि पुर्वि" माछलां अने मनुष्यो मरीने सातमी नारकी सुधी जाय छे, ते Pममाणे ते मोटा लोभमां परवश थइने सातमी नास्कीमा दुःख भोगवे छे, तेथी शुं करवू ते कहे छेन जो लोभथी आवु दुःख छे तो पाणी वध विगेरेनी प्रवृत्तिथी नरकमां जवु न पडे माटे वीर पुरुष लोभवी दूर रहे. वळी शोकने For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४६५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथवा संसार भ्रमण करावनार भावश्रोतने दूर कर तथा तुं लघु भूत एटले मोक्ष अथवा संयम ते तरफ जनारो लघुभूतगामी था, अथवा लघुभूत थवानी इच्छावाळो लघुभूत कामी वन; फरो उपदेश आपे छे तुं बाह्य तथा अभ्यंतर वे प्रकारे गांठने ज्ञपरिज्ञान डे जाणीने हमणांज धीर बनीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे छोड. बळी विषय अभिलाष ते संसार प्रवाह छे तेने जाणीने दांत एटले इंद्रियोने दमन करीने संयम पाळ, केवी रीते पाळे ते कहे छे, अहींयां मिथ्यात्वादि शेवालथी आच्छादित संसार कुंडमां जीवरूपी काचचो तुं बनीने श्रुति (ज्ञान भणं) श्रद्धा तथा संयममां बोर्य जोडीने काचो जेम तरी आवे तेम तुं तरोजा, मनुष्य सिवाय मोक्ष नथी, माटे मनुष्यपणामां तरवानुं कहुं पण प्राणीनी हिंसाना आरंभनां कृत्यों न करतो, पांच इन्द्रियो ऋण वळ श्वासोश्वास अने आयु ते दश माणने धारण करवायी प्राणी कहेवाय. तेने दुःख न दे, न दुःख देनाएं कृत्य कर. आ प्रमाणे शितोष्णीयअध्ययनमां बीजो उद्देशो अर्थरूपे पुरो थयो . स्वामीने कयुं विगेरे पूर्व माफक जाण. सुधर्मास्वामी हवे त्रीजो उद्देशो कहे छे. एनो बीजा साथै आ प्रमाणे संबन्ध छे. गया उद्देशामां दुःख तथा तेने सहन करवानुं वतान्युं अने ते सहन न करे तो साधु नहि एटलुंज नही पण संयम अनुष्ठान करे तथा पापकर्म न करेः तोज साधु थाय छे. ते आ उद्देशामां बतावे छे. आ संबन्धवडे आवेला त्रीजा उद्देशाना मूत्र अनुगममां For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४६५॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandit सुत्रम T ॥६६॥ सूत्र उच्चार, जोइए. संघि लोयस्स जाणित्ता, आयआ बहिया पास, तम्हा नहंता न विघायए, जमिणं अनमनआचा वितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुणी कारण सिया? (सू० ११५) ॥४६६॥ द्रव्यर्थी अने भावथी एम चे प्रकारे संधि छे. एटले भीत विगेरेमा फाट पढे ते द्रव्य संधि छे, अने भावथी संधि कर्म विवर छे एटले दर्शनमोहनीयकर्म जे उदयमा आन्युं ते क्षय धयुं अने बीजु बाकीनुं शांत छे ते सम्यक्त्वनी माप्तिरूप भावसंधि छे, अथवा ज्ञानावरणीय विशिष्ट क्षायोपशमिकभावने पामेल ते सम्यम् झाननी प्राप्तिरूप भावसंधि छे. अथवा चारित्रमोहनीय क्षय | उपशमरूप भावसंधि जे छे तेने जाणीने विचारजे के प्रमाद करवो सारो नथी. जेमके लोकमां चोर विगेरे शत्रुना सैन्यथी घेरायेला लोकमां भीत अथवा बेडी विगेरेमा सांधो अथवा छिद्र देखीने प्रमाद 3 करवो सारी नथी तेज प्रमाणे मोक्षाभिलाषीए कर्म विवर मेळवीने लव क्षण जेवा थोडा काळने पण स्त्री पुत्रनां संसारी सुखनो | व्यामोह (प्रेम) करवो सारो नथी; अथवा सांधो तेज संधि छे, ते भावसन्धि ज्ञानदर्शन-चारिपना परिपालनमां अशुभकर्मना उदहै यथी फाट पड़े; तो पार्छ संघाण करीदेवु. (कुभावने दूर करवो.) आ अयउपशमिक विगेरे भावलोकना आश्रयी छे, अथवा मूत्रमा विभक्ति बदलीए; तो, सातमी विभक्ति लेतां लोकमां पटले, ज्ञानदर्शन-चारित्रने योग्य लोक हे, तेमां भावसन्धि जाणीने अक्षुण्ण (सम्पूर्ण) पानवाने प्रयत्न करतो. जलकर a For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४६७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथवा सन्धि एटले अवसर धम अनुष्ठान करवानो आव्यो छे तेने जाणीने लोक एटले १४ मकारनां जीवोने उपजवाना १४ स्थान छे, तेने जाणीने जीवोने दुःख देवानुं कृत्य न कर. (संधिना त्रण जुदा अर्थ बताव्या. प्रथममां विवर एटले बाकुं अथवा फाट बतान्युं के. शत्रुथी घेरातां अजसर जोड़ने प्रमाद न करतां नासीज; तेम मोह दूर थतां, संसारथी तरीज बीजो अर्थ सांधो बताव्यो. एटले, जेम गृहस्थो धम्मां फाट पडे; तो, प्रमाद कर्या विना पुरीदे तेम साधुने पापना उदयथी चारित्रमां दोष लागे; तो, सरव शुद्धि करीले. त्रीजो अर्थ अवसर कर्यो छे. एटले, धर्मना अवसरे धर्म करी बीजा जीवोने दुःख धायः तेनुं कृत्य न कर एम बताव्यं.) बळी कहे छे केः—हे साधु ! तुं जेम, पोताना आत्माने सुख व्हालुं गणे छे, अने दुःख अप्रिय माने छे, तेवी रीते बहानां जीवो उपर पण मानी ले भने पोताना आत्मा समान मानीने वधां जीवो सुखना बांच्छक, अने दुःखना द्वेषी जाणीने तेओने न थइश; तेम बीजाओथी जुदा जुदा उपायोवडे तेमनो घात न करावीश. जो के, बीजा मतना केटलाक साधुओ जीवदयाने मुख्य मानीने स्थूळसच (मोटा जीव अथवा हालता चालता जीव ) ने मारता नथी; तोपण, तेओ पोताने माटे रंधावीने खाय छे; तथा गृहस्थ माफक वस्तुनो संचय करवाथी तेमना लीधे, सूक्ष्म (नाना जंतुओ, अथवा एकेन्द्रिय) जीवो विगेरे हणाय छे, तेथी तेओ घातक छे, एटले बीजा पासे हणावे छे, अने हणनारनी अनुमोदना करे छे. ( माटे साधुए तेवो पण दोष न लागे: माटे, साधु माटे रांधेलो आहार न वापरवो; तेम, संचय पण न करवो.) हवे एमबतावे छे के उपर प्रमाणे जण करणयी हिंसा न करवी. तेटलाथी साधु न कहेवाय; पण जेमां, पापकर्मनुं न करवानुं कारण छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।।४६७॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त बताव छे. अन्योन्य जे शंका अथवा, एकबीजानो भय अथवा लज्जा, ते लज्जावडे अथवा लज्जाने ध्यानमालइने परस्पर आशंकाल अथवा अपेक्षावडे, पापना उपादानरूप-जे कर्मनुं अनुष्ठान छे, ते साधु न करे; एटलुं पाप न करवाथी मुनि कहेवाय एटले जो, आचा०४/ परनी लज्जाथी पाप न करे; तो, ते मुनि कहेवाय? उ.-तेटलाथी मुनि न कहेवाय; पण अद्रोहना विचारवाळो मुनिज निश्चयथी साधुसूत्रम छे. जो, ते प्रमाणे, बीजी उपाधिना वशथी ते निर्मळ भाववाळो न होय; तो मुनि न कहेचो. मुनिपणाना भाववाळो मुनि कहेवाय. ॥४६॥ एटले, मूत्रमा सरळ शिष्य गुरुने पुछे छे केः IA ॥१६॥ कोइ साधु घीजा साधुओना डर अथवा लउनाथी आधाकर्मादि आहार न ले तो, ते मुनि भावसाधु कहेवाय के नहि ? आचार्य कहे छे बीजो व्यापार छोडीने सांभळ, बीजी उपाधि जे पापना व्यापाररूप छे, तेने त्यागवाथी भाव साधुपणुं थाय छे, एथी एम समजवू के, अंतःकरण निर्मळ में करीने साधुनां अनुष्ठान करे; तेज भावमुनिपणुं छे, शिवाय नहि. 10 उपर कहेल अभिमाय निश्चयनयनो छे. हवे, व्यवहारनयनो अभिप्राय कहे छे:-जे सम्यक्ष्टि छ, अने पंचमहाव्रत सीधेला 18 छे, तेनो भारवहन करवामा प्रमाद करीने पण बीजा समान साधुनी लज्जावडे, अथवा गुरु महाराजना भयथी अथवा गौरव (पोतानां उत्तम कुळ विगेरेना कारणे कोइ साधु आधाकर्म विगेरे दोषिन आहार विगेरे छोडी पडिलेहणा विगेरे क्रिया करे; अथवा तीर्थनी शोभा माटे महिनाना उपवास विगेरे लोकप्रसिद्ध क्रिया करे; तो, तेमां तेना मुनिभावपणानुन कारण जाणवू. कारणके सेवी धर्म15/क्रिया करतां परंपराए (धीरे धीरे) तेनी शुभ भावनी उत्पत्ति थशे. For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आ प्रमाणे शुभ अंतःकरणना व्यापारथी रहित साधुना साधुपणामां सत् असद्भाव बताव्यो; त्यारे शिष्य पूछे छे के-निश्च-18 सूत्रम् आचा० IPयनयनो मुनिभाव केवीरीते छे? तेनो विशेष खुलासो शास्त्रकार कहे छे:समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसाणीए-अणन्न परमं नाणी; नो पमाए कायाइवि । आय H॥४६९॥ ॥४६९॥ गुत्ते सया वीरे, जायामायाइ जावए' ॥१॥ 'विराग' रुवेहिं गच्छिज्जा महया खुड्डएहि य, आगई गई परिण्णाय दोहिवि अंतेहिं अदिस्तमाणेहिं से न छिजइ न भिजइ 'न' डझह 'न' हमइ कंचण सबलोए (सू० ११६) समभाव ते, समता तेने विचारीने एटले, समतामा रहेलो साधु जे जे करे छे, ते ते कोइपण प्रकारे दोषित आहार विगेरेट लज्जा विगेरेथी छोडे; अने लोकमां देखाडवा उपवास त्रिगेरे करे; ते वधुं मुनिपणाना भावन कारण छे. अथवा, सपय ते जैना-2 ६ गम छे, ते आगममा बतावेली विधिए विचारीने संयम-अनुष्ठान करे; ते बधु मुनिभावन कारण छे, एटले आगममा कहा प्रमाणे चालीने अथवा, समताने धारण करीने आत्माने प्रसन्न राखे; अथवा, आगम भणीने विचारीने अथवा, समदृष्टि राखीने जुदा जुदा उपायोबडे इन्द्रियो तथा मनना अप्रमाद विगेरेथी आत्माने प्रसन्न करे; अने आत्माने प्रसन्न राखयो ते संयममा रहेलाथी । थाय छे, अने तेमां हमेशा साधुए अपमादीपणुं भाव, तेज कहे छे: मूळ मूत्रमा 'अणण्ण' विगेरे शोक छे तेनो अर्थ कहे छे: % ACT. For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा ॥६७०॥ BECACAS जेनाथी चीजें कंह मोढुं नथी; ते अनन्य परमसंयम छे, तेने परमार्थ जाणनारो ज्ञानी प्रमादबडे दोष न लगाडे. अर्थात् संयपक्रियामा कोइपण वखत प्रमाद न करे. हवे जेम अप्रमादी धवाय ते बतावे छे. इन्द्रियो तथा मन ए बन्नेनी आत्माने कुमार्गे न जवा दइ गुप्त राखे ते आत्मगुप्त साधु जाणवो, तथा हमेशां यात्रा ते संयम है सूत्रम् यात्रा अने संयम निर्वाहमा मात्रा बापरे ते यात्रा मात्रा कहेवाय, मात्रानो अर्थ अतिआहार न ले, एटले आत्माने जेवीरीते संय- ॥४७०॥ ममां शक्ति रहे पण इन्द्रिो उन्मत्त न थाय, अने संयमना आधाररूप देहर्नु प्रतिपालन लांचा काळ सुधी थाय, तेवीरीते आहार विगेरे वापरे. कां छे के: आहारार्थ कर्म कुर्यादनिन्ध, स्यादाहारः प्राणसन्धारणार्थम् । प्राणाः धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनाय, तत्त्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् ॥१॥ आहार माटे निर्दोष गोचरी चापरे कारण के आहार छे ते पाणोने धारण करवा माटे छे, अने ते पाणोतत्वनी जीज्ञासा पूर्ण करवा माटे धारयाना छे, कारण के एबुं तत्व जाणवू वारंवार जन्म लेवो न पडे. हवे ते आत्मा गुप्तता केवीरीते थाय ते गुरु बतावे छे. विराग एटले मनोहररूप आंखो आगळ आवे, तो पण तेमा प्रेम न करे, अहिं रुप लेवानुं कारण आ छे के ते रुप मुंदर है देखतां गमे तेवानुं मन खेंची ले छे, तेथी मूत्रमा रुप लीधुं छे, खरीरीतेतो पांचे विषयोमा विरागी बनयं, तथा दिव्य भावन For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 1189811 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूप होय अथवा क्षुल्लक एटले मनुष्यरूप होय ( देवांगना अथवा सुंदर रुपवाळी स्त्री देखीने) तेमां ललचाय नहिं, अथवा देव संबन्धी के मनुष्य संबन्धी मोढुं नानुं रुप एटले तेमां पण मध्यम रूपवाळी के घणा रूपवाळी देवी के स्त्री होय तो मां ललचावु नहि, अहिं "नागार्जुनीया" कहे छे. विसयंमि पंचगंमीवि, दुविहंमि तियं तियं ॥ भावओ सुट्टु जाणित्ता से न लिप्पड़ दोसुत्रि ॥१॥ शब्द विगेरे पांचे प्रकारना विषयोभां तथा बन्ने प्रकारमां एटले जे इष्ट अनिष्ट छे, तेमां हीन मध्यम उत्कृष्टने भावथी एटले परमार्थथी जाणीने रागद्वेषवडे पाप कर्मयी न लेपाय, अर्थात् तेमां रागद्वेष न करे, तेमां शुं आलंबन ले के रागद्वेष न थाय ते कहे छे. आगमन तथा गमन ते तिर्येच अने मनुष्यने चारे गतिमां आवत्रा जत्रानुं छे. तथा देवता नारकीने तिर्येच मनुष्यमाथीज आवकुं जधुं छे, नारकी माफक देवने पण बेज गति अगति छे, फक्त मनुष्यने मोक्ष गतिनो सद्भाव होवाथी पांच गति छे, आममाणे जीवने गति आगति थाय छे ते विचारीने संसार चक्रचाळमां कुवाना अरटना न्याये भ्रमण छे, ते समजीने अने मनुष्यपणामां मोक्ष मळे छे ते जाणीने सुगतिनो अंत लावनार जे रागद्वेष के तेने दूर करीने आगति गतिने आपनार रागद्वेष जाणी | ते बन्नेने दूर करी कोइ पण जीवने पोते तरवार विगेरेथी छेदे नहिं, तथा भाला विगेरेथी भेदे नहि, तथा अनि विगेरेथी वाळे नहिं तथा नरकगति विगेरे अथवा अनुपूर्वी विगेरे धणी वार विचारीने पोते हणे नहि. अथवा रागद्वेषनो अभाव थाय तो उपर कलां पाप पोतानी मेळे दूर धाय, एटले रागद्वेष छोडनारो मुनि छेदवा विगेरेना For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ४७१ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा कृत्य पोते न करे, मूत्रमा 'कंचण' विगेरे छे तेनी विभक्ति बदलीने त्रीजीमां अर्थ लइए, तो एम थाय के 'केनचित् कोइपण माणस ।। एवो नथी के आबधा लोकमां रागद्वेष विनानो होय ते रागद्वेषना अभावे छेदे, भेदे, अर्थात् रागद्वेष छोड्या पछी छेदे भेदे नहि. सूत्रम् जो के आ प्रमाणे गति आगतिना ज्ञानथी रागद्वेपनो त्याग थाय छे, अने तेना अभावथी छेदनादि संसार दुःखनो अभाव ॥६७२॥1 थाय छे, तेषु मुनि जाणे छे, पण वर्तमान मुखछे देखनारा अमे क्यांधी आव्या क्या जइ ? अथवा अमने त्यां | मळशे, एवो ॥४७२॥ विचार नथी करता, तेथी रागद्वेष करीने नवां कर्म बांधीने संसार भ्रमणनी योग्यता अनुभवे छे. एबुं सूत्रकार बतावे छे. अवरेण पुर्वि न सरंति एगे, किम्मस तीयं किंवाऽऽगमिस्स । भासंति एगे इह माणवाओ, जमस्स तीयं तमागमिस्सं ॥१॥ नाईयम8 न य आगमिस्स, अहं नियच्छन्ति तहागयाउ । विहय कप्पे एयाणुपस्सी, निज्झोसइत्ता खवगे महेसी ॥२॥ उपरना बे मुत्र गाथानो अर्थ कहे छे. पहेला हुँ कोण हतो ? के हुँ हाल आवो छु ? ए केटलाक मोह अने अज्ञानथी घेरायेली बुद्धिवाला जीवो जाणता नथी, एटले आ जीवने नरकादि भवथी उत्पन्न ययेलु अथवा बाळ कुमार विगेरे वयवाळ एकटु 15 थयेलु पूर्व नु दुःख विगेरे केवी रीते आवेलुं छे ? अथवा, भविष्यमां केवी रीते थशे ? एटले, आ विषय मुखना बांछक, अने दु:दिखना वेपी जीवनु भविष्यकाळमां शुं थशे.? ते तेओ जाणता नथी; पण जो, कदी तेओना हृदयमां भूत-भविष्यनी विचारणा सा होत; तो, तेओने संसारमा रति (आनंद) थात नहीं, का छे के: SSSSSS ASURESEASEASE CRICKS For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४७३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के ममेत्पत्ती कहं इओ तह पुणोऽवि गंतवं ? जो एत्तिर्यपि चिंतइ इत्थं सो को न निविष्णो? ॥१॥ अहीं मारी उत्पत्ति केवी यह छे ? अने अहींथी मारे क्यां जनुं छे ? जे माणस आटलं पण, अहीं चितत्रे; तो तेवो केम दुःख- संसारथी वैराग्यवाळो न था ? (अर्थात् यायन !) पण, केटलाक महामिथ्याज्ञानिओ कहे छे के : - आ संसारमां अथवा मनुष्य- लोकमां जेबीरीने हाल मनुष्यो के, बीजां प्राणीओ जेवी अवस्थामा छे, तेवीजरीते भूतकाळमां स्त्रीपुरुष नपुंसक सौभाग्यवाळो, दुर्भाग्यवाळी, कुतरो, शीयाळ, ब्राह्मण, क्षत्री, विशुद्र वगेरे भेदोमां भोगवता हता; अने तेज भविष्यमां यवानुं छे. (आ प्रमाणे जैनेतर एक वादोनो मत को. ते लोकों एवं माने छे के जेम जीवो हालनी दशामां के, तेवा भूतकाळमां हता; अने हवे पछी रहेशे.) (वीजो अर्थ) जेनाथी बोजो पर (श्रेष्ट) नथी ते संयम अपर के, तेनाथी जेनुं चित्त रंगायलं छे, तेओ पूर्वे भोगवेलां विषयसुख विगेरेने (स्थूलभद्रमुनि माफक ) याद करता नथी. केटलाक रागद्वेपथी सुकायला भविष्यता देव संबंधी भोगोनी आकांक्षा राखता नथी. बळी आत्मा-रमणतामां रमता मुनिओने अमुक संसारी जीवने भूतकाळ सुखदुःख के, भविष्यनुं थवानुं सुखदुःख लक्ष्यमा रहेतुं नथी अथवा उत्तम ध्यानमां बेठेला साधुने केटलो काळ बीतीगया; अथवा केटलो बाकी रह्यो ते पण लक्ष्यमा नथी. अथवा लोकोत्तर पुरुषो जेओ रागद्वेषरहित छे, तेवा केवळी भगवंतो, अथवा चपूर्वी मुनिओ संसारी जीवने अनादि अनन्तकाळ सुधी ( अभव्य आश्रयी, अथवा वीजां बधा जीव आश्रयी ) दरेक कामां सुख विगेरे केलां हां, अने आवशे तेनी गणतरी पण कही शकता नथी. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४७३ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४७४॥ www.kobatirth.org बीजा आचार्यो नीचे प्रमाणे कहे छेः -- (प्रथमनुं सूत्रकाव्य) बीजी रीते कहे छे:-- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "अवरेण पुaि किह से अनीतं, किह आगमिस्सं न सरंति एगे ॥ भासन्ति एगे इह माणत्राओ, जह स अईअं तह आगमिस्सं ||१|| ” पूर्व जन्म साथे बीजा जन्मनो सबन्ध जाणता नथी, के केवीरीते अथवा क्या प्रकारे पूर्वे सुख दुःख हतुं, अने भविष्यमां केवो रीते सुख दुःख यशे ते जाणता नथी. अथवा बीजा वादीओ आम बोले छे के. आमांशुं जाणवानुं छे? जेवीरीते हमणां पूर्वना रागद्वेपथी उत्पन्न थएला कर्मवडे जीवने बन्धायलां कर्मनां फळ संसारमा भोगवां पढे छे तेमज पूर्वे पण हतुं अने भविष्यमां धनानुं छे, (तेमां वधारे शुं जाणवानुं छे?) अथवा प्रमाद्र विषय कषाय विगेरेथी कर्मो एकठां धवाथी इष्ट अनिष्ट विषयोने अनुभवता जीवो सर्वज्ञनी वाणीरूप अमृतना स्वादने न जाणनारा जेआं छे, तेमने जेम भूतकाळमां संसारमा सुख दुःख अनुभव्युं, तेवं भविष्यमां पण अनुभवशे. पण जेओ संसार समुद्री तरवावाळा छे, तेओ कर्मनुं फळ जाणे छे, ते बतावे छे ते सूत्रना बीजा काव्यमां कहे छे जे | जीवोनुं संसारमां फरी आवकुं नथी. तेओ सिद्ध छे, अथवा जेवुज जाणवानुं छे तेबुंज तेमने ज्ञान छे, तेवा सर्वज्ञो छे, तेओ अतीत (जुना) पदार्थने भविष्यना रुपपणे नथी मानता, तथा भविष्यना पदार्थने भूतकाळना रूपपणे नथी मानता, कारण के परिणतिनी विचित्रता छे, मूत्रमां "अर्थ" शब्द फरी लेवानुं कारण ए के के पर्यायरूप बदलाय छे (बाळक जुवान बुढो ए पर्याय छे अने ते For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४७४॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandi बदलाय छे) पण द्रव्यार्थपणे तो प्रणे अवस्थामा एकपणुंज छे (बाळपणमां अने बुट्टापणमा जीवनो भेद नथी.) आचा अथवा अतीत अर्थ ते विषय भोगादिक भोगवेलां अने भविष्य संबंधी देवांगनाना विलासने भोगववानां छे. तेने जेओ राग-18 IR॥४७५॥ IP द्वेषना अभाववाच छे तेश्रो याद करता नथी अथवा वांछता नथी.(तु शब्द विशेष बतावे छे) जेम मोहना उदयथी केटलाक पूर्वना ॥४७५॥ अथवा भविष्यना भोगोने वांछे छे, तेम सर्वज्ञ भोगोने इच्छता नथी अने तेना मार्ग (शासन) मां चालनारा पण एवाज निःस्पृही होय छे ते बताये छे, 'विहूय कप्पे.' ___एटले अनेक प्रकारे आठ प्रकारना कर्मने धोनार ते विधुत छे, अने कर्म धोबुं ते साधुनो आचार छे, तेवो कल्प पाळनार र साधु विधूत कल्पयाळो कहेवाय, अने तेज सर्वजनो अनुदर्शी कहेवाय छे, अने ते अतीन अनागत विषयसुखनो अभीलाषी न होय, 1 बळी तेने बीजा क्या गुणो होय ते कहे छे. पूर्वे बांधेलां अशुभ चीकणां कर्मनो क्षपक एटले नास करनारो छे,अथवा ते भविष्यमां नाश करनारो थशे [स्त्रमा 'निझोस [2] इत्ता' शब्द छे, तेनो अर्थ वर्तमान अने भविष्यनो लीधो छे] कर्म नाश करवाने जे मुनि उद्यम करे ते धर्मध्यान अथवा शुक्ल ध्यान ध्यानार महा योगीश्वरने संसारना सुख दुःखना । | विकल्पनो नाश थवाथी हवे शुं थशे ते बतावे छे. का अरई के आणंदे?, इत्यपि अग्गहे चरे, सव्वंहासं परिश्चज्ज आलीणगुत्तो परिवए, KARA-S EX For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि? (सू. ११७) आचाका इच्छित वस्तुनी अप्राप्ति अथवा इष्ट वस्तुनो नाश थतां मनमां जे विकार थाय ते अरति छे, अने इच्छित वस्तुनी प्राप्तिमा । सूत्रम् आनंद थाय छे, आ अरति के आनंद योगिना चित्तमा होतो नथी, कारणके ते महात्माने धर्मध्यान के शुक्लध्यानमा चित्त 81 ॥४७६॥12 रोकावाथी तेने संसारी वस्तुनी अरति के आनंद उत्पन्न थवाना कारणनो अभाव छे. तेथी मूत्रमां कडं के अरति अने आनंद ए P४७६॥ 15/ छे? (अर्थात् कंइज नथी) पण संसारी जीवनी माफक तेमणे ते विकल्पने राख्यो नथी. । जो आ प्रमाणे होय तो तेवा जीवने असंयममां अरति अने संयममा आनंद तेने होवो जोइए एम सिद्ध थयु, तेनुं आचार्य समाधान करे छे, के तेथु नथी अने अमारो अभिप्राय तमे समज्या नथी, कारण के जेमां रति अरतिना विकल्पनो अध्यवसाय निषेध कर्यो छे, तो बीजा प्रसंगमां पण रति अरति न होय तेज सूत्रकार कहे छे ए महात्माने अरति अने आनंद बने दूर थवा & रूप छे एटले तेमने तेवो आग्रह नथी तेथी ते 'अग्रह' कहेवाय छे, एनो भावार्थ आ छे के उत्तम साधु शुक्र ध्यानथी बीजे 181 रति आनंद कोइ निमित्ते आवे तो पण तेना आग्रह रहित बने, अने ते बन्नेमां मध्यस्थ रहे (संयम अने असंयम व्यवहारथी बाह्य 8 क्रियारूप छे. शुक्ल ध्यानवाळाने ते बाह्य क्रियाओनी श्रेणीमां जरुर नथी; अने ते ध्यानबाळाने थोडा समयमां केवलज्ञान थवान छे. ते अपेक्षाए आ बचन छे के, संयममा रति, असंयममां अरति न होय; परंतु शुक्लध्यान शिवायना चीजा आत्मार्थी साधुने तो 2 कंडक होय छे) फरी उपदेश आपे छे, सर्व हास्य, अथवा हास्यनां कारणो तजे; अने मर्यादामा रही इन्द्रियोने कबजे राखी लीन रहे। For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४७७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा मन, वचन, कायानी सावय क्रिया छोडवाथी गुप्त रहे; अथवा काचवा माफक पोतानुं शरीर संभाळी राखे; के, कोइ जीवने पीडा न थाय; ते संवृतगात्र मुनि छे, अने ते आलीन गुप्त बद्देवाय छे, तेवो मुनि साधुनां अनुष्ठाननो बरोबर रीते करे. मुमुक्षु साधुने पोतानां आत्मबळथी संयम-अनुष्ठान फळवाळु थाय छे, पण पारकाना उपरोध ( आग्रहथी) नहीं एम बतावे छे. गुरु शिष्यने कहे छे:- हे पुरुष जो, तें ग्रह (घर) पुत्र, स्त्री, धन-धान्य, सोनुं विगेरेथी रहित तृण अने मणि-मोतीमां, तथा देफुं सोनामां समानदृष्टि राखनार मोक्षार्थी जीवने पण कदाच उपसर्ग भवतां व्याकुळ मति थतां मित्र विगेरेनी आकांक्षा याय; तो ते दूर करवा कहे छे: - ( हे शिष्य !) पुरुष एटले, सुखदुःखथी पूर्ण माटे पुरुष अथवा पुरिमां शयन करवावी पुरुष (जीव) छे, तेमां वथा जीवोमां उपदेश, तथा संग्रम-अनुष्ठान करवामां मनुष्य योग्य होवाथी तेने आश्रयी कहे छे. एटले सुशिष्य ने कहे; अथवा कोइ पुरुष संसारथी खेद पामेलो खराब अवस्थामां होय; अने ते पोताना आत्माने शीखामण आपतो होय; अथवा अन्य भव्यात्माने साधु उपदेश आपे के— " हे पुरुष! हे जोव! सारां अनुष्ठान करवाथी तुंज तारो मित्र छे, अने पापकर्म करवाथी तुंज तारो शत्रु छे! तोपछी, वीजा मित्रने केम शोत्रे छे? कारण के, उपकार करे ते मित्र छे अने ते उपकारी परमार्थ दृष्टिए अत्यंत अने एकांत गुण युक्त सन्मार्गे चालता आत्माने छोडीने बोजो कोइ शोधव शक्य नथी; अने संसारनां कार्यमा सहायकारीपणे वीजाने मित्रपणे मानवो ते मोदनुं विजृंभन ( चेष्टा ) छे. कारण के संसारीनी मित्रताथी परिणामे मोटा दुःखमां पडवारूप संसार समुद्रमां भ्रमण कराववाथी ते खरी रीते अमित्रज छे! तेनो सार आ छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४७७॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥४७८॥ HAAGRAA "आत्माज आत्मानो अप्रमत्तपणाथी मित्र छे. कारण के अप्रमत्त आत्मा अत्यन्त एकांत परमार्थ सुख उत्पन्न करे छे. अने जो आत्मा प्रमादी थाय तो दुर्गतिमा जाय, माटे बोजा मित्रने शोधवानी जरुर नथी. पण आत्मा शिवाय बीजो बहारनो आ मित्र सत्रम # आ शव एवो विकल्प अदृष्ट उदयना निमितथी औपचारिक छे. कयु छे के दुपस्थिओ अमित्तं, अप्पा सुपस्थिओ अ ते मित्तं ॥ सुहदुक्खकारणाओ, अप्पा मित्तं अमित्तं च ॥१॥2॥४७८॥ कुमार्गे गयेलो आत्मा शत्रु छे, सुमार्गे चालनारो मित्र आत्माज छे. कारण के तेथीज दुःख सुख पामे छे अने तेथीज ते ।। अमित्र के मित्र छे. वळी कर्तुं छे केअप्येकं मरणं कुर्यात्, संकुद्धो बलवानरिः ॥ मरणानि स्वनन्तानि, जन्मानि च करोस्ययम् ।.२॥ एक बळवान शत्रु क्रोधायमान यइने घणुं तो एक बार मारी नाखशे, पण कुमार्गे गयेलो आत्मा अनंतां जन्ममरण आपे छे." एटले एम समजवू के निर्वाण आपनार संयमव्रतने जेणे उचर्या अने पाळ्यां ते आत्मानो मित्र छे. हवे आवो पवित्र आत्मा केवीरीते जाणवो अने तेनुं शुं फळ थशे. ते कहे छे.. जं जाणिज्जा उच्चालइयं तं जाणिज्जा दूगलइयं, जंजाणिज्जा दालइयं तं जाणिजा उच्चालइयं, पुरिसा! अत्ताणमेवं अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुञ्चसि, पुरिसा! सचमेव समभिजाणाहि, For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ४७९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सच्चस्स आणाए से उबट्टिए मेहावी मारं तरइ, सहिओ धम्ममायाय सेयं समणु पस्सइ (सू०११८) पुरुष विषय संगनां कर्म जाणीने छोडनार होय तेने तुं तारनारो मानजे; तथा बधां पाप धर्मों (कारणो) ने जे आलय (घर) दुर छे. ते दूरालय (मोक्ष) अथवा मोक्ष मार्ग (संयम) छे. ते मोक्ष मार्ग जेने होय ते दूरालयिक छे, जे हवे हेतु तथा हेतुवाको पदार्थ जणाववा गत प्रत्यागत मूल कहे छे. (बीजी रीते) कहे छे, जेने दूरालयिक जाणे तेने उच्चालयिक (तारनारो) जाणे, एनो सार आ छे. जे कर्म तथा आव द्वारनो रोकनार छे तेज मोक्ष मार्गमा रहेको छे अथवा मुक्त थलो छे अथवा जे सन्मार्गे वर्तन करे ते कर्मनो काढनारो छे. अने तेज आत्मानो मित्र छे, तेथी कहे छे, हे पुरुष! हे जीव! आत्मानेज ओळखीने धर्मध्यानथी बहार इन्द्रियोना विषयस्वादने लेता मनने रोकीने आ प्रकारे दुःखना पासामांथी आत्माने मुकाबजे! ए प्रमाणे कर्मोने दूर करी आत्मा आत्मानो मित्र बने छे. बळी गुरु कहे छे, हे पुरुष! सदाचरणवाळा पुरुषनुं हित करनार सत्य तेज संयम छे, ते संयममेज बीजा व्यापारथीज निरपेक्ष तुं वनीने जाण, अने ते प्रमाणे वर्त्तवानी परिज्ञाकडे प्रयत्न कर, अथवा आज सत्य जाण, के हे शिष्य ! गुरु साक्षिए लीवेलां महाव्रतोनी प्रतिज्ञानो निर्वाहकथा, अथवा सत्य एटले जैनागम तेनुं संपूर्ण ज्ञान मेळव, अने मोक्षाभिलाषीर ते प्रमाणे व्रतोनुं पालन कर. प्र० -- शा माटे? उ० – सत्य जैनागमनी आज्ञा प्रमाणे वर्त्तीने मेघावी (बुद्धिमान) साधु मार [ संसार] ने तरे छे. वळी सहित) ते ज्ञानादिथी युक्त अथवा हित सहित श्रुत चरित्र वने प्रकारना धर्म ग्रहण करीने साधु शुं करे, ते कहे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४७९ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० 1182011 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेय ते पुण्य अथवा आत्महितने बरोबर रीते देखे ( ते मोक्ष मेळवे ) आ प्रमाणे अप्रमत्त साधु तथा तेना गुणो बताच्या हवे तेथी जल कहे छे. दुहजो जीबियस परिवंदणमाणणपूयणाए, अंसि एगे पमायंति (सू० ११९) रागद्वेष, ए वे प्रकारे अथवा आत्मा के बीजा माटे अथवा आ लोक परलोक माटे अथवा रागद्वेष ए वे प्रकारे हणायलो अथवा खराब रीते हणालो ते द्विहत अथवा दुर्हत (दुःखी) होय ते शुं करे छे. ते कहे छे. आ जीवित केळना गर्भ माफक निःसार छे, तथा वीजळीना चळकाटना झवकारा माफक चंचळ छे. तेवा शरीरना परिवंदन (वंदन कराववा) मानन (मान मेळवावा) तथा पूजन (पूजावा) माटे हिंसा विगेरे पापोमां प्रवर्ते छे. परिचंदन ते लोको मारा पछवाडे भमे ते माटे प्रयत्न करे छे, एटले लावक विगेरेना मांसथी मारुं बधुं शरीर पुष्ट तथा सुंदर देखीने लोको खुशीथीज मने वांदशे, तमे श्रीमान् घणा लाखो वर्ष जीवो! विगेरे ated fart परिवंदन छे. तेज प्रमाणे मान मेळववा कर्म बांधे छे के, लोको मारुं बळ पराक्रम देखीने अभ्युत्थान, विनय, आसन दान, तथा अंजलि करी माधुं नमात्री मने मान आपशे. ते मान न (मान) छे, तथा पूजन माटे वर्त्तनारा कर्म आस्रववढे आत्माने बांधे छे. एटले, विद्या भणीने हुं धनवान थवाथी बीजो माणस दान, मान, सत्कार प्रणामवडे मारी सेवा विशेष प्रकारे करी पूजा करशे, ते पूजन छे, बळी, उपरना निमित्ते एटले वंदन विगेरे माटे केटलाक जीवो रागद्वेषथी हणायला प्रमाद करे छे, पण तेओ पोताना हितने माटे हित (धर्म) करना नथी. एथी उलडं कहे छे: For Private and Personal Use Only सूत्रम ||४८०॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४८१९॥ www.kobatirth.org सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो ना झंझाए, पासिमं दविए लोकालोकपर्व चाओ मुच्चइ (१२० ) तिबेमि तृतीय उद्देशो ॥ ३-३॥ ज्ञानादि युक्त अथवा हितवाळो उपसर्गधी आवेलां दुःख मात्रथी अथवा रोग थवाथी पीडातां व्याकुळ मतिवाळो न थाय ते दूर करवा प्रयत्न न करे, अथवा इच्छेलं मळतां राग विकल्प तथा अनिष्ट मळतां द्वेष विकल्प न करे, अर्थात रागद्वेष चनेने तजे (न सहेवाय तो मध्यस्थ वनी दवा करे, अने स्थविर साधुने योग्य उपायनो निषेध न होवाथी संतोषयी करे.) वळ उपर कहेला बघा उद्देशाना रहस्यने समजीने करवुं न करकुं ते विवेकधी समजे! कोण? जे मोक्षमां जवा योग्य छे ते | साधु, ए विवेकी साधु क्या गुणो मेळवे ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे आलोकाय (देखाय) ते लोक छे, अने १४ रजु प्रमाण ते छे. लोकमां आलोक ते लोकालोक छे, तेना प्रपंचथी मुक्त | थाय छे, लोकमां प्रपंच आ छे. पर्याप्त, सुभग दुर्भग तथा नारकीना जीवपणे ओळखाय एकेन्द्रियमां अपर्याप्त, एकेन्द्रिपणे ओळखाय ए प्रमाणे बधो संसारी प्रपंच जाणवो. तेनाथी मुकाय एटले चौद राजलोकमां जीवोनुं जुहुं जुदुं रूप तेने मळतां ते नामे गणा य छे, तेवो पोते नहीं थाय. प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. त्रीजो उद्देशो अर्थथी समाप्त. +45 For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४८१॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४८२० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोथो उद्देशो त्रीजो पुरो थवा पछी चोथो कहे छे तेनो आ प्रमाणे संबन्ध छे. गया उद्देशामां कयुं के फक्त पाप न करवाथी के दुःख सहन करवाथी साधु न कहेवाय, पण निष्प्रत्युह (अविघ्नपणे) संयम अनुष्ठान करवाथी साधु थाय. ते बताव्यं. अने निष्प्रत्युहता (अविघ्नपणुं) | कषायने दूर करवायी थाय छे. तेथी हवे पूर्वे कट्टेल उद्देशाना अर्थाधिकारवाळु सिद्ध करे छे, तेथी आ प्रमाणे संबन्धे आवेल उद्देशाना सूत्र अनुगममां सूत्र कहे छे. संवंता कोह च माणं च मायं च लोभं च एवं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंत करस्स आयाणं सगडब्भि (सु० १२१) साधु ज्ञानादि सहित दुःख मात्रथी घेरायलो छतां अव्याकुल मतिवाको आत्मद्रव्य भूत लोकालोक प्रपंचथी मुक्त थया जेवो | पोतानुं तथा परतुं हित बगाडनार क्रोधने वमन करनारो छे (बम धातुनो अर्थ दूर करवाना अर्थमां छे तेनो भविष्यकाळ लइए तो बीजी विभक्त लागे, नहितो छठ्ठी विभक्ति लागू पडे) अर्थात् शास्त्रमां कहेल अनुष्ठानने जे साधु विधि प्रमाणे करे, ते थोडा कामां क्रोधने दूर करशे ए प्रमाणे बीजे पण समजी लेबुं. एटले पोताना उपघात करनार उपर क्रोध कर्मना विपाकना उदयथी क्रोध थाय, जाति कुळ रुप बळ विगेरे कारणे जे गर्व थाय ते मान छे, परने उगवा रूप विचार ते माया छे. तृष्णाना आग्रहनो परिणाम ते लोभ छे. ते वधाने क्षपणा (कर्म खपावत्रा) तथा उपशम (शांत करवा) तेने आश्रयी आ क्रोध विगेरे चारनो अनुक्रम छे. अनं For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४८२॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ४८३ ॥ | www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir argest errorserat प्रत्याख्यानी तथा संजवलनी अंदर रहेल भेदो बताववाने माटे जुदा जुदा वतान्या छे, अने चशब्द मुकवाथी ते दरेकनी उपमा पर्वत पृथ्वी रेणु जळ राजीनी क्रोधनी छे, तथा शैल स्तंभ हाइकु लाकडं तिनिशलता माननी छे, तथा बांस कुडंगी (थडी) मेष अंग गोत्रिका अबलेखनीनी उपमा मायानी छे, तथा कृमीराग कर्दम खंजन हरिद्रानी उपमा लोभने छे, तथ आखी जींदगी सुधी एक वरस सुधी चार मास अने पंदर दिवसनी स्थिति अनुक्रमे दरेकनी छे, ( आ बधानुं वर्णन आज मूत्रमां पाने छे त्यांथी जो . ) आ प्रमाणे क्रोध, मान माया लोभ त्यागवाथी खरी रीते साधुपणुं छे पण क्रोध होय त्यां सुधी साधुपणं नथी; कां छे के:सामण्णमणुचरंतर कसाया जस्स उक्कडा हुंति । मन्नामि उच्छुपुष्कं व निष्फलं तस्स सामपणं ॥१॥ साधुपणुं पाळता साधुने जो कषायो वधारे प्रमाणमां होय तो शेरडीना फुल माफक तेनुं साधुपणुं हुं निष्फळ मानुं हुं ॥ जं अजिअ चरितं देसूणाएव पूर्वकोडीए । तंपि कसाइयमेतो हारेइ नरो मुहुतेणं ॥२॥ पूर्व डीम थोडा वर्षा एवं ( आटली लांबी मुदतनुं ) चारित्र पाळ्युं होय, ते जो उत्कृष्ट क्रोध करे तो ते माणस एक मुहुर्तमा साधुपणं हारी जाय छे. आ वधुं पोतानी बुद्धिथी नथी कां एवं बताववा गौतमस्वामी कहे छे के 'एय' विगेरे आ कषाय दूर करवा हमणा उपर बताच्यं, ते वधुं सर्वदर्शी पश्यक साक्षात् देखे छे, कारण के तेने निवारण (केवळ ) ज्ञानदर्शन छे, अने ते पश्यक तीर्थकृत् वर्धमना स्वामी छे, अने तेमनुं दर्शन (अभिप्राय मंतव्य आहे. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||४८३॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४८४|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथवा नावडे वस्तु तत्त्व यथावस्थित देखाडाय (कहेवाय) ते दर्शन एटले उपदेश छे, अर्थात् महावीर (वर्धमान) स्वामीनुं कलुंछे ते हुं हुं हुं पण स्त्रबुद्विथी नथी कहेतो, ते सर्वदर्शी पश्यक केवा छे, के जेतुं आ दर्शन छे ते कहे छे, 'ववरय' विगेरे-जेनुं द्रव्य भावथी (सर्व जोवोने दुःख देवारूप) शस्त्र बने मकारे दूर थयुं छे, अथवा शस्त्रथी पोते दूर रहेला छे, अहीं भावशस्त्रमां असंयम अथवा कषायो जाणत्रा, तेनाथी पोते दूर छे. तेनो भावार्थ आ छे के:-- तीर्थकरने पण कपायने वया सिवाय निरावण वधा पदार्थने देखना परम (केवळ ) ज्ञान प्राप्त थतुं नथी, तेना अभावमा मोक्ष सुखो अभाव छे, एथी बीजो पण मोक्ष वांक साधु जे तेनो उपदेश माने छे अने तेना मार्गे चाले छे तेणे पण कषाय antara are aार्य बतावो बीजापण तीर्थकरनां विशेषण बतावे छे. 'पलियतकरस्स' एटले वधां कर्मनो अथवा संसा रनो अंत लाववानो जे यत्न करे ते पर्यतकर छे, तेनुं आदर्शन छे. हवे जे तीर्थकरे संयमने विन करनार कषाय शखने दूर करी संसारनो अंत कर्यो तेम वीजो पण साधु जे तेनुं कहेलुं करना होय ते पण करे, तेनुं बतावे छे. 'आयाण' विगेरे जेनावडे आठ कर्म आत्म प्रदेश साथे एकमेकपणे थाय ते आ दान है, अथवा हिंसा विगेरे द्वार अथवा अढारे पापस्थान छे. तेनी स्थितिनुं निमित्त कषायो होवाथी ते आ दान छे. ते कपायोनो वमन करनारो स्वकृत भिद (कर्म भेदनारो) बने छे. अर्थात् पोते (भज्ञानदशामा) पूर्वे जे कर्मों अनेक भवमां एकठां कर्य होय; तेने भेदी नांखे ते स्वभिद जाणवोः अने जे कमना आदान (बीजरूप) - कपायोने रोके, ते अपूर्वकर्म प्रतिषिद्धमां प्रवेश करनारो छे, अने पोते पोतानां पूर्वकर्मनो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥૪૦॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० Assam ॥४८५॥ ४ R भेदनारो छे. तीर्थकरना उपदेशवडे पण, पारकानां करेलां कर्मना क्षयना उपायनो अभाव होय तेथी स्वकृत लीधुं. तेथी तीर्थकरे पण पारकाना करेला कर्मना खपायवानो उपाय नथी जाण्यो एवी कोइने शंकाथाय तेनो उत्तर. एम नथी. कारण के सूत्रम् तेमना ज्ञानमा बधा पदार्थोनी सत्ता व्यापीने रहेली छे. (परंतु करे ते भोगवे ए नियमथी दरेके कर्म कापघा उद्यम करवो जोइए.) शंका-हेय उपदेय पदार्थने छोडवू ग्रहण करवू तेना उपदेशने जाणवाथी सर्वज्ञ नथी एवं अमे कहीए छीए. कारण के उप-13॥४८५॥ देश मात्रथी परोपकार करवाथी सर्थकरपणानी उत्पत्ति घटती नर्थी उत्तर युक्तिना विकलपणाथी उत्तम पुरुपना मनने समारूं कहेवू ला आनंद आपतुं नथी, कारणके उत्तम ज्ञान विना हित अहितनी प्राप्ति तथा त्याग उपदेशनो असंभव छे. अने एक पदार्थनु पण संपूर्ण ज्ञान सर्वज्ञपणा विना घटतुं नथी ते मूत्रकार बतावे छे. जे एगं जाणइ से सवं जाणइ, जे सवं जाणइ से एगं जाणइ (सू० १२२) जे कोइ पण ज्ञानी परमाणु विगेरे एक द्रध्यने तेना पछीना के पूर्वना पर्याय सहित जाणे, अथवा पोताना अथवा पारकाना दी बधा पर्यायाने जाणे छे; कारण के तेवा पुरुषने अतीत अनागतमा बनेला अने बनवाना पर्यायो सहित द्रव्यने जाणवाथी तेने बधीमा वस्तुनुं ज्ञान अविनाभावीपणे छे. हवे तेने हेतु तथा हेतुवाळा पदार्थ सहित बीजी रीते कहे छे. जे सर्व पदार्थो संसार उदरमा रहेला छे तेने जाणे छे ते एक घट विगेरे एक वस्तुने जाणे छे, तेज ज्ञानीने अतीत अनागत पर्याय-भेदोवडे ते ते स्वभावनी आपत्तिवडे अनादि अनंतकाळपणे समस्त वस्तु स्वभावमां जाणपणुं थाय छे. कयु छे: For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४८६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एगदवियरस जे अत्थपजवा वयणपज्जवा वावि । तीयाणागयभृया, तात्रइयं तं हवइ देव ॥१॥ एक द्रव्यना जेटला अर्थना पर्यायो, अथवा वचनना पर्यायो छे, ते भूत वर्तमान, भविष्यसहित होय; त्यारे ते द्रव्य धाय छे. (उपरना सूत्रो परमार्थ एछे के, कोइपण वस्तुमां द्रव्य पोते वस्तु छे छतां तेमां जे स्वरूप बदलाय के ते पर्यायो छे पूर्वे जे बदलाया ते भूतपो छे, चालुमां छे, ते वर्तमान, अने थवानो ते भविष्यना छे. ए बधांने जे साथे जाणे; तेज एक वस्तुना एक पर्याय पण जाणे अने ते एक पर्यायने पण बरोबर जाणे ते सर्वने पण जाणे; अने ते आ गाथामां बतान्युं छे के एक द्रव्यमांत्रणे काळना पर्यायां छे, अने पर्यायोसहित होय; तेज द्रव्य छे.) उपर कल सर्वज्ञ ते तीर्थकर छे, अने तेज सर्वज्ञप्रभु सर्व सोने उपकार करनारो, अने वनीशके तेवो उपदेश आवे छे ते सूत्रकार बतावे छे. ओ मत भयं, सबओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं, जे एगं नामे से बहुं नामे, जे बहु नामे से एगं नामे, दुक्खं लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगं जंति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति, नावकं खतिजीवियं (सू० १२३) द्रव्य विगेरेथी सर्व प्रकारे जे भय करनारुं कर्म उपार्जन करे; ते भय, मथ विगेरेथी जे प्रमादी बने तेने थाय छे. ते बतावे छे के, प्रमादी द्रव्यथी वधा आत्ममदेशोथी कर्म एकटुं करे छे. क्षेत्रथी छए दिशामा रहेलुः काळथी प्रत्येक समये, अने भावथी For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४८६ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir II हिंसा विगेरेथी भयजनक कर्म बांधे छे. आचा० अथवा सर्वत्र एटले, अहीं अने परलोकमां बने ठेकाणे प्रमाद करनारने भय छे. पण अममादीने क्यांय पण भय नथी, ते सत्रम बतावे छे के, आलोक के. परलोकमां अपायोथी आत्महितमा जागृत रहेनार अप्रमादीने संसार अपसद (निमकहराम विश्वाचाती, ॥४८७॥ थी अथवा अशुभ कर्मथी कोइ प्रकारे भय नथी; अने कषायना अभावधी अप्रमत्तता थाय छे, तेथी बधां मोहनीयकर्मनो अभाव ॥१८७॥ थाय छे, तेथी संपूर्ण कभनो क्षय थाय छे, तेथी ए प्रमाणे एकना अभावमा घणाना अभावनो संभव थाय छे, तथा एकनो अभाव पण बहु अभावी जुदो नथी. तेटला माटे हेतु, अने हेतुवाला पदार्थना भावने गत प्रत्यागत मूत्रवडे बतावेल के. जे प्रवर्धमान शुभ अवयवसायना कंडकमा चढेलो साधु जे, एकला अनंतानुबंधी क्रोधने क्षय करे छे, ते, मान विगेरे बहुने खपावे छे. अथवा, 13 पोतानाज भेदवाळा अप्रत्याख्यान विगेरेने खपावे छे. तथा, एकला मोहनीयने खपावतां बीजी प्रकृतिओने पण खपावे छे. अथवा जे, घणी स्थितिबाळाने खपावे छे, ते साधु अनंतानुबन्धी एकने अथवा, मोहनीयकर्मने खपाचे छे, ते वतावे छे. जेमके-अगणोतेर । ६ ६९ मोहनीय कोडा-काडी क्षय गया पछी, ज्ञानावरणीय, दर्शानावरणीय, वेदनीय, अंतराय, ए चारनी २९ तथा नामगोत्रनी १९ कोडा-कोडी रूपी गया पछी, अने तेमां पण थोडे ओछ थया पछी मोहनीय कर्मनो क्षपण थवाने योग्य थाय हे, पण, ते शिवाय न थाय. तेथी का छे के-जे बहु नाम होय; तेज परमार्थथी एकनामवाळो छे. अहीं नामनो अर्थ कर्मप्रकृतिनो क्षय, अथवा, उपशम करनार जाणवो. एक उपशम श्रेणीना आश्रयथी एक तथा, बडु उपशम करवावडे बहु उपशमता जाणवी. तेथी ए प्रमाणे बहु तथा. एक कर्म ना अभाव शिवाय मोहनीयक्षय अथवा, उपशमनो अभाव थाय; अने तेना अभावमां एटले, जो, मोहनीयक्षय ब For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स सुत्रम् अथवा, उपशम न पाय; नो. जंतुभोने बहु दुःखनो संभव छे, ते मूत्रमा बतावे छे. आचा० दुःख एटले असातावेदनीय-कर्म अथवा पीडा थाय. ते जीवोने दुःख थतुं ज्ञ-परिज्ञावडे जाणीने, अने प्रत्याख्यान-परिज्ञावडे जेम, तेनो अभाव थाय; तेम, साधु ए करवू. necent प्रश्नः-अभाव केवीरीते थाय? अथवा ते अभावथी | लाभ थाय? ते बन्ने बतावे छे. 'वंता' विगेरे जे स्वआत्माथी जुई। 1 धन, पुत्र, शरीर, विगेरे छे, तेनो ममत्त्व भावनो संबन्ध छे, अने तेनाथी शरीर विगेरेने दुःख थाय छे, ते दुःखना हेतुरुष-उपादान कारण, अथवा कर्म ने त्याग करवा प्रयत्न करे छे. एटले, कर्मविदारण करवामां धैर्य राखनारा धीरपुरुषो जेनावडे मोक्षमा जशयः । तेवु चारित्रयान जे, अनेक करोडो भवमा मळवू दुर्लभ छे, अने केटलाक जीवो ते मेळवीने पूर्वना अशुभकर्मना उदयथी, प्रमादथी लातेहारीजाय छे. एटले, जेम कोइने स्वप्नामा मेळवेल धननो भंडार नकामो थाय छे, तेम प्रमादथी हारनारने मळेलां चारित्रनो लाभ धतो नथी. माटे तेने मो? यान, ए, विशेषण आपेल छे. अथवा सम्यग दर्शन विगेरे त्रण रत्नरूप महायान छे, अने जेने मोढुं यान छे, ते मोक्ष के, तेने धीर पुरुषो प्राप्त करे छ प्रश्न:-ए बात ठीक छे. पण एक भववढेज महायानरूप चारित्र मेळ्यवाथी मोक्ष मळे के परंपराए मोक्ष मळे. उत्तर-अमे बन्ने प्रकारे मानीए छीए एटले कोइ थोडा कर्मवाळाने योग्य क्षेत्रकाळ मळता तेज भवमा मुक्ति थाय छे, अने। ४ बीजाने परंपराए मोक्ष थाय छे, ते बतावे छे, 'परेण परं जेणे सम्यक्त्व प्राप्त कर्यु, तेणे नरक तिर्यंच गति अटकावी, अने ज्ञान & प्राप्त करीने यथाशक्ति संयम पाळीने आयु कर्म पुरु यतां सौधर्मादि देवलोकमां जाय छे, त्यांथी पण पुन्य थोडे वाकी रहे त्यारे MER For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४९३ ।। www.kobatirth.org जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिज्जदसी, जे विजदसी से दोसदंसी, जे दोससी से मोहदसी, जे मोहमसी से गब्मदंसी, जे गब्भदसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदसी, जे मारदसी से नरयदंसी, जे नरयदंसी से तिरियदसी, जे तीरियदंसी सुदुक्खदंसी । से मेहात्री अभिविहिजा कोहं च माणं च मायं च लोभं च पिज्ज दोसंच मोहं च गमंच जम्मं च मारं च नरयं च तिरियं च दुख्खं च । एवं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंत करस्स, आयाणं निसिद्धा सगडब्भि, किमत्थि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओवाही पासगस्स ? न विज्जइ ?, नत्थि (सू० १२५) तिबेमि || शितोष्णीयाध्ययनम् ३ ॥ जे क्रोधने स्वरुपथी जाणे अने ज्ञानने अनर्थ करनारुं जाणी त्यागवारूप मानीने (ज्ञान वडे) क्राधने त्याग करे, ते साधु निचे मानने पण अनर्थ करनारुं देखे छे, अने तेने त्यागे छे. अथवा जे क्रोधने जाणे छे, अने समय आवतां क्रोधी बने छे, तेवो. माणस मान पण देखे छे, अर्थात् ते अहंकारी पण थाय छे, ए प्रमाणे हवे पछी पण सनजी लेबुं. ज्यां सुधी ते दुःख देखनारो थाय त्यां सुधी जाणवु, सूत्र सुगम होवाथी टीका करी नथी. तो पण मंद बुद्धि हितार्थेथोडामां लखीए छीए. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।।४९३॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४९४ ॥ www.kobatirth.org जे अहंकारी बने ते समय आवतां कपटी पण बने. लोभी पण बने, अने जे लोभी होय, ते अनुक्रमे प्रेमी पण बने, अने पोतानुं इच्छित न थतां द्वेषी पण बने, अने ते मोह करनारो पण थाय, अने ते मोह करीने गर्भमां उत्पन्न श्राय पछी जन्मनुं दुःख वेठे, ते मार ( हिंसा अथवा आरंभना कृत्य ) पण करें, अने पछी ते नरक गामी पण धाय, त्यांथी चवीने तिर्येच थाय, एम परंपराए अनेक दुःखोने ते संसारी जीव भोगवे छे, पण जे मेघावी ( बुद्धिमान ) साधु छे ते क्रोध विगेरेथी दूर रहे छे ते बतावे छे, पटले क्रोध मान माया लोभ प्रेम द्वेष मोह गर्भ जन्म मार नरक तिर्येच विगेरेनां दुःखो क्रोधरूप बीजने त्याग कर - वाथी भोगवतो नथी, आ त्रधुं जे तत्वज्ञान बतान्युं ते वधा उद्देशानुं शरुतथी ते अहिं सुघी तीर्थंकर कलुंछे, अने ते तीर्थकर जीवोने पीडा करनार शखने छोडीने आठ कर्मनो अंत करनार थया छे एटले तेओ कर्म उपादान कारण क्रोध विगेरे प्रथम त्यागीने पोताना कर्मो जे पूर्वे बांधेलां तेने भेदनारा थया, तेओने केवळज्ञान थवाथी संसारी कोइपण जातनी उपाधी नथी एटले द्रव्यथी सोनुं चांदी विगेरे नथी तेम भावथी आठ प्रकारनां कर्म नथी, आ प्रमाणे शिष्यना मनमां तीर्थकरने कोइपण जातनी sort के भावी कोइ पण जातनी उपाधि छे के नहि ? तेनो उत्तर को नथी. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आ वचन सुधर्मास्वामि जंबूस्वामीने कहे छे, के में भगवानना चरणनी सेवा करतां जे सांभळपुं तेने अनुसारे तने कहुं लुं, पण मारी मति कल्पनाथी हुं कहेतो नथी. सूत्र अनुगम को, चौथो उद्देशो पुरो भयो अने तेनी समाप्तिथी अतीत अनागत नय | विचारने सूत्र थोडामा बताववाथी शितोष्णीय नामनुं श्रीजुं अध्ययन समाप्त थयुं. -aile For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४९४॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यक्त्व नामर्नु चोथु अध्ययन. आचा चीजें अध्ययन पुरूं थवाथी हवे चोथु कहे छे. तेनो आ प्रमाणे-संबन्ध छे. पहेला शस्त्रपरिक्षा अध्ययनमां अन्वय व्यतिरेक Vवडे छ जीवनीकायतुं स्वरुप बतावतां जीव अने अजीव, एम चे पदार्थ सिद्ध कर्या; तथा जीवोना वधमां बंध थाय छे, अने ते त्यागवाथी विरति थाय; तेवु बतावतां मानव संवर वे पदार्थ बताच्या; तथा लोकविजय नामना बीजा अध्ययनमां लोको जेम बंधाय छे, IM४९५ | अने जेम मुकाय छे. ते वतावतां बंध अने निर्जरा बतावी; तथा त्रीजा अध्ययनमां शतोष्णरुप-परिसहो सईबा ते बतायतां तेना Pफळरुप-मोक्ष बताव्यो; तेथी त्रण अध्ययनमा जीव-अजोव, आस्रव, संवर, बंध निर्जरा अने मोक्ष, एम सात पदार्थरुप-तत्त्व बताव्यु 18. अने तत्त्व पदार्थनु श्रद्धान (विश्वास) राख; से सम्यक्त्व कहेवाय छे, ते इवे बताचे छे. 6 आ संबन्धबडे आवेला आ चोथा अध्ययनना चार अनुयोगद्वार बतावतां उपक्रममा अर्थ अधिकार प्रकारे छे. अध्ययननो । अर्थाधिकार सम्पक्त्व नामनो छे ते शखपरिनामा प्रथम कहेल छे, अने उद्देशानो अर्थाधिकार अहीं बतायवा नियुक्तिकार कहे छे:पढमे सम्मावाओ, बीए धम्मपदाइयपरिक्खा । तइए अणवजतवो, न हु बालतवेण मुक्खुत्ति ।१२५॥ उसंमि नउत्थे, समासवयणेण णियमणं भणियं । तम्हा य नाणदंसणतवचरणे होइ जइयत्वं ॥२१६|| (१) पहेला उद्देशामां सम्यवाद ए नामनो अर्थाधिकार छे. एटले, अविपरीतवाद ते सम्यग्बाद छे. अर्थात् यथाअवस्थित । वस्तुने बतायची. (२) बीजा उद्देशामां धर्मप्रवादिकोनी परीक्षानो विषय छे. एटले, जेओ धर्मनुं स्वरुप बनावे छे, ते धर्मप्रवादिक -२ For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 15. कहेवाय. तेओर्नु अयुक्त तथा, युक्त कथनने विचार. (३) त्रीजामां, अनवध तपनु वर्णन छे. एटले, जे पाळतप करे; तेवा अबानी आचा० करेला तपथी मोक्ष न थाय ते अहीं बतायुं छे. (२१५) चोथा उद्देशामा संक्षेप वचनमां संयतनु स्वरुप बताये छे, तेथी पहेलामांश सूत्रम् सम्यग्दर्शन, बीजामा सम्यक्ज्ञान त्रीजामां बाळ तपनो निषेध करवाथी सम्यक् तप बताभ्यो छे, अने चोयामा सम्पर चारित्र वतव्यु. ॥१९॥15, गाथामा 'तरमात' अने 'च' शब्द छे ते बन्ने हेतुमा छे, जेथी ए चारे पण मोक्षनां अंग पूर्वे कयां छे, तेथी एम जाणवू के मान दर्शन ४९६॥ तप चरणमां मोक्षाभिलाषी साधुए यत्न करचो, अने तेनुं प्रतिपालन करवा जीवता सुधो प्रयत्न करतो, आ प्रमाणे चे गायानो अर्थ ययो. हवे नामनिष्पन्ननिक्षेपामां बतावेल सम्यक्त नामनो निक्षेपो कहे छे. नामंठवणासम्म दबसम्मं च भावसम्म च । एला खल्ल सम्मस्सा, निख्खेयो चउबिहो होइ ॥२१७॥ नाम स्थापनानो अक्षरार्थ सुगम छे, अने तेनो भावार्थ नाम स्थापना छोडोने द्रव्य अने भाव संबंधी नियुक्तिकार कहे छे. M अह दवसम्म, इच्छाणु लोमियं तेसु तेसु दबेसुं । कयसंखयसंजुत्तो, पउत्त जढ मिण्ण छिपणं वा ॥२१॥ शरीर भव्य शरीरथी व्यतिरिक्त द्रव्य सम्यक्स बतावे छे, इच्छा एटले चित्तनी प्रवृत्ति (अभिप्राय) छे, तेने अनुकुळ कर, 18 ते 'ऐच्छानुलोमिक' छे तेवी सेवी इच्छा अनेभावने अनुकुळ द्रव्यमांकृत विगेरे उपाधिना भेद बडे सात प्रकारे थाय छे, ते आ प्रमाणे छे. (१) कृत एटले अपूर्व रय विगेरे वनाच्यो होय, ते रथयां योग्य रीते भागो गोठव्याथी सारा बनावनारने लीधे बेसनारने चित्तमां शांति थाय छे, अथवा जेना माटे ते बनान्यो ते शोभायमान अने योग्य समयमां जलदी बनानी आपवाथी करारनारने -%AANAA% । For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir समाधान (समाधी) नो हेतु होवाथी ते द्रव्यसम्यक् छे. आ प्रमाणे संस्कृत (संस्कार करेल) विगेरेमां पण समजबुं, एटले (२) तेज आचार स्थ विमेरे मांगी जतां अथवा जुनो थतां तेने सुधारवो अथवा भांगेला भागने बदलयो ते समाधि आफ्नारो होबाथी द्रव्य सम्यक् छे. (३) जे बे द्रव्यनो संयोग नवो गुण बनावचा करे पण नाश करवा न करे ते खानार अथवा भोगवनारना मननी समाधिने | सूत्रम् ॥४९७॥ माटे दुधमां साकर मेळववी विगेरे , ते संयुक्त द्रव्य सम्यग छे. ४९७॥ (४) तथा जे प्रयोगमा लीधेलं द्रव्य आत्माने लाभना हेतुथी समाधि माटे थाय छे, ते मत्येक द्रव्य सम्यक् छे. अथवा बीजी मतिमा उपयुक्त शब्द छे एटले उपयोगमा लीधेलं द्रव्य मनने समाधि दायक याय ते उपयुक्त द्रव्य सम्यक् छे. (५) तथा जड (स्पजेलं) भार विगेरे दुर करवाथी चित्तमां शांति थाय, ते त्यक्त द्रव्य सम्यक छे, (६) दहीनुं वासण विगेरे। फुटी जतां कागडा विगेरेने आनंददायी थवाथी ते भिन्न द्रव्य सम्यक् छे, (७) अधीक मांस विगेरे छेदवाथी [अथवा गुमडामा नस्तर मुकबाथी जे शांति थाय ते छिन्न सम्यक् छे, आ साथे पण चित्तने समाधि आफ्नार होवाथी द्रव्य सम्यक् छे, पण जो ते ठा 10/बरोबर न थाय तो चित्तमा क्लेश थतां सम्यक् थाय हे, हवे भाव सम्यक् बतावे छे. तिविहं तु भावसम्म दंसण नाणे तहा चरिते य । दसणचरणे तिविहं नाणे दुविहं तु नायच्वं ॥२१९ ___ ण प्रकारे भावसम्यक् छो, दर्शन ज्ञान चारित्र ए त्रण भेद छे, ते दरेक पण भेदवाळु छे, ते कहे छे, तेमां दर्शन अने चरण दरेक त्रण प्रकारना हे, ते आममाणे. For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४९८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनादि मिथ्यादृष्टिने प्रण पुंज कर्या विनानो होय तेने यथामत्तकारण वाकीनां कर्म क्षीण थवावाळो होय तेने सोगरोपम कोडा-कोडीमां थोडी ओछी स्थिति होय; तेने अपूर्वकरणमां ग्रंथी भेदाता मिथ्याखने उदय न होय तेवुं अंतःकरण करीने अनिवृत्ति करणवडे प्रथम सम्यक्त्व मेळवे छे ते औपशमिक दर्शन छे, कछे के. “उसरदेसं दडेल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छत्ताणुदए उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥१॥" खावा [पर] देश [जग्या] मेळवीने जेम बननो अनि ( दावानल) बुझाइ जाय छे, नेम मिथ्यात्व उदय न आवे. त्यारे औपशमिकसम्यक्त्वने जीव पाते छे. अथवा कोई उपशमश्रेणीमा औपशमिक सम्यक्त्व पामे छे. [१] तेज प्रमाणे सम्यक्त्व पुगलने आश्रयी ने जे अध्यवसाय उत्पन्न थाय ते क्षायोपशमिक छे. [२] तथा दर्शनमोहनीय क्षय थवाथी क्षायिक छे. (३) चारित्रना ऋण भेद (१) दर्शन प्रमाणे चारित्र पण उपशम श्रेणियां औपशमिक [२] कषायना क्षय उपशमथी क्षायोपशमिक [३] तथा चारित्र मोहनीय कर्मना aest क्षायिक चारित्र छे. ज्ञानाचे भागो छे.- क्षायोपशमिक, अने क्षायिक तेमां चार प्रकारना ज्ञान आवरणीय फर्मनो क्षय उपशम थवार्थी मति ज्ञान विगेरे चार प्रकारनुं क्षायोपशमिक ज्ञान छे, अने बधुं घातीकर्म क्षय थवायी क्षायिक केवळ ज्ञान छे. आ प्रमाणे त्रणे प्रकारमा भाव सम्यक्त्वणुं बतावे छते वादी शंका करे छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४९८॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् टा॥१९॥ ब- __“जो, एम दर्शन-बान--चारित्र त्रणेमां सम्यग्वादनो संभव थाय छे, तो, दर्शननोज सम्यक्त्रवाद केम रुन थयो छे? के जे सम्यग्दर्शननुं अहीं वर्णन करवान छे. I उतर:-ते दर्शनना भावना भावी (विद्यमानपणाथीज) ज्ञानचारित्रनो भाव के. जेमके-मिध्याष्टिने बानचारित्र होना नथी. ॥४९९॥ [तेने ज्ञान होय; छतां अज्ञान कडेवाय.] अहीं सम्यक्त्वनी प्रधानता बतावचा आंधळा तथा देखता एवा वे राजकुमारोनुं दृष्टांत । बाल-[मंदबुद्धिवाळा] तथा स्त्री विगेरेना बोध माटे कहे छ: उदयसेन नामनो राजा हतो. तेने वीरसेन तथा मूरसेन नामे वे कुमारो छे. तेमा वीरसेन आंधळो के. तेणे पोताने योग्य | गांधर्वादिक [गावा विगैरेनी] कळाओ शीखी; अने बीजा कुमारे धनुर्वेदनो अभ्याम करीने लोकमां प्रशंसनीय पदवी पाम्यो. आ४ सांभळीने वीरसेन कुमारे विज्ञप्ति करी के, हुं पण धनुर्वेदनो अभ्यास करु. पछी राजाए नेना आग्रहथी आजा आपी; अने योग्य उपाध्यायना उपदेशथी, अने अतिशय बुदिना कारणथी शब्दवेधी थयो. पछी ते जुवान थयो; त्यारे सारा अभ्यासथी मेळवेला धनुर्वेदनां ज्ञानथी अने उत्तमवर्तनथी अगणित चक्षुदर्शन सद्-असत्भावथी, तथा शब्दवेधीपणाथी ज्यारे शत्रु राजा लडवा आल्यो; त्यारे राजा पसे युद्धमा जवा मांगणी करी. राजाए आज्ञा आपवाथी विरसेने शत्रुनुं सैन्य जीतवा प्रयत्न कर्यो; पण शत्रुए अंधपणु Pजाणीलीधाथी चुप बेसाथी वीरसेनहुँ कइ न चास्युं त्यारे शत्रुना सैन्ये तेने पकडी लीयो पछी सूरसेने ते वृत्तांत जाणीने राजने पूछीने मूक्ष्म तीरोना सेंकडोनो वरसाद वरसवी शत्रुना सैन्यने जीती भाइने मुकाब्यो. आ प्रमाणे अभ्यास सारी रीते करी उद्यम करवा छतां पण चक्षुनी खामीथी इच्छित कार्य करवा समर्थ न थयो, तेज प्रमाणे % कन्न A4-% % For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandit सूत्रम ॥५००॥ काव 18 सम्यग्दर्शन विना ज्ञानचारित्र कार्यसिद्ध न करी के. तेज नियुक्तिकार गाथानो उपसंहार करतां बतावे छे. आचा कुणमाणोऽविय किरियं, परिच्चयंतोऽवि सयणधणभोए,दितोऽवि दुहस्त उरं,न जिणइ अंधो पराणायं ॥२२०॥ क्रियाने करतो, तथा पोतानां स्वजन, धन भोगाने त्यजवा छतां तथा दुःखने उर आपवा (सामे जवा) छतां पण अंघो अंध॥५००॥ पणाने लीधे शत्रुना सैन्यने जीती न शश्यो. ते दृष्टांतथी हवे बोध आपे : कुणमाणोऽविनिविर्ति, परिच्चयंतोऽवि सयणधणभोए ।दितोऽवि दुहस्स उरं, मिच्छद्दिहि न सिन्झइ3 ॥२२१॥ पटले मिथ्यादृष्टि पोताना दर्शनमां कहेली क्रिया करे. जेमके पांच यमो, तथा पांच नियमो विगेरे पाळे तथा पोताना धन सगो तथा भोगोने त्यागे. तथा पंच अग्निनो ताप तपवा विगेरेथी दुःख सहन करे छतां मिथ्यादृष्टि दर्शननी खामीथी सिद्धि पद नथीन पामतो, (गाथामा उ शब्द एकवारना अर्थमा छे.) से पूर्वे जेम अंध कुमार शत्रुने न जीती शक्यो तेम आ कार्य सिद्धिमां असमर्थ छे, जो एम छे तो शुं करवू? ते कहे थे:। तम्हा कम्माणीयं जे उमणो दंसणमि पयइजा, दंसणवओ हि सफलाणि हुंति तवनाणचरणाई ॥२२२॥ जेथी सिद्धि मार्ग, मूळ सन्यग् दर्शन छे, तेना विना कर्मक्षय न थाय, तेथी कर्म शत्रुने जीतवानी इच्छावालो मनुष्य सम्यग दर्शन मेळववा प्रथम यत्न करे, अते तेनी प्राप्तिमा भुयाय ते बताचे छे. के निचे दर्शन पामेलानां तप ज्ञान तथा चारित्रनां बयां & अनुष्ठानो सफळ थाय छे. नेथी मां यत्न करवो. -~-%EGNES For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ५०१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजी री पण सम्यग्दर्शनना तथा ते दर्शन मेळवेला मनुष्योने प्राप्त थएला गुणस्थानोना गुणो बतावे छे. सम्म पत्ती सावए य, विरए अनंत कम्मं से || दंसण मोहरुखत्रए, उवसामंते य उवसंते ॥२२३॥ खवए य खोणमोहे, जीणे अ सेढी भवे असंखोजा । तद्विवरीओ कालो, संखिजगुणाइ सेढाए || २२४ || सम्यक्त्वनी उत्पत्ति थतां असंख्येय गुणवाळी श्रेणि थाय छे. ते पाछली अडधी गाथावडे बतावेल छे, ते क्रियाने आश्रयी छे. प्रश्नः - केवी रीते असंख्येय गुणवाळी श्रेणि थाय ? उत्तर: – (१) अहीं मिध्यादृष्टि जो जे थोडं ओहूं एवी कोडाकोडी सागरोपमनी स्थितिवाळा ग्रंथिसत्ववाळा छे. तेओ कर्म निर्जराने आश्रयी समान छे, (२) अने धर्म पूछवानो उत्पन्न reली संज्ञाचाळा पूर्वे कलाओथी असंख्येय गुण निर्जरावाळां छे. (३) त्यारपछी पूछवानी इच्छावाळा बनी साधु समीपे जवानी इच्छावाळो असंख्येय गुणे उत्तम जाणवो (४) त्यार पछी गुरुने पूछतां (५) धर्म स्वीकारवानी इच्छा थतां (६) त्यारपछी धर्मक्रिया करतां जे निर्जरा थाय तेना करतां पण प्रथम धर्मक्रिया करनाराने वारे निर्जरा थाय ते असंख्येय गुणी जाणवी, एटलेसुधी सम्यक्त्वनी उत्पत्तिनुं वर्णन कर्यु. त्यार पछी श्रावक (देशविरति ) स्वीकरतो तथा स्वीकारेलो विगेरे उत्तरोत्तर गुण पामेलाने असंख्येयगुणी निर्जरा जाणवी, ए प्रमाणे सर्वविरतिमां पण जाणवुं. नाथी पण पूर्वे सर्व विरति लीवेलानी असंख्येय गुणी निर्जरा जाणवी, मूळमां "अगंतकम्मं से" छे, तेनो अर्थ अनंतानुबंधी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५०१ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आबा० आश्रयी जाणवt, एटले भीम कहेवाथी भीमसेन भामाथी सत्यभामा थाय, ते प्रमाणे छे. मोहनीयकर्मना अनंत भागो छे, तेने खपाववानी इच्छावाळो असंख्येय गुण निर्जरा करनारो जाणो, त्यारपछी क्षपक [क्षय करनारो] जाणवो, त्यारपछी क्षीण अनंतानुबंधी कपायवाळो जाणवो, तेज दर्शनमोहनीयनी त्रण प्रकृतिमां क्रियाना सन्मुखमां उभा रहेल अपवर्गनुं त्रिक जाणवु, त्यार ॥ ५०२॥ पछी सात प्रकृति क्षीण थवाथी उपशमश्रेणिमां चढेलो असंख्येय गुण निर्जरावाळो जाणवो, त्यार पछी उपशांत मोहाळा जाणवो त्यार पछी चारित्रमोहनीयने क्षय करनारी जाणवो, त्यार पछी क्षीणमोहवाळो जावो, अहियां अभिमुख विगेरे त्रण यथासंभव योजना करवी, त्यार पछी भवस्थ केवळी ( जिन) जाणवा त्यारपछी शैलेशी अवस्थावाळो असंख्येय गुण निर्जरावाळो जाणवो तेथी प्रमाणे कर्मनिर्जरा माटे असंख्येय लोक आकाश प्रदेश प्रमाण बनावेल संयम स्थानना मचयथी उत्पन्न थयेल श्रेणि छे; ते उत्तरोत्तर असंख्येय गुणवाळी जाणवी, कारण के उत्तरोत्तर प्रवर्धमान अध्यवसायना कंडकनो स्वीकार छे, [जेम संयम पर्याय 'बधे तेम चारित्रमां आत्मानी निर्मळता बधे. ] hroat तो तेथी विपरीत अयोगी केवळीथी मांडीने प्रतिलोम पणे संख्येय गुणवाळी श्रेणिवडे काळ जाणवो, तेनो अर्थ आ छे, जेटला काळवडे अयोगी केवळी जेटलां कर्म खपावे तेलां कर्म संयोगी केवळी संख्येय गुणाकाळवडे खपावे छे ए प्रमाणे प्रतिलोमपणे जेटला काळमां धर्म पूछवानी इच्छावाळो छे, त्यांसुधी जाणवुं, [नीचला गुणस्थानमां काळ वधारे वाय अने कर्न ओछां खपे.] आ प्रमाणे बतावतां सिद्ध कर्यु के सम्यग्दर्शन पामेलाने तप ज्ञान अने चरण सफळ थाय छे, पण जो कोइ उपाधि (संसारी (वासना) बडे करे तो ते सफळ यतां नथी, ते उपाधि कर छे, ते हवे बताये छे, For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ५०२॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचाण आहार उबहिधूंआ, इड्डिस् य गारवेसु कइतवियं । एमेव वारसविहे, तर्वमि न हु कइ तत्रे समणो ॥ २२५ आहार उपि पूजा अने आम औषधि विगेरे रिद्धि छे, अने आहार उपधि अने पूजा रिद्धि छे, अर्थात् तेवी रिद्धि पूजा मेळवत्रा ज्ञान भणे, अने चारित्र पाळे, तथा ( तेनुं मळवाथी ) त्रण गारवमा बंधाएलो जे क्रिया करे ते कृत्रिम (बनावटी) कवाय सूत्रम् ॥ ५०३॥ ४ छे, जेवीरीते ज्ञान चरणनुं अनुष्ठान आहार विगेरे माटे करे, ते कृत्रिम होवाथी मोक्ष न आपे, ते प्रमाणे वार प्रकरना बाह्य | ॥ ५०३ ॥ अभ्यंतरतम पण जाणवु, अने तेवो संसारी वासना राखनारने श्रमण भाव न होय, अने असाधुनुं अनुष्ठान गुणवाळु न थाय, | तेथी बासना रहित साधुनुं जे सम्यग्दर्शन पूर्वक तप ज्ञान चरण सफळ हे एम सिद्ध घयुं. माटे सम्यग्दर्शनमा यतना करवी, अने तत्वार्थनुं श्रद्धान करते सम्यग्दर्शन छे, अने आ तत्व सघळां कलंकने दूर करीने जेमणे वा पदार्थोंमां सत्ता व्यापी केवलज्ञानने मेळवेलुं छे, तेवा तीर्थंकरे कहां छे तेने हवे अनुक्रमे आवेला सूत्रानुगममां मूत्र बतावे छे. से बेमि जे अईया जे व पडुपन्ना आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सबे एवमाइख्खन्ति एवं भाति एवं पणविंति एवं परुविंति - सव्वे पाणा सव्वे भृया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता नान अज्जावेयवा न परिधित्तवा न परीयावेयवा न उद्दवेयव्त्रा, एस धम्मे सुद्धे निइए समिच लोयं खेयण्णेहिं पवेइए, तंजहा - उट्ठिएसु वा अणुट्टिएस वा उवट्ठिएसु वा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ५०४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अणुवडिए वा उबर दंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा सोबहिएलु वा अणोवहिएसु वा संजो रसुवा असंजोगरएसु वा, तज्रं चेयं तहा चेयं अस्ति चेयं पवुच्चइ (सू० १२६) गौतम (धर्मा) स्वामी कहे छे के:-जे हुं हुं हुं ते हुं पोते तीर्थकरनां कलां वचनना तत्खने जाणीने कहुं हुं, तेथी मारु | वचन मानवा योग्य छ, अथवा बौद्धभतमां मानेलुं क्षणिक दूर करवावडे कछु के, जे में पूर्वे कहां ते हमणां पण मुंज कहुं हूं, पण बीजो कहेतो नथी; अथवा 'से' शब्दनो अर्थ 'ते' थाय छे, एटले जे श्रद्धानमां सम्यक्त्व थाय छे, ते तस्यनेकहुं हुं जेओ पूर्व काळमां थया जे वर्तमानयां है, अने भविष्यमा यशे; ते वधा तीर्थकरो एम कहे छे. वळी पूर्वकाळ अनादी होवाथी अनंता था; अने भविष्यकाळ अनंतो होवाथी अने सर्वदा तीर्थकर होवाथी अनंता थशे अने वर्तमानकाळ आश्रयी जे बखते आ प्ररूपणा थती होय; तेमां नक्की संख्या न होवाथी उत्कृष्ट अथवा जघन्य पदे कहेवाय, तेमां उत्सर्गथी अढी द्वीपनी अंदर एकसोने सीतेर थाय, ते आ प्रमाणे ५- महाविदेहमां एकेक विदेहमां ३२ श्रेणी होवाथी दरेकमां एकेक गणतां १६० थाय, अने ५ भरत ५ ऐरावतना मेळवतां कुल १७० वाय अने जघन्यथी २० धाय ते आ प्रमाणे ५ महा विदेहमां महाविदेहनी अंदर रहेली महा नदीना बने किनारे मळी पूर्व पश्चिम साथे लेतां चार चार होय ते पांचना मळी त्रीश थाय. अने भरत रावतयां तो एकांत सुखम विगेरे आरामां ! अभाव छे, वीजा आचार्य कहे कहे छे, के मेरुना पूर्व अने पश्चिम महाविदेहमां एकेक तीर्थकर होवाथी महाविदेहमां बेज छे, अने For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ५०४ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie कल आचाol ॥५०५॥ तेथी पांच विदेहमा दश थया, तेश्रो एम कहे . के, सत्तरसयमुक्कोस, इअरे दस समयखेतजिणमाणं । चोत्तीस पढमदीवे, अणंतरऽय ते दुगुणा ॥१॥ पूजा सत्कारने योग्य जेओ छे, ते अर्हत कहेवाय छे, तेओ अश्चर्ययुक्त भगवंतो छे. तेश्रोनी संख्या तेमना संबंधां ज्यारे । कोइ प्रश्न पूछे तेनो अर्थ उपर बताचे छे, मूत्रमा वर्तमानकाळनी बात छे, तेथी आ पण जाणवु, के आ प्रमाणे कयुं अने भविष्यमां ॥५०५॥ कहेशे, ए प्रमाणे सामान्यथी तीर्थकरो देव मनुष्यनी परखदामां अर्ध 'मागधी' मां बधा जीवो पोवानी भाषामां समजे तेम तेओ बोले छे, ए प्रमाणे प्रकर्षयी संशय दूर करवा माटे पामे रहेनारा साधु विगेरेने जीव अजीव आसव बन्ध संवर निर्जरा मोक्ष एडा सात पदार्थोने बताचे छे, (एटले जिनेश्वर देव सात पदार्थो वर्णन करे छे) ए प्रमाणे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र जे मोक्ष मार्ग छे, तथा मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योग ए चांच बन्धना हेतुओं छे. स्त्र अने परभाववडे छती अछती वस्तु तत्वने सामान्य वि-४ शेषरुप विगेरेना प्रकारथी बतावे छे, अथवा आ वां पदो एक अर्थवाळां छे, ते तीर्थकरो भुं बतावे छे ते कहे छे. वां पाणीओ एटले पृथ्वी पाणी अग्नि वायु बनस्पति ए एकन्द्रिय छे, तथा वे त्रण चार पांच इन्द्रियोवाळा जीवो छे, तेमने इन्द्रिय ५ बळ ३ उच्छवास निश्वास. १ आयु १९ दश प्राण छे, माणो (संसारी) जीवोने पूर्वे हता हमणां छे, अने भविष्यमा रहेशे, तेथी पाणी कहेवाय छे तथा बीजी रीते चौद मेद जीबोना छे ते भूत ग्राम कहेवाय छे, अने वर्तमानमा बधा जीवो छे, जीवशे, अने पूर्वे जीवता हता, माटे जीव छे ते नारकी लियंच मनुष्य अने देव ए चार गतिवाला छे, तथा वधा ए जीवो पोतान त पदार्थो वर्ग साधु विगेरेने जीवजीवो पोतानी भाषा अने भविष्यमा । कल For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आवा० ॥५०६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करेलां कर्मथी साता असाताना उदययी सुख दुःख भोगवे छे. तेथी सत्य छे, अथवा माण भूत जीव अने सत्व ए बधा एक अर्थवाळा शब्दो छे, कारण के तत्व भेद पर्यायोबडे पदार्थने स्वीकारवानो छे, तेथी करीने उपरना बधा शब्दो माणीना पर्यायवाळा के ते जीवोने दंड चावखा विगेरेथी हणवा नहि; तथा बीजा पासे बळजबरी करीने हणावा नहि; तथा नोकर, दास, दासी विगेरे | उपर ममखभावथी तेमनो संग्रह न करवो; तथा शरीर अने मननी पीड़ा उपजावीने परितापत्रा (संतापत्रा ) नहिः तथा जीव प्राण दूर करवावडे तेने अपद्रावण न कर. आवो जिनेश्वरनो कहेलो दुर्गतिने अटकाववाने भुंगळ समान तथा सुगतिनी पगथी समान धर्म छे, अने ते धर्म पुरुषार्थना प्रधानपणाथी विशेषणो बतावे छे. पापना अनुबन्ध रहित शुद्ध छे, पण बौद्ध तथा ब्राह्मणोथी एकेन्द्रियथी पचेन्द्रिय सुधीना जीवोनी हिंसानी अनुमतिने दुःखरूप-कलंक छे. (एटले, ब्राह्मणो यज्ञ करावे छे, अने बौद्धना साधुओ साधु माटे रांधेलं खाय छे, तेथी बधनी अनुमतिनो दोष लागे छे) तेवो दोष जैनधर्ममां नथी. वळी, पांच महाविदेहने आश्रयी ते निरंतर (नित्य) छे, तथा शाश्वत तथा (मोक्ष गति आपवाथी शाश्वत छे अथवा नित्य होवाथी शाश्वत छे, पण एम न थाय; hore ates प्रथम इने पछी न थाय; अने घटना अभाव माफक प्रथम न थइने नित्य थाय; पण आ धर्म तो त्रणे काळमां शाश्वत छे. बळी, आ जीवसमूहने दुःखसागरमा डुबेल जाणीने तेमांथी पारजवा, जंतुनां दुःख जाणनारा एवा केवळी भगवंतोष बताव्यो छे. आ गौतमस्वामीए पोतानी बुद्धिए न कडेलं बताववानुं कारण शिष्योनी मति स्थिर करवा माटे क के:-आ शुद्ध धर्म जीनेश्वरनेा कहेलो छे. आज सूत्रमां कहेला अर्थने नियुक्तिकार मूत्र-स्पर्शक वे गाथावडे कड़े छे:जे जिणवरा अईया, जे संपइ जे अणागए काले । सव्वेत्रि ते अहिंसं, वर्दिसु वदिर्हिति विवदिति ||२२६|| For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ५०६ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् INE ५०७॥ छप्पिय जीवनिकाए, णोवि हणेगोऽवि अहणाविजा । नोऽवि अअणुमन्निजा, सम्मत्तस्सेस निजुत्ती ॥२२७॥ आचा० आ बझे गाथानो अर्थ सरळ छे तेथी टीका नथी तेथी थोडामां लखिए छिए. जे जिनेश्वरो पूर्व थया वर्तमानमा छे, भने भविष्यमां थशे ते बधाए भूतकाळमां अहिंसा बतावी छे, बतावशे, अने बतावे छे. एटले, छ ए जीवनीकायने हणे नहि, हणावे ॥५०॥ नहिं अने हणनारने अनुमोदे नहि. ए सम्यकत्वनी नियुक्ति छे तीर्थकरनो उपदेश एमना स्वभावथी परोपकारीपणे अपेक्षा विना सूर्य उदय माफक मवर्तलो छे, जेम सूर्य बघाने प्रकाश आपे, तेज प्रमाणे जिनेश्वर बोध आपे, एटले १२६ सूत्रमा बताच्या प्रमाणे धर्म चरण पाळवा माटे उठेला एटले ज्ञान दर्शन चारित्रमा प्रयत्न करनारा अने तेनाथी विपरीत ते धर्ममा उद्यम न करनाराने 15. माटे सर्वज्ञ त्रण जगतना नाथे तेवा तेवा निमित्ताने उद्देशीने धर्म को छे, ए प्रमाणे बधे समजबुं. ____ अथरा उठेला अने न उठेला एटले द्रव्यथी बेठेला अथवा न घेठेला जीवो छे, तेभने विर प्रभुए धर्म कह्यो तेमां ११ गण-४ धरोए उभे उभे धर्म सांभळ्यो, एटले प्रभुना सन्मुख रहीने धर्म सांभळवा अथवा चारित्र ग्रहण करवा तैयार थयेलाने संभळाव्या, ते उपस्थित छे, अने तेथी विपरीत स्थां हाजर न होय ते अन उपस्थित (गेर हाजर) हता, (अहिं निमित्ते मूत्रमा सातमी विभक्ति ! लीधी छे जेमके चामडामां दीपडा मराय छे.) शंका-भावथी आवेला चिलाति पुत्र विगेरेमा धर्म कथा उपयोगी छे, पण गेरहाजर होय तेने धर्म कथा शृंगण करे? उत्तरः-जे गेरहाजर होय तेबाने इंद्र नाग विमेरे माफक कर्मनी परिणति विचित्र होबाथी अथवा क्षय उपशमना मेळववाथी व्वा माटे उठेला एटले पचाने प्रकाश आपे, तेज प्रमाण देश एमना स्वभावथी परोपकारहण नहि, हणावे / सूत्रम् -ॐॐ - % S For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HA आचा० ॥५०८॥ ॥५०॥ वावर गुणकारी याय छ, तेथी तमारी 'शंका' नकामी हे. प्राणीने अथवा आत्माने दुःख दे (दंडे) माटे दंड छे, ते मन वचन कायाए त्रण प्रकारनो छे, एत्रण दंडथी दूरययेला ते । उपरत दंड कडेवाय, ते बघा जीव उपर उपकारनी बुद्धिए उपदेश देवाय, एटले जेमणे दंड तज्यो थे, तेवा मुनिश्री संयममां स्थिरता सूत्रम करे, अने नवा मुणो माप्त करे, अने बीजां दंड न तजेला (ग्रहस्थीओ) ते दंडने तजे, माटे तीर्थकर उपदेश आपे छे, तथा संग्रहकराय ते उपधि छे, ते द्रव्यथी सोनुं विगेरे छे, अने भावथी कपट छे, ते राखनार उपधिवाला छे, ते सोपधिक छे, बाकीना तेथी उलटा अनुपधिक छे, तेओने माटे पण उपदेश छे, संयोग (संबंध) ते पुत्र स्त्री मित्र विगेरे उपर प्रेमनो छे, तेमा Hरक्त थयेला ते संयोगरत कहेवाय, अने तेथी उलटा एकत्व भावना भावनारा मुनि असंयोगरत कहेवाय; ते बनेने पण भगवाने उपदेश आपेल छे, तेथी ते सत्य हे. (च शब्द नियम अर्थ बतावे छे, माटे) भगवाननुं वचन सत्य छे, तेम यथायोग्यपणे वस्तुनो सद्भाव कबाथी ते वाच्य पण छे. ते बतावे छे के, प्रभुए आ प्रमाणे का के:-"सर्वे जीवो हणवा न जोइए" विगेरे. आ प्रमाणे सम्यग्दर्शन श्रदान राखवू; अने ते श्रद्धान-जिनेश्वरनां प्रवचनमां छे. जे सम्यक्मोक्षमार्गने आपनार के. वळी, ते बघाH दंभना प्रबन्धची दुर होवाथी प्रकर्षथी बोलाय छे, (माटे ते प्रवचन.) पण, बीजा मतमा तेबो अहिंसा धर्म बताव्यो नथी. जेमके-४ अन्य मतवाला प्रथम कहे के, सर्व जीवोने न हणवा. ("न हिंस्यात्सव भूतानि") कहीने यड़यां पशुवधनी आज्ञा आपे से. एटले, प्रथमनां वचनने तेमनां पाछळनां वचनथी बाधा लामे छे. (माटे, ते प्रवचन नधी.) आ प्रमाणे सम्यक्त्वनुं स्वरुप कहीने तेनी में प्राप्तिमा भुकर ते बतावे छे. For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ।। ५०९ ।। --- www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तं आइन निहे निक्खिवे जाणित्तु धम्मं जहा तहा, दिद्वेहिं निव्वेयं गच्छिना, नो लोगस्सेसणं चरे (सू०१२७) प्रभु कलां तस्वार्थ उपर श्रद्धा वारुप सम्यग्दर्शन मेळवीने कहेलं कार्य न करवाथी दोष लागे: माटे, तेने गोपवे नहि. ते प्रमाणे संसर्ग विगेरे निमित्तथी मिध्यात्व दूर करीने पण, जीवना सामर्थ्य गुणांने छोडे नहि. ( यथाशक्ति संयम पाळे पण, माद न करे ) अथवा शिवमतना के, बौद्धमतां व्रतो ग्रहण करीने प्रवेश्वरयाग विगेरे छोडीने विधिए गुरु पासे पूर्वे तो स्थापन करीने दीक्षा की देवी नहि. तेज प्रमाणे गुरु विगेरे पासे सम्यक्त्व लइने पार्छु तजे नहि. प्रश्नः - भुं करीने ? उ:- जेवो धर्म छे, तेवो श्रुतचारित्ररूप धर्म समजीने अथवा वस्तुओनो स्वभाव समजीने तेना उपर विश्वास राखे; तथा ते धर्म जाणीने बीजं शुं करे ? ते कहे छे: देखेला सुंदर अने खराब एवां रूपोवडे निर्वेद पामे (वैराग्य मेळवे.) ते आ प्रमाणे:सांभळेला शब्दों, चाखेला रसो, सुंषेला गंधो, फरशेला शुभ अने अशुभ स्पर्शोबडे, रागद्वेष थाय; ते न करतां मध्यस्थ रहे; अने विचारे के, एमां रागद्वेष भुं करवो ? बळी प्राणी समूहनी अन्वेषणा जे इष्ट वस्तुओने लेवानी अने अनिष्ट वस्तुने त्यागवानी: जे बुद्धि छे, तेवा रागद्वेष साधु न करे, जेने आवी सामान्य लोक जेवी एषणा नथी तेने बीजी पण कुबुद्धि नथी, ते बतावे छे. जस्स नत्थि इमा जाई अण्णा तस्स कओ सिया ? दिहं सुयं मयं विष्णायं जं एयं परिकहिज्जइ, समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाई पकति ॥ सू० १२८ ॥ १५ For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥५०९ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie पापा सम ॥५१०॥ ॥१०॥ जे मोक्षाभिलाषी साधुने लोकपणा [संसारी वासना ) नथी तेने बीजी आरंभनी प्रवृत्ति पण होती नथी, अर्थात् जेणे भाग ४ वासना त्यागी, तेने बीजी आरंभ प्रवृत्ति क्याथी होय? एटले माधुने सावध अनुष्टाननी प्रवृत्ति न होय, कारण के सावध प्रवृत्ति ग्रहस्थीनेज होय छे, अथवा हमणांज वतावेली प्रत्यक्ष सम्यक्त्व ज्ञाती जे जीवोने न इणवा संबंधी बतात्री ते दया जेने न होय तेवाने कुमार्ग तजवा ॐ तथा सावध अनुष्ठान छोटवारुप बीजी विवेकनी बुद्धि क्पांथी होय ! (अर्थात् दया सायेज बीजी सुपुद्धि होय छे.) हवे त्रिष्यनी गनि स्थिर करवा कहे, के जे तेने में कथं ते सर्व देवे केवळज्ञान बडे साक्षात देखेलुं छे, ते सेवा करवावडे में सांभळयु, ते लघुकर्मवाळा भव्य जीवोंने मानवा योग्य छ, तथा ज्ञानावरणीय कर्मना क्षय उपशमथी विशेष प्रकारे जाण्यु, माटे विज्ञात हे, तेथी तमारे पण सम्यक्त्व विगेरे में तमने जे का तेमां तमारे यत्न करवी, जेा उपर बतावेल मार्ग न आदरे तेओने अyथाय छे ते कहे थे, ते संसारी मनुष्यो मनुष्य विगेरे जन्ममां अत्यंत मृद बनीने वारंवार 'मनोज्ञ इंद्रियोना' विषयमा वारंवार आनंद मानीने फरी फरीने एकेन्दि वे इन्द्रिय विगेरे जातिमां जन्म ले छे, पण संसारने तरी शकता नथी, जो आ प्रमाणे तत्वने जाणनारा वर्तमान स्वाद लेनारा छे, जन्ममा आनंद माननारा इन्द्रिय विषयमां लीन थयेला वारंवार नबो जन्म विगेरे साधनारा संसारी जीवो होय तो साधुए | करवू ते कहे थे, अहो अराओ य जयमाणे धोरे सया आगयपण्णाणे पमत्ते बहिया पास अप्पमत्ते सया For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सूत्रम् ॥५११॥ R परिकमिजासि तिबेमि (सू० १२९) सम्यक्त्वाध्ययने प्रथमोदेशकः ॥४-१। दिवसे अने रात्रे मोक्ष मार्गमांज यत्न करतो, परिसह उपसर्गमां न डरनारो जे धीर पुरुष , तथा सर्व काळ जेणे सत् असत्नो विवेक स्वीकार्यो छे, तेने गुरु कहे छे, के तुं जो, ममत्त जीवो जे ग्रहस्थो छ, अथवा अन्य मतवाला जेओ धर्मथी बहार रहेला छे, तेमनी दुर्दशा देखीने तेवू दुःख तने न भोगवq पडे माटे तुं सर्वदा निद्रा विकथा विगेरेथी रहित बनी आंख फरकवा मात्र पण प्रमादी न थइश, अने कर्म शत्रुने जीतवामां अथवा मोक्ष मार्गे जवाथी पराक्रमी बनजे, आ प्रमाणे सम्यक्खनु स्वरुप बतावनार चोथा अध्यायनो पहेलो उद्देशो समाप्त थयो. बीजो उद्देशा. पहेला उद्देशा साथे बीजानो आ प्रमाणे संबंध छे, के पहेला उद्देशामा सम्यक्त्ववाद बताव्यो, अने ते तेनो शत्रु मिथ्यावाद छे, ४ तेने दुर करवाथी आत्मा लाभ मेळवे छे, ते दूर करवो ज्ञान विना न थाय, अने विचारणा विना परिज्ञा न थाय, मिथ्यावादथी लं ययेल अन्य तीथिकोना मतनी विचारणा करवा आ कहेवाय छे, आ संबंधी आवेला उद्देशानुं आ पहेलुं मूत्र छे, जे (आसवा) विगेरे के, अने अहिं जे सम्यक्त्व लीधुं ते सात पदार्थोनुं श्रद्धान करवातुं छे, तेमां मोक्षामिलापीए शस्त्रपरिज्ञा नामना पहेला अध्ययनमा जीवाजीव पदार्थना ज्ञानवडे संसार तथा मोक्षनां कारणोनो निर्णय करचो एटले तेमां संसार कारण आसव अने निर्जरा, संसार ला मोक्षना अनुक्रमे कारणो छे, तेनुं सम्यक्स बरोबर विचारवा माटे कहे छे. AICAॐ For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सूत्रम् / ॥५१२॥ जे आलवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा ते आसवा; जे भणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा; एए पए संबुज्झमाणे लोयं च आणाए अभिसमिचा पुढो पवेइयं (सू०१३०) सूत्रमा जे इ.ब्द छे, ते सामान्यथी लीधेल छे, अने जे आरंभोवडे आठ प्रकारनां कर्मनो आश्रय करे छे, ते आत्रको छे, अने जे अनुष्ठानो करवाथी बधी रीते कर्म थाय ते परिसब छे, हवे पूर्वे जे आसवो कर्मबंधनां स्थान बताव्यां, ते पोतेज कर्मनी निर्जरानां कारण थाय छे, तेनो भावार्थ आ छे, के सामान्य बुद्धिवाळाने मोह करावे तेवो फुलनी माळा तथा सुंदर सो सुखकरण वास्ते मानवाथी ते वस्तुओं तेमने कर्मबंधनो हेतु थवाथी आस्रव छे पण तेज वस्तुओ तत्तने जाणनारा विषयसुखथी दर ४ रहेला महात्माओने फुलनी माळा विगेरे नकामी जेबी लागवाथी तथा संसार भ्रमण करावनारी जाणीने ते वस्तुओथी तेने वैराग्य | थाय छे, तेथी का के, जे आत्रब छे ते झानीने परिव एटले निर्जरानुं स्थान छे, वथा बधी वस्तुओर्नु अनेकांतपणुं बतावचा तेथी उलटुं सूत्र कहे छ, जे परिस्रवो के ते आत्रयो थाय छे, एटले अरिहंत साधु तप संयम दशविध चक्रवाळा समाचारी अनुष्ठान विमेरे द्र भव्यात्माने निर्जरानां स्थान ले, तेज उत्तम पदार्थो जेने अशुभ कर्मनो उदय होय तेवा अशुभ अध्यवसायवाला तथा दुर्गतिमा लइ । जाने आगेवान बनेला जंतुने ते उत्तम पदार्थोनी आशातना करवाथी तथा सातारिद्धिरसनो गर्व करवामां तत्पर मनुष्यने ते आस्रवो थाय छ, एटले जेनाथी धर्म प्राप्ति थाय एका तीर्थंकरो पण तेबाने पापर्नु उपादानकारण थाय छे, तेनो परमार्थ 5 आ छे, जेटलां कर्मनी निर्जरा माटे संयम स्थान छे, तेटलांज बंधने माटे असंयमस्थान छे, काले के -स्वरलाल For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा सूत्रम् ॥५१३॥ ॥५१३॥ ॐ*27-3-२४२ यथा प्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासानिर्वाणसुखहेतवः ॥ १ ॥ जेटला प्रकारना जेटला संसारना भ्रमणना हेतुभो छे, तेटलाज तेने विपरीत रीते लेवाथी निर्वाण मुखने आपनारा हेतुओ छे. ए प्रमाणे रागद्वेषयी जेनुं अंतःकरण मलिन छे, अने विषय सुखमां जे तत्पर छे, तेना विचारो दुष्ट होवाथी तेने चधुं संसारने माटे छे, जेम लीमडाना रसमां जो दुध साकर विगेरे मेळवीए तो पण लीमडानी कडवाशथी मीठी वस्तु पण कडवी धाय छे, पण & सम्यगदृष्टि जीव, जेणे संसार समुद्रमांधी नीकळवामाटे विषय अभिलापोदर करेलाने सर्वे मोहक वस्तुओ अशुचिरुप अने दुःखनु कारण छे. एवं भावनारने संवेग थतां ते मोहक वस्तुओ संसार कारण छतां पण मोक्षने माटे थाय छे. वळी तेज विषयने उलटा ( मतिषेध) मूत्र वडे कहे छे. 'जे अणासवा' इत्यादि-प्रसज्य प्रतिषेधना क्रिया प्रतीषेध पर्यवसानपणे 'परिमूव' आ पदवडेसंबंधनो अभाव होवाथी आ पर्युदास छे. ते समजावे छे. एटले आस्रव (संसार कृत्य) थी उलटुं अनाव ते व्रत छे. तो पण ते व्रतो अशुभ कर्मना उदयथी अशुभ अध्यवसाय थतां कर्मने अपरिस्रव (निर्जरा माटे नहीं) थाय, जेमके कोंकण आर्य विगेरेनु चारित्र कर्मनी निर्जरा माटे न थy, तेमज अपरिस्रव जे पापर्नु उपादान कारण छतां कोइ पण मवचन (जैन शासन) ने उपकार विगेरे करवाथी ते अशुभ कृत्यो| ) कणवीर लताने भमडनारा क्षुल्लकनी माफक अनासव एटले कर्मबंधननां कारण थतां नथी. (उपरना मत्रोनो भावार्थ आछे केजे भाषत्र ते बंधन कारण छतां कारण विशेषयी ते, कर्मबंधरुपे नवी यतुं, तेम निर्जरानुं -EAS For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ।। ५९४ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृत्य करवा छतां तेवा संजोगोना अभावेमन परिणाम बदलातां वैधरूपे थाय छे, तेवीरीते कोइने व्रत लोधार्थी अनास्रव थत निर्जरा थवी जोइए, छतां कारण बदलातां ते व्रत बंधनरुपे याय, अने अपरिसूत्र ते बंधनु कारण छतां संजोगो बदलातां बंधरुपे न थाय, माटे एकांत पकड. पण बुद्धि पूर्वक संजोगो तथा मनना परिणाम विचारी अनुमान करयुं, के बोलवू.) अथवा बीजी रीते बतावे छे. जे आसूत्र करे - ते आवो (पच विगेरेमां 'अ' लागे छे, तेज प्रमाणे जे परिस्रव करे ते परिस्रवो (निर्जरक) छे. एनी चोभंगी थाय छे, तेमां मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योगोवडे जेओ कर्मना अस्रवो (बंधको) छे, तेओज बीजाओना परिस्रवो (निर्जरा करनारा ) हे आ प्रथम भांगामां पडेला बधा संसारी जीवो चार गतिमां भ्रमण करनारा छे. ते दरेकने प्रत्येक क्षणे आसूत्र तथा निर्जरा हे पण जेओ आसूत्र करे तेओ परिसूत्र न करे, आ बीजां भांगो शून्य छे कारणके, बंधनी जोडे निर्जरा (थोडेघणे अंशे) हमेशां चालुन छे. एप्रमाणे जे नावाळा छे, तेओ परिस्ववाळा छे, एटले, तेओ अयोगी केवळी १४ गुणस्थानमा रहेला त्रीजा भागमां हे, अने चोथा भागमां सिद्ध भगवंतो छे, तेओमां अनावपणुं छे, तेम अपरिसवपणुं पण छे, एमा पहेलो अने हेल्लो भांगो सूत्रमा लीवेल छे. अने पहेलो हेल्लो लेवाथी मध्यना वे भांगा साथै रहेवाथी आवीगयला जाणवा. जो, एम छे, तो शुं कर ते कहे छे: उपर कहेला पदो (जेनाथी अर्थ समजाय ते पद छे ते) आसूत्रो विगेरे छे, (अने बीजानो अर्थ समजावा माटे शब्दना प्रयोगथी जे पदो अने अर्थ कहेवा जोग छे) ते मने योग्यरीते समजवावडे समजेलो साधु विचारे के, दुनियाना जीवो आसूत्रद्वार For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५९४ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५१५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वडे आवेलां कर्मवडे बंधाय छे, तथा तप अने चारित्र विगेरेथी कर्मोथी मुकाय हे. आनुं तीर्थंकरना कहेला आगमने अनुसारे जे आज्ञामा रहे; अने वर्ते ते काय. एवं जाणीने कर्मथी छुटवा जुडुं बतावेल आसव, तथा परिसूव समजीने क्यों माणस धर्मचारित्रमां उद्यम न करे ? केवीरीते कल छे, ते बतावे छे. आसव छे, ते ज्ञानना प्रत्यनीकपणाथी एटले, ज्ञान भणावनारना गुण झुलवा. भणतां अंतराय करवी; ज्ञान उपर द्वेष करवो; ज्ञाननी अतिशय आवाशना करवी ज्ञानने सम्यक्मकारे न बताववाथी ज्ञानावरणीयकर्म बंधाय छे, तेज प्रमाणे दर्शनना शत्रुपणाथी ज्ञानमालांनी माफक दर्शनमां विघ्न करवाथी एटले, दर्शनने सम्यक्प्रकारे न बतावसुं त्यां सुधीना दोषो लगाडवाथी | दर्शनावरणीयकर्म बंधाय छे. तेज प्रमाणे प्राणीओतुं तथा भूतोनुं तथा जीवोनुं तथा सत्वनुं भलं चाही दुःख न आपनाथी शोक कारण न आपवाथी तथा न झुरव्याथी तथा पीड़ा न आपवाथी तथा न संतापवाथी (अर्थात् निर्मल चारित्र वढे सर्वे जीवाने अभ यदान आपवाथी) सातावेदनीय कर्म बंधाय छे, एथी उलडं एटले जीवोने असंयम बडे दुःख आपनाथी असातावेदनीयकर्म बन्धाय छे, तेज प्रमाणे अनंतानुबन्धीना उत्कृष्टपणाची तीव्रदर्शन मोहनीयपणे तथा प्रबळ चारित्रमोहनीयना सद्भावधी मोहनीय कर्म बन्धाय छे, महान आरंभवी तथा घणा परिग्रध्थी पंचेन्द्रियना बन्धथी मांसना खावाथी नरकनुं आयु वधाय छे, तथा मायावीपणे जु| उना कारणे तथा खोटा तोल माप करवायी जीव तिर्यचनुं आयु बांधे छे. स्वभावे विनयवान तथा सानुक्रोप लज्जालुपणाथी, तथा अदेखाइ न करवाथी मनुष्यनुं आयु बांधे छे, तथा सराग - संयमथी देशविरति (श्रावकनाव्रत ) तथा बाळतपस्यथी अने अकाम निर्जराथी देवनुं आयु बन्धाय छे, अने कार्यमां सरळ, तथा कोमल वचन योग्यरीते बोलवाथी शुभ नाम बन्धाय छे. अने तेथी उलटा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५१५॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ।।५१६।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्गुणोथी अशुभ नाम बन्धाय छे. जाति, कुळ बळरूप तप, विद्या लाभ अश्वर्यनो मद न करवाथी ऊंचगोत्र वन्धाय छे, अने जाति विगेरेनो मद करवाथी, तथा पारकानी निंदा करवाथी नीचगोत्र बन्धाय छे, दान, लाभ भोग-उपभोग, अने वीर्य ए पांचना अंतराय करवाथी अंतरायकर्म बन्धाय छे. आज उपर कहेला आस्रवो छे, हवे परिस्रवोतुं स्वरूप बतावे : raat fat बाह्य अने अभ्यंतर तप ते कर्मनी निर्जरा करनार परिस्ात्र छे. आ प्रमाणे आवर करनार अने निर्जरा करनार मेदोसहित जीवो बताया छे, ते बघा जीव विगेरे सात पदार्थो मोक्ष सुधी छे ते जाणवा. आ पदार्थोंने तीर्थकर तथा गणधर भगवन्तोए लोकोत्तर ज्ञानवडे जाणीने जुदा जुदा बतावेल छे, अने तेज प्रमाणे तेमनी आज्ञामां वर्तनार बीजो कोइपण साधु चौद पूर्व विगेरेनुं ज्ञान धरावनार जीवोनां हितने माटे बीजाभोने पण उपदेश आपे छे, ते बतावे छे: आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णानं संबुज्झमाणानं विन्नाणपत्ताणं, अट्टावि संता अदुवा पत्ता अहा सञ्चमिणं तिबेमि, नाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि इच्छा पणीय। कानिया कालगहिया निचयनिविद्या पुढो पुढो जाई पकप्पयंति ( सू० १३१ ) वा पदार्थोंने बतावनार ज्ञान छे. ते ज्ञान ने होय; ते ज्ञानी कडेवाय, ते ज्ञानी प्रवचनमां मनुष्योने उपदेश करे छे. मनुष्य लेवानुं कारण एछे के, पचेन्द्रिय सांभळे समजे तो पण, तेओ संपूर्ण चारित्र तथा संवर लइ शके नहिः अने देवता विगेरे सांभळे, पण आदरी शके नहि वळी, केवळीने उपदेशनी जरुर नथी; माटे संसारमा रहेलां घातीकर्मवशळां जीवोने आ उपदेश अपाय छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ५९६ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५१५७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विळी, जेओ धर्मने भविष्यमां समजशे अने स्वीकारशे, जेम मुनिसुव्रतस्वामी तीर्थंकरनो अने घोडानो दृष्टांत छे, तेवाओने धर्म संभळावाय, अने ते समजेला होय एटले जेओने आगळ कहेतां छद्मस्त साधुने खबर न पडे माटे केवा जीवोने कहेतुं ते कहे छे. विज्ञान प्राप्त पटले हितनी प्राप्ति अने अति छोडवानो विचार करवानुं जेने ज्ञान होय, तथा वधी पर्याप्तिभथी पर्याप्त एटले संज्ञी होत्रा जोइए. आ संबंधमां नागार्जुनीया कहे छे. " आघाइ धम्मं खलु से जीवाणं तं जहा संसारपडिवन्नाणं माणुसभवत्थाणं आरंभ विणईणं दुक्खुवे असुहे गाणं धम्मस्सत्रण गवेसयाणं सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विष्णाण पत्ताणं" संसारमा रहेला मनुष्य जन्ममां आवेला पण आरंभथी विरमेला दुःखनी उपेक्षा करनारा सुखने वांछनारा होय छतां पण तेओ धर्म सांभळवानी इच्छा करता होय, गुरुनी उपासना करता होय, धर्मना विषयने पुछता होय अने समजवानी शक्तिवाला होय (आ सूत्र सरळ होवाथी टीका नथी परंतु आरंभ त्रिनयनो अर्थ आरंभी दूर होय) तेओने ज्ञानी साधु धर्म बतावे छे, ते कहे छे. 'अहावि' विगेरे एटले विज्ञानने प्राप्त थलाने धर्मने कहेतां कांइ पण निमित्तथी आर्तध्यानवाळा चिलाति पुत्रीनी माफक होय तो पण धर्म पामे, अथवा विषयना अभिलाषथी शालिभद्र माफक प्रमत्त होय छतां पण तेवा कर्मना क्षय उपशमश्री जेवो धर्म स्वीकारे छे, ते कहे छे अथवा आर्त दुःखीओ अने प्रमत्त सुखीओ तेओ पण धर्म पामे छे तो बीजाओनुं भुं कहें ? ( अर्थात् धर्म पामे छे ) अथवा रागद्वेपना उदयथी आर्त तथा विषयोथी प्रमत्त छे. तेओ जैनेतर अथवा गृहस्थ संसारकांतारमा पेठेला केवी रीते तत्वने For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५१७॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५१८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाणेला करुणायोग्य रागद्वेष विषयमा अभिलापने जडमूलथी उखेडवाने केम समर्थ न थाय, आ वातने बीजी रीते न माने, तेथी बतावे छे 'अहासच्च' विगेरे. आजे में कछु अने कहेवाय छे, ते सत्य छे, एवं हुं हुं हुं के जेवी रीते सम्पक्तत्व अथवा चारित्रनो | परिणाम जे दुर्लभ छे, ते पामीने प्रमाद न करवों, शिष्य कहे छे ठीक पण शुं आधार लइने प्रमाद न करवो ! ते कहे छे, 'नाणा गमो' विगेरे, एटले कोइ पण वखत संसारमा रहेलो जीव मृत्युना मोढामां न आवे एवं नयी, कहां के के:वद यदीह कश्चिदनुसंतत सुखपरिभोगलालितः । प्रयत्नशतपरोऽपि विगतव्यथमायुरवाप्तवान्नरः कोड माणस पूछे के बोलो, के अहीं भा रोज सुखनां परिभोगथी लाड लडावेलो भने सेकडो प्रयत्न करीने राखेलो पण बगर व्यथाना आवाळी माणस कोइ पण के के ? (नथी) न खलु नरः सुरौघसिद्धा सुरकिन्नर नायकोऽपि यः । सोऽपि कृतान्तदन्त कुलिशाक्रमेण कुशितो न नश्यति ॥ देवताओना समूह ने सिद्ध विद्यावालो तथा असुरकिन्नरनो नायक पण अथवा मनुष्य पण एत्रो कोइ नथी, के जे पुरुष जमना दांतरुपी वज्रना आक्रमणयी क्रश करेलो ते न नाश पाये ? बळी मृत्युना मोदामां गयेलो जे कोइ छे, नेने बचावचानो कोइ पण उपाय नथी कं छे, के नाशी जाय, नमी पढे, चाल्यो जाय विस्तार करे अथवा रसायम क्रिया करे अने मोटां व्रत करे जे वधारे बीकण छे, ते गुफामां पण पेसे, तप करे, मापसर वाय. मंत्र साधन करे तो पण जमना दांवरूप यंत्री कातरमां ते कपाइने चीराय छे ! अने जेओ विषय कसायना अभिलाषयी प्रमद बनेला धर्मने नथी जाणता तेओनी शुं दशा धाय छे, ते कई छे, इंद्रियो तथा मनना For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥५९८॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ५१९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषयने अनुकूल मवृत्ति (इच्छा) प्रमाणे अहीं विषयना सन्मुख जेमां कर्मनो बन्ध छे, ते तरफ अथवा संसारना सन्मुख प्रकर्षपणे जेओ गएला छे ते इच्छा प्रणीत छे. जेओ तेवा छे. सेओ वंकनी अथवा असंयमनी जे मर्यादा छे, तेनो आश्रय लीला ते कानिकेत छे, अथवा जेमनुं वांकु निकेत छे, नेवा छे, (व्याकरणना नियमथी मूत्रमांकनों काथयेल हे.) अने जेओए असंयमनी मर्यादा (हद) लीपी ले, ते काल (मोत)थी, घेराता कर्मनां उपादान कारण जे सावध कर्मनां अनुष्ठान छे, तेमां रक्त बनीने वारं वार एकेन्द्रिय जाति विगेरेमां नवां नवां जन्म मरण भोगवे छे, अथवा काल ग्रहितनो बीजो अर्थ एम लेवो के केवलाक जीवो एम चितवे के धर्म करीभुं, चारित्र लइथं, एवी आशाथी बेसी रहे, (अथवा आ हिताग्निना व्याकरणना प्रयोगयी अथवा आर्य वचन प्रमाणे परनिपात करतां ) गृहितकाल शब्द लेतां, केटलाक एवं इच्छे के पाछली वयमां के सरगना अंत समयमा अथवा पुत्र रा पी धर्म कर्थ, हमणा नहि, एवी उमेद राखनारा सावय आरंभमां रक्त बनी इच्छा प्रमाणे वक्र असंयममा रहने भविष्यने भरोसे रहने धर्म करवानुं राखी वर्तमानमा पाप रक्त वनी पृथक पृथक (जुदी जुदी) एकेन्द्रिय जाति विगेरेमां जन्म-मरण करे छ. बीजी प्रतिमां 'एत्थ मोहे पुणो पुणो' पाठ हे, तेनो अर्थ आ छे, के उपर कहेली ने इच्छा एटले, इंद्रियोने अनुकूल कर्मरूप-मोहमांडला वारंवार एव पाप करे छे के, तेनी संसारथी अमच्युति (नमुक्ति ) थाय, संसारभ्रमण कर्याज करे; तेथी शुं थाय ते बतावे : | इहमेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवइ, अहोचवाइए फासे पडिसंत्रेयंति, चिद्वं कम्मेहिं कुरेहिं चिट्ट परिचिहड़, अचि कूरेहिं कस्मेहिं नो निद्धं परिचि, एगे क्यंति अदुवावि नाणा नाणी वयंति अदुवावि एगे (सू० १३२) For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५१९॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५२०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इह (आ) चौद राजलोकमामणवाळा संसारमा केटलाक मिथ्याल, अविरति प्रमाद, अने कपायरुपदुर्गुणवाळां संसारी जीवोने ॥४ ( तेमनां पापनां फळ) ते ते नरक तिर्यंच गति विगेरे पीडाना स्थानमा वारंवार जवाथी संस्तव (परिचय) थाय छे, एटले, पूर्वनां सूत्रमां का प्रमाणे तेओ इच्छाने अनुसार तो बनावी इन्द्रियोने वश थइ तेने अनुकूल आचारीने नरक विगेरे स्थानमा गयेला छतां पण जैनेतर अथवा जैनमतना पासत्या (स्वेच्छाचारी) साधुओं औदेशिक विगेरे दोषित आहारने निर्दोष बताना नरक विगेरेना दुःखना अनुभवो (स्पर्शने) भांगवे छे, (ते इन्द्रियोथी सौथी वधारे परवश बनेला ) नास्तिकनुं मानतुं बताने के:रिव खाद च चारुलोचने !, यदतीतं वरगात्रि तन्न ते । नहि भीरु ! गतं निवर्त्तते, समुदायमात्रमिदं कलेवरम् ॥ 1 ते मतनो नायक ब्रहस्पति पोतानी विधवा बनने कुमार्गे दोरवा कहे छे केः " हे सुंदर लोचनवाळी ! इच्छत पी, खा. हे सुंदर शरीरवाळी ! जे गयुं ते वारुं नथी ! हे बीकण ! गयेलुं पार्छु आवतुं नथी ! आ परमाणुओंना समुह मात्र शरीरनुं खोखुं छे. ( अर्थात् जे शरीरवडे धर्म साधवानी छे, तेना वडे भोगोमांज रक्त थवानुं बतायुंः अने तेनी भोळी बेनने विवेक न होवाथी सेना फांसायां फसी, अने तेमनां अधम आचरणोथी अनेक जीवांने कुमार्गे दोरवानुं स्थान मथुं . ) वैशेषिकमत थोडं वर्तन दूषणरूप छे, ते बतावे छे, के वैशेषिक मतवाला पण सावथ योगना आरंभीओ छे, तेओ बोले छे के, अभिषेचन ( स्नान) उपवास ब्रह्मचर्य गुरुकुलवास, वानप्रस्थ (वनवास) यज्ञ करवो, दान देवुं, मोक्षण (प्रोक्षण) दिग् नक्षेत्र मंत्र काळ नियम विगेरे के (आ वाचतोमां स्नान यज्ञ विगेरे एकेन्द्रि विगेरेने पीडाकारक छे तेज प्रमाणे बीजा मतवाळाओ जे सावध अनुष्ठान के ते एवी रीते बताव For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ५२० ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie प्रश्न:-कदाच एम पण होय, परंतु वधाए तेवा इच्छापणीत विगेरेथी दुर्गतिमा जइ दुःखनो स्पर्श भोगवनारा छे के कोइकज आचा०तेने योग्य कर्म करनारो दुःख भोगवे छे? ते बतावे छे. सूत्रम् उत्तरः-वधा नहीं, पण जे अत्यंत क्रुर वधबंधन विगेरेनी क्रिया वडेज (चीकणा कर्म बांधी) वैतरणी तरण असिपत्र वनपत्र । २१॥ पडवानी तथा शाल्मली वृक्ष आलिंगन विगेरेथी थएल नरकनी भयंकर वेदनानी विरुप दशाने भोगवतो सातमी विगेरे नरकमा बसे1॥५२१॥ छे, पण जे अत्यंत हिंसाबाळा कर्मो न करे ते घणी पीडाबाळां नरकोमा उत्पन्न थतो नथी, ठीक, एम हशे, पण आबु कोण कहे 15 छे, 'एगे चयंती' त्यादि चौद पूर्वी विगेरे मुनिओ कहे छे, अथवा जेने सकळ (वधा) पदार्थोनुं बतावनाएं ज्ञान छे, ते ज्ञानी बोले | तथा जेवू दिव्यज्ञानी केवळी बोले छे तेमज श्रुत केवळी बोले छे, तथा जे श्रुत (ज्ञान वाळा) केवळी बोले छे, तेज निरावरण A केवळज्ञानी बोले छे, (ते प्रत्यागत सूत्रवडे जाणवू के) 'नाणी' विगेरे-ज्ञानी केवळी जे बोले छे तेवु श्रुत केवळी यथार्थ बोलता। से होवाथी ते एकज छे, कारण के केवळी प्रभुने दरेक पदार्थ साक्षात् देखाय छे, अने श्रुत केवळी तेमना उपदेश प्रमाणे वर्ते छे. र तेथी बोलवामां पण एक वाक्यता (सरखापर्यु) छे; ते कहे थे, तथा वादीओनो विवाद तथा तेमनुं समाधान करे .. आवंती केयावती लोयंसि समणा य माहणा य पुढी विवायं वयंति, से दिहं च णे सुयं च णे मयं च णे विण्णायं च णे उडूढं अहं तिरिय दिसासु सम्बओ सुपडिलेहियं च णे-सव्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे भूया सव्वे सत्ता हन्तव्वा अजावेयव्वा परियावेयव्या परिघेत्तवा SEXSHRES For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५२२॥ --- 16 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्देवयन्वा, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो अणारियवयणमेयं, तत्थ जे आरिआ ते एवं वयासी-से दुद्दिद्धं च भे दुस्सुयं च भे दुम्मयं च भे दुब्विण्णायं च भे उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वओ दुप्पडिलेहियं च भे, जं णं तुब्भे एवं आइक्खह एवं भासह एवं पण्णवेह - सव्वे पाणा ४ तव्वा ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो, अणारियवयणमेयं वयं पुण एवमाइक्वामो एवं भासामो एवं परुवेमो एवं पण्णवेमो- सव्वे पाणा ४ न हंतव्वा १ न अज्जावेयवा २ न परिधित्तवा ३ न परियावेयवा ४ न उदवेयवा ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो, आयरियarmy निकाय समयं पत्तेयं पत्तेयं पुच्छिस्सामि, हंभो पचाइया! किं भे सायं दुखं असावं? समिया पविणे यात्रि एवं बूया-सवेसिं पाणा सव्वेसिं भृयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुखखं तिबेमि (सू० १३३ ) ॥ चतुर्थाध्ययने द्वितीय उद्देशकः ४-२ ॥ 'आवन्ती' जेटला 'के आवन्ती' केटलाक मनुष्य लोकमां जैनतर साधु, तथा ब्राह्मणो जुदुं जुदुं विवादरूपे बोले छे, अर्थात् For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५२२॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् केटलाक अन्यदर्शनीओ परलोकने बतायवानी इच्छावाला पोताना मंतव्यना प्रेमथी बीजान मंतव्य जुटुं ठरावया विवाद करे छे, आचा० जेमके भागवत मतना लोको कहेले के पचोस (२५) तखना ज्ञानथी मोक्ष थाय छे. आत्मा सर्वव्यापि छे, गुण रहित छे, चेतन्य 51 लक्षणवालो हे, अने विशेष रहित सामान्य तत्व छे, तथा वैशेषिक मतवाला कहे छे, द्रव्य विगेरे छ पदार्थना परिज्ञानथी मोक्ष छे, समवायिज्ञान गुणवडे इच्छा प्रयत्न द्वेष विगेरे गुणोथी गुणवान् आत्मा छे, परस्पर निरपेक्ष सामान्य विशेषरुप तत्व छ, शाक्य Pin५२३॥ मतवाला कहे छे, परलोकमा जनार आत्मान नथी, निश्चययी सामान्य क्षणिक वस्तु छे, मीमांसक कहे छे, के मोक्ष तथा सर्वज्ञनो | अभाव हे, तथा केटलाक मतमा पृथ्वी विगेरे एकेन्द्रिय जोबो नबी, बीजा केटलाक वनस्पतिमां पण अचेतनपणुं माने छे, तथा है। केटलाक बेयेन्द्रि विगेरे कृमी विगेरेमा जंतुपणुं मानता नथी, अथवा जीवपणुं मानवा छतां तेना वधमां बंध मानता नथी, अथवा अल्प मात्र बंध माने छे, तथा हिंसामा पण भिन्न वाक्यपणुं छे, ते कहे : प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तद्रताचेष्टा । प्रागैश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापद्यते हिंसा ॥ जीव जीवतुं ज्ञान, घात करनारन चित्त, अने तेमा रहेलीचेष्टा पाणा साये वियोग, आ प्रमाणे पापने जाणवादी हिंसा थाय। ४) छे. तथा औदेशिकना परिभोगनी आज्ञा आश्वा विगेरेनी जे विरुद्ध वात छे, ते पोतानी मेळे विचारवू, प्र-ते ब्राह्मण तथा श्रमणो Hधर्म विरुद्ध जे बोले छे, ते सूत्र वडेज बतावे के, ___ अन्य दर्शनीन कहेचु आछे के:-( से दिलं चेण इत्यादि' थी लइने ‘नस्थित्य दोसोत्ति,') दिव्यज्ञानवडे अमे अथवा, | For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमारा धर्मना नायको, (नीर्थकरो) शान रचनाराए साक्षात् जोय छे. अथवा, अमारा मोटा गुरु पासेथी अमे बथा अपारा वरगुरु आचा०४ पासेथी गुरुए सांभळ्यु के. अथवा ते धर्मनायकनी पासे सेवामा रहेनारा शिष्योए एम मान्यु के. अथवा तेमने आ युक्तिए युक्त सूत्रम् 13 होवाथी मान्य छे. अथवा अमोने अधवा, अमारा धर्मनायकने आ जाणीतुं थे, ते तत्व भेदना पर्यायोबडे अमोए अथवा, अमारा ] ॥५२४॥ Aधर्मनायके पारकाना उपदेश्यी नहि; पण, स्वयं जाणेलुं छे के, उपर नीचे तथा, चार दिना, चार खुणा मळी दशे दिशामां तथा, ॥५२४॥ 15वां प्रमाणो ते, प्रत्यक्ष अनुमान ऊपमान आगम अर्थापत्ति विगेरेची वथा, मनना निश्चयथी अमे तथा अमारा गुरुए विचारी लीधुं 51 छे के:-सर्वे माणो, सर्वे जीवो, सर्वे भूतो, सर्वे सत्वो हणवा, हणावत्रा; संग्रह करवा; संतापया; दुःखी करवा तेमां कई दोष नयी । मतेम धर्मकार्यमां पण समजवु के, याग या करवामा अथवा, देवताने बनिदान आपयामां पाणी हणाय; तो, पापनो वंध नथी. आ|| प्रमाणे, केटलाक जैनेतर सन्यासीओ तथा पोताने माटे रसोइ बनावेली जमनारा ब्राह्मणो धर्म विरुद्ध तथा, परलोकविरुद्ध बोले . आ ममाणे, तेमनुं बोलवू जीबहिसार्नु होचायी पापना अनुबंधवाळ बचन अनार्यमणीत (रचेलु) छे, पण जेओ तेवा हिंसक इन्द्रिय मिय नयी. तेवाओ कहे ? ते बतादे छे. MH (तत्र वाक्यनी शरुआत करवा अथवा निर्धारण माटे के.) जेओ देश भाषा तथा चारित्र बडे आर्य (उत्तम गुणवाळा), तेओ एम कहे छे, के अन्य मतवालाए जे कछु ते तेमणे खराब रीते देखेखें छे, अर्थात् तमोए अथवा तपारा गुरु तथा धर्मना हा नायकोए जीव हिंसानी पुष्टि करो तेथी नीचला दोषो तमने लागु पडे छे. (णं वाक्यालंकारमा छे) वळी तमे पाग अथवा देवताना बलिदानमा हिंसाने निर्दोष मानो छो, परंतु आर्य पुरुषो तेमां पण दोष माने के. एवं बताबीने हवे आर्य पुरुषो पोतानो मत स्था For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् IPापन करे ले अने कहे छे, असे आयु कहीए छीए, अने प्ररुपणा करीए छीए केः-वधा प्राण, जीव, भूत, सत्व ए चारे शरीरधारी आचा० | जीवो छे, तेमने हणवा नहि, हुकम चलाववो नहि, संग्रह करवो नहि, संतापवा नहि, पीडा आपली नहि, उपद्रव करवा नहि. अ-18 होआज दोष नथी. (अर्थात् कोइपण जीवने कोइ पण रीते पीडा न आफ्नारं संयमज निर्दोष छे,) आ आर्य पुरुषोनुं वचन छे. ॥५२५॥ आवं कहेवाथी हिंसा पिय जैनेतर कहे छे, के अमने तमारु वचन अनार्य लागे छे.. An५२५॥ प्र जैनाचार्य:-तमा कहेवू तमारा एक दिलचाळा मित्रोज स्वीकारी शकशे. कारण के ते युक्ति रहित छे. तेने माटेज फरी16 कहे छे, के पोतानी वारु (वाणी) रुप यंत्र बडे बंधायला वादीयो पोतानी कुवाणीथी पाछा नहि फरे. ( आग्रह पकडी राखशे) तेवा वादी (जैनेतर) ने तेमना मानेला आगमनी व्यवस्था करीने तेनुं विरुप (अनुचित) पणुं बतावचा बडे जैनाचार्य प्रश्न पूछे । छ, अथवा प्रथम प्रश्न करनारा दरेक वादीओने व्यवस्थापीने जैनाचार्य तरफी प्रश्न पूछाय छे के-बोलो! वाद करनारा जैनेतर • बंधुओ तमने साता (मुख ) मनने आनंद उपजावनारा छे, के दुःख ? जो एम कहे के सुख बहाल छे, तो तमारा आगम (सिद्धांत) ने प्रत्यक्ष तथा लोकना मानवा प्रमाणे वाधा थशे. ( तमारो सिद्धांत खोटो थशे.) कदी तेओं लुच्चाइथी जुटुं कहे के अपने दुःख प्रिय छे, तो तेवा वादीओने पोतानी वाक् जालमां बंधायलाने आ प्रमाणे कहेवू, के तमने जेम दुःख प्रिय छे तेम सर्वे प्राणी मात्रने । el दुःख प्रिय नथी, पण अप्रिय छे, अशांतिकर छे, महा भयरुप छे. छतां हठ ग्रहीने ते न माने तो कहेवू, के तमारं बोलवू सत्य । ६ क्यारे थाय, के ते प्रमाणरुप बने, पण तेवु प्रमाण मळ, दुर्लभ छे के मुखने बदले दुःख कोइ पण प्रिय माने! माटे तमारे अथवा न दरेक मोक्षामिलापी के सुखना अभिलापीए कोइपण जीवोने हणवा नहि, पीडबा नहिं तथा केदमां नाखवा नहिं विगेरे जाणवू. ते । For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० . ॥५२६॥ इणवामा दोष छे, छत्ता हणवामां दोष नथी. एवं मानवु ते अनार्य वचन छे. (इति शब्द समाप्ति माटे छे) आQ सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे. उपर बताव्या प्रमाणे ते वादीओने तेमना वचनयंत्रवडेज चांधीने तेमनी अनार्यता बतावी. आ संबंधमां रोह- सूत्रम् | गुप्त मंत्री जेणे जैनागमनुं तख सारी रीते जाण्यु छे तेणे मध्यस्थपणुं धारण करीने तमाम मतबाळानी परिक्षा करवा बडे जेम निराकरण कर्य ते नियुक्तिकार गाथाओ बडे कहे छे. । ॥५२६॥ खुड्डग पायसमासं, धम्म कहपि य अजंपमाणेणं। छन्त्रेण अन्नलिंगी, परिच्छिया रोहगुत्तेण ॥ २२७॥ H आ गाथा बडे संक्षेपथी क्षुल्लकनुं दृष्टांत का छे, गाथाना पदना संक्षेपवडे राजसभामां बधा बादीनी धर्मकथा मगट सांभळीने रोहगुप्त मंत्रीए वादीओनी परीक्षा करी. आ गाथानो वधारे खुलासो नीचेनी कथाथी जाणवो. ते कहे छे के चंपानगरीमा सिंहसेन राजनो मंत्री रोहगुप्त महामंत्री हतो ते जिनेश्वरना मंतव्यमा निर्मळ हृदयवाळो बनीने सत् असत्वादना विचारनी चर्चा पूछतो हनो, ते समये जे जेने इच्छित ते तेणे सारं कड्यु, ते समये चुप बेठेला मंत्रीने राजाए कडं, धर्म विचारो जणाववामां तमे कांड केम बोलता नथी? । मंत्री बोल्यो:-आ वादीओना स्वपक्षना आग्रहवाळां वचनोवडे मुं लाभ थाय? माटे आपणे विचार करीए, पोतानी मेळे धर्म परीक्षा करीए. आ प्रमाणे बघा वादीओने शांतिनुं वचन कहीने राजानी आज्ञा लइने नीचलं एक पद बनावी नगरमां लटकाव्यु. । है सकुंडलं वा वयणं नवति, आ गाथाना वीजां प्रण पद मेळवी आखी गाथाभंडारमा राजा पासे मुकावी. पछी जाहेर दांडी | पीटावी कई के आ पद सिवाय त्रण पद नवां बनावीने राजा पासे जे गुरु लावशे, तेने राजा मों माग्या दान आपशे, तथा तेनो For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५२७॥ %%% www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भक्त वनशे आ गायाना पदने सर्वे वादीओ पोताने घेर लइ गया. सातमे दिवसे राजाना सभामंडपमां सर्वे वादीओ आव्या मां परिवाड (परिवाजक) बोल्यो. भिक्खं पविद्वेण मएज दिहं, पमयामुहं कमलविसालनेत्तं । वक्खित्तचित्तेण न सुहु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २२८ ॥ भिक्षामा प्रवेश करेला में आजे प्रमदा (युवान स्त्री) नुं मोढुं जोयुं जेमां कमळ सरखां नेत्र हतां पण मारुं व्याक्षिप्त चित्त होवाथी मने बरोबर खबर न पडी, के तेना मोदामां (कानमां) कुंडल हतां के नहि ( आ गाथानो अर्थ सुगम छे परंतु कुंडल इतुं के नहि तेनी शंका रहेवानुं कारण फक्त तेणे चित्तनो व्याक्षेप बताव्यो. ) आ वादीमां वीतराग (त्याग) दशा न जोवाथी, तथा पूर्वे आपली गाथा प्रमाणे अर्थ न मळवावी, तिरस्कार करीने राजाए रस्तो पकडाव्यो, पछी वापस बोल्यो: फलोदएण मि हिं पविडो, तत्थासणत्था पमया मि दिट्ठा। वक्खित्तचित्तेण न सुहु नायं, सकुडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २२९ ॥ फलना उदय बडे हु घरमा पेठो, त्यां आसन उपर स्त्री वेठेली हती, पण व्याक्षिप्त चित्तथी में बराबर निर्णय न कर्यो, के ते खीना कानमां कुंडल ले के नहि. ? ( आमां पण वैराग्य न होवाथी तेने रजा आपी.) पछी बौद्ध अनुयायी बोल्यो: मालाविहारंमि मएज दिहा, उवासिया कंत्रणभुसियंगी । वक्वित्तचित्तेण न सुहु नायं, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५२७॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥५२८॥ ॥५२८॥ सकुंडलं वा क्यणं न वत्ति ।। २३०॥ मालना विहारमा में आजे एक उपासिका (ते मतने माननारी वी) जोइ, ते सुवर्णना भूषणे भूषित हती. पण व्याक्षिप्त चित्त वडे में न जोयु, के कानमां कुंडळ छे के नहि.? ____ आ प्रमाणे बीजा तीर्थीओ ( वादीओ) ए पोतानु कही बतायु पण कोइ जैन साधु न आव्यो, त्यारे राजाए कयुं के तेने में बोलावी लावो. तेथी मंत्रीए एक नानो साधु हतो पण तेने वैराग्य दशाए परिणमेलो जाणी गोचरीमा आवेलो इतो, तेने प्रत्युप (उगता प्रभात) नी माफक राजा आगळ आण्यो तेथी राजाए ते चोथा पदने आपी उत्तर मागतां क्षुल्लक साधुए कह्यु, खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स। किं मज्झ एएण विचिंतएणं! सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २३१ ।। क्षमा धारण करनारा, काम दमन करनारा. इन्द्रिओने जीतनारा अने अध्यात्ममां रक्त एवा मारा जेवा मुनिने शा माटे चितव, के ते प्रमदाना कानमां कुंडळ छे के नहि ? आमां अजाणपणानुं कारण शांति विगेरे गुणो धारणY कारण बताव्यु, पण | चित्तना विक्षेपर्नु कारण न बताव्यु, तेथी राजाने तेनी निस्पृहता उपस्थी धर्म भावनानो उल्लास बध्यो, पछी राजाए धर्मतत्व पुछतां क्षुल्लक साधुए माटीनो एक गोळो भींत तरफ उछाळी मूचना करीने चालवा मांडघु, त्यारे राजाए पूछ्य के आप पूछवा छतां धर्म 6 केम कहेता नथी? त्यारे तेणे का, हे भोळा राजा! आ भीना सुका गोळाओना फेंकबाथी में धर्म कयो छे, ते वेगाथायी बतावे छे. +%ARArea AN For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ५२९ ॥ 4-196 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जल्लो सुक्कोय दो छूढा, गोलया महिश्रामया । दोत्रि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो तत्थ (सोऽस्थ) लग्गइ ॥ एवं लग्गंति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गंति, जहा से सुक्कगोलए || २३३ ॥ जे भीनो तथा सूको गोळो छे ते बन्ने माटीना छे, भींत उपर फेंकतां जे भीनो छे, ते त्यां भींत उपर लागशे ए प्रमाणे दुष्ट बुद्धिवाळा जेओ कामनी लालसावाळा छे, तेओज संसारवासनामां गृद्ध यशे. पण जेओ विरक्त ले, तेओ सुका गोळा माफक संसा| वासनामां गृद्ध नहिं थाय. तेनो भावार्थ कहे छे. जेओ अंग प्रत्यंग जोवाथी विमुख छे, तेओ त्रीभुं मोडं जोता नथी, अने जेओ अंग प्रत्यंग जोवामां उत्सुक छे, तेओ काम वासनाथी गृद्ध धयेला भीना गोळा माफक खीनुं मोढुं जुए छे, अने तेज जीवो लालसावाळा होवाथी संसारपंक अथवा कर्मकादव तेमने लागे छे, पण जेओ क्षमा विगेरे गुणोथी युक्त संसारसुखथी विमुख छे. काष्ठ ( निस्पृह) सुनिओ छे तेओ सुका गोळा माफक होवाथी क्यांय पण लागता नथी. सम्यक्त्व अध्ययनमां वीजा उद्देशानी निर्युक्ति तथा बीजो उदेशो समाप्त थयो. -:- हवे बीजो उदेशो कहे छे : बीजा साथे तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां सम्यक्त्वमां साधुने स्थिर करवा वीजा मतवाळानी भूलो बतावी पण ते सम्यक्तव साधे रहेलुं ज्ञान छे, तथा ते ज्ञाननी सफलता विरति (वैराग्य) छे, पण आ त्रणे होय छतां पूर्वे करेला चीकणां कर्मनो बंध निरवद्य तप कर्या विना क्षय न थाय. माटे हवे ते तपनुं वर्णन करे छे. आ संबंधी आवेला त्रीजा उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र के. For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५२९॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir C आचा० S ॥५३०॥ N-E%२ - उवेहि णं बहिया य लोग, से सबलोगंभि जे केइ विष्णू, अणुवीइपास निकूखत्तदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति, नगमुयच्चा धम्मविउति अंजु, आरंभजं दुक्खमिणति णच्चा, एवमा संमत्तदसि सूत्रम् i णो, ते सवे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति इय कम्मं परिणाय सवसो (सू० १३४) H॥५३०॥ ___ पूर्वे बतावेलो संसारपिय लोक समूह छे, तेने धर्मथी विमुख जाणीने तेनी उपेक्षा कर, अथवा तेनुं अनुष्ठान सारं न मान, च शब्दथी जाणवू के तेनो उपदेश न सांभळ, पासे न जा, तेमनी सेवा न कर तथा विशेष परिचय न कर, (आ बधुं नवा शिष्यने गुरु समजावे छे तु न जइश-विगेरे-के जो त्यां जाय तो साधु धर्मनी विरुद्ध तेओ स्नान; इच्छित भोजन, मठ बांधी रहेQ विगेरे आचरे छे, तेमां दिल लागवाथी ते स्वीकारतां साधु गृहस्थ पण न रह्यो, न पुरो साधु थयो, परंतु गीतार्थ साधु जरुर पडतां परिचय करे तो बखते तेवाने पण प्रसंगोपात ठेकाणे लावे ) जे संसारपिय बेपधारीनो परिचय न करता तेनी उपेक्षा करे ते क्या उत्तम गुणो मेळवे, ते कहे छे केः-ते निस्पृही साधु वधा मनुष्यलोकमां जेओ विद्वान (आत्मार्थी) छे, तेमनाथी पण सर्वोत्तम विद्वान थशे. ___ प्रश्नः-लोकमां केटलाक विद्वानो छे, के तेमां आ श्रेष्ठ थशे ! 'अणुवीइ' विगेरे जे केटलाक निक्षिप्त दंडवाळा छे, अर्थात् M जेमणे काया मन वचन वडे प्राणीने दुःख आपनारो दंड त्याग को छे, ते विद्वानो थाय छेज, एबुं विचारीने हे शिष्य ! तुं तेमने जो | प्रश्नः-जीवोने दुःख आफ्नारा तेओ क्या छे ! ते कई छे, के जेमणे धर्मनुं तत्त्व जाण्यु छे तेवा सखवाळा साधुओ दुष्ट # कर्मने त्यजे छ, भने ते प्रमाणे जेओ दन्डथी दूर रहे छे, तेओ आठे कर्मने हणे छे, तेज विद्वन् छे. तेवू आंखो वींची विचारीने में -- - For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् आचा० पछी जो, एदले विवेकवाली बुद्धियी तेने तुं धारण कर. प्रश्न:-क्या पुरुषो वर्धा कर्मोने क्षय करे छे ! उत्तरः-ते कहे थे, १. 'नरे' इत्यादि माणसोज संपूर्ण कर्मक्षय करवाने समर्थ छे, पण बीजी गतिवाळा नहि. तेमां पण वां मनुष्यो मोक्षमा जनारा ल नथी; पण जेओए अर्चाते, शरीरना संस्कारो (शोभानो) त्याग करवाथी जेमनुं शरीर मरण जेवू छे अर्थात् जेमणे शरीरनो मोह मुकी तेने पुष्ट कर के शोभाव, ए सपळु त्याग कर्युछे. ( मेघकुमारे जेम वीतराग प्रभुना उपदेशथी आंखो सिवाय शरीरना बीजा भागोनी ममता उतारीने दवा विगेरेनो पण त्याग कर्यो हतो; अथवा आखा शरीरनी चामडी जीवां उतारी; तो पण कोइना उपर 8 कोप न कर्यो; तेवा खंधकमुनि माफक थाय छे.) तेवा साधु सर्व कर्मनो क्षय करे . अथवा अर्चा एटले तेज अने ते पण क्रोध छे, अने तेना कहेवाथी बीजा कषायो पण जाणी लेवा. तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे के-जे पुरुषमाथी कषायरुप-अर्चा सर्वथा नष्ट पामो हे, तेवा अकषायी पुरुषोना आठ कर्म नाश थाय छे. वळी, श्रुतचारित्ररुप-धर्मने जाणनारा ते धर्मविदो छे, ते कुटिलतार1 हित (सरळ) छे. प्रश्न:-तेम हो; पण बीजा साधुए शुं आलंबन लइने ते करचुं ? . उत्तर:-'आरंभज' विगेरे. सावधक्रिया-अनुष्ठानना आरंभथी थयेलं आरंभज ते, कृत्य दुःखरुप छे, ए, वर्धा पाणीओने प्रत्यक्ष छे. अर्थात् खेती, नोकरी वेपार विगेरे आरंभमा प्रवर्तेलो मनुष्य, शरीर, तथा मननां दुःखने भोगवे छे, ते वाणीथी पण | कहेवाय नहि. (पटल वधुं छे,) ते साक्षात् संपूर्ण देखनारा (केवळज्ञानी) ए कहेलं छे. आ वधु दुःख स्वयं-अनुभवसिद्ध जा णीने तेभी शरीरशोभारहित (मृतार्चा तथा धर्मविद तथा सरळ बने छे, ए, केवळज्ञानी ओ कहे केले ते बतावे छे. आ प्रमाणे 1 केवळज्ञानीओए कहेलु के. प्रश्न:-केवा पुरुषोए ते कहेलुं छे ? उत्तरः-समत्व-दीयो, (सम्यक्त्व-दर्शीओ) अथवा समस्त देख कलाNE For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie आचा० सूत्रम् ॥५३२॥ नाराओए कहेलुं छे. एटले आ उधेशानी शरुआतथी सघल्लं तेपणे कबुं छे, प्रश्नः-शाथी तेओए ते कल छे ? उत्तरः-तेओ बधा सर्व विद छे, अने भावादिका एटले प्रकर्ष-मर्यादावडे बोलबाना आचारवाळा यथावस्थित पदार्थने बताववा तथा शरीर, मन संबंधी दुःखो बतावनारा अथवा तेनुं मूळ कर्मर्नु स्वरुप बतावामां कुशळ छे, के जे बतावबाथी ते दूर करवा उपाय जाणनारा बनीने ते वधा उत्तम पुरुषोए ज्ञ परिज्ञा वडे जाणीने ते पाप छोडवा प्रत्याख्यान परिज्ञा बढे त्याग करेल छे. । आ आ प्रमाणे कर्मबंध उदय सत्ताना बताववाथी (बीजा पण ) ते प्रमाणे जाणीने सर्वे प्रकारे कुशल बनीने तेओ प्रत्याख्यान परिज्ञावडे त्याग करे छे. अथवा मूळ उत्तर प्रकृतिना बधा भेदोने जाणीने एटले मूळ प्रकृति आठ, उत्तर प्रकृति १५८ छे तेने जाणीने P कर्मबंधनो त्याग करे छे अथवा प्रकृति स्थिति अनुभाव प्रदेश ए चार प्रकारोथी जाणीने त्यागे छ, अथवा बंध सत्ताना कारणो वडे कर्म स्वरुप जाणीने त्यागे छे. हवे ते उदयना पकारो बतावे छे. मूळ प्रकृतिना त्रण उदयस्यान छे, (१) आठ प्रकारनो, (२) सात प्रकारनो (३)चार प्रकारनो-एटले आठे प्रकृति साथे वेदे तो आठ प्रकारनो, अने ते काळथी अनादि अनंत अभव्योने आश्रयी के. भव्य ने आश्रयी अनादि मांत तथा सादि सांत छे. अने मोदनीयनो उपशम अथवा क्षय होय, त्याग सात प्रकारनो उदय छे, अने घातिकर्म चारे क्षय यता बाकोना चार कर्मनो उदय छे, हवे उत्तर प्रकृतिना उदय स्थान कहे छे. ज्ञानावरणय अने अंतरायनुं पांचे प्रकारचें एक उदयस्थान छे. दर्शनावरणीयना वे छे दर्शन चतुष्कना उदयथी चार अने कोइ पण निद्रा साथे पांच वेदनीय कर्मनु सामान्यथी एक उदयस्थान साता के असातार्नु छे. कारण के साता असाता विरोधी होवाथी बने साथे उदयमा एक बखते न होइ, मोहनीयकर्मनां नव उदयस्थान हे, ते कहे छे दश, नव, आठ, सात, छ, पांच, चार, थे, एक. ए नवनी विगत-ते । For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५३३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'दशमां विध्याल अनंतानुबंधीथी संज्वलन सुधी ४ क्रोधनी चौकडी ए प्रमाणे माननी चोकडी पण होय ते प्रमाणे कपटनी चोकडी होय, तथा लोभनी चोकडी होय एटले कोइ पण चोकडीनी चार होय, ते मळी पांच थइ. छट्टो कोइ पण एक वेद होय, हास्य रति अथवा अरति शोकनुं जोडलं होय भय तथा जुगुप्सा मळी कुल १० थइ. उपरनी दशामांथी कोइ जीवने भय के जुगुप्सामाथी एक न होय तो नत्र, अने बन्ने न होय तो आठ, अनंतानुबंधीनी एक दूर थतां ७ रही, मिध्यात्वना अभावमां छ रही, अप्रत्याख्याननी उदयना अभावमा ५, प्रत्याख्यान आवरणना उदयना अभावे ४ हास्यरतिनुं जोडलं कोइ पण न होय तो २ अने वेदना अभावमां फक्त संज्वळून एकनो उदय रह्यो. आयुष्यनुं पण एकज उदयस्थान के कारणके चारमांनुं कोइ पण एक होय, नाम कर्मना उदयनां १२ स्थान छे. २०, २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ९, ८ तेमां संसारमा रहेला सयोगी तेर गुणस्थान सुधीना जीवोने नामकर्मना दश उदयस्थान छे. अने अयोगि गुणस्थानवाळाने छेवटना बेज छे. अटों बार ध्रुव उदयकर्म प्रकृति प्रथम बतावे छे. तेजस ' कार्मण' शरीर वे, वर्णगध रस स्पर्श ४ चोकहुं अगुरुलघु, एक स्थिर, एक अस्थिर, एक शुभ, एक अशुभ, एक निर्माण, कुल वार तेमां वीस तीर्थकर केवळी ज्यारे समुद्घात करे त्यारे कार्मण शरीरयोगीने हॉय छे. ते कहे छे, मनुष्यगति एक पचेन्द्रियजातिओ त्रस एक बादर एक पर्याप्त एक सुभग एक आदेय एक यशकीर्ति एक त्रणे उपर कहेली ध्रुवउदयनी बार मळी कुल २० थइ. अने एकवीसथी एकत्रीस सुधीनां उदयस्थानो जीव गुणस्थानना भेदथी अनेक भेदवाळां होय छे. ते ग्रंथ वधी जवाना भयथी बधा अहीं कहेता नथी, पण जाणवा माटे एकेक कहे छे. प्रथम एकवीसनो एक कहे छे, गति एक, जाति आनुपूर्वी एक श्रम एक बादर एक पर्याप्त अथवा अपर्याप्त एक कोइ एक सुभग एक अथवा दुर्भग आदेव अथवा एक अनादेव यशकीर्ति अथवा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५३३॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ५३४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक अयश आ नव तथा उपर कहेली ध्रुव बार मळी एकवीस थइ हवे चोवीसनो एक भेद कहे छे: तिर्यग गति एक एकेन्द्रिय जाति एक औदारिक शरीर एक हुंडसंस्थान एक, उपघात एक प्रत्येक अथवा एक साधारण स्थावर एक सुक्ष्म अथवा एक बादर दुर्भग एक अनादेय एक अपर्याप्त एक यशकीर्ति एक अथवा अयश आ बार तथा उपर बतावेली gait बार मळी चोवीस थइ. ते चोवीचमांथी अपर्याप्त दूर करी पर्याप्तक तथा पराघात १ मेळवतां २५ थइ. अने छत्रीश तो | केवळीने उपर जे बीस कही छे तेमां उदारिक शरीर एक आंगोपांग एक संस्थान एक प्रथम संहनन एक उपघात एक प्रत्येक एक मळी मिश्रकाययोगमा छवीश होय छे. ते छवीशमां तीर्थकरनाम मेळवतां तीर्थंकरने मिश्रकाय योगमां सत्यात्रीस होय छे. तेमां प्रशस्त विहायोगति मेळवतां अट्ठावीस अने ते अदाबीसमांथी तीर्थंकर नाम दूर करी उच्छ्वास एक सुस्वर एक पराघात एक मेळवतां (२७+३) त्रीस थइ तेमांथी सुस्वर ओळी करतां २९ तथा ते ३० मां तीर्थंकर नाम मेळवतां ३१ यह. पण नवनो उदय तो मनुष्य गति एक पचेन्द्रिय जाति एक त्रस एक बादर एक पर्याप्त एक सुभग एक आदेय एक यशकीर्ति एक तीर्थकर एक ए नव तीर्थकरने अयोगी गुणस्थानमां होय छे. पण तीर्थकर नाम सिवाय सामान्य केवळी अयगीने तो आठ होय छे गोनुं तो सामान्यथी एकज उदय स्थान छे. उंच अथवा नीच कोइ पण एक होय छे. कारण के बने एक बीजाथी विरुद्ध छे. उपर बताच्या प्रमाणे कर्मप्रकृतिना उदयवडे अनेक भेदो जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे ते तोडवा प्रयत्न करे छे. जो एम छे तो ( नवा साधुए) शुं करवुं ते कहे छे. इह आणाकंखो पंडिए अणिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरारं, कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं- जहा For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥५३४॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५३५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जुनाई कट्ठाई हववाहो पमत्थइ । एवं अन्तसमाहिए अणिहे, विगिंव कोहं अविकंपमाणे ( सू० १३५) आ मवचनमां आज्ञा पाळवानी आकांक्षा राखनारो आशाकांक्षी साधु जे सर्वझना उपदेश प्रमाणे वर्तनारो छे, ते पंडित (तत्वज्ञानी ) छे. अने ते अस्निड थाय छे. आठ प्रकारना कर्म वडे लेपाय ते स्निह छे. ते जेने नथी ते अस्निह छे, अथवा जे स्नेह करे ते स्नेहाळ रागी छे. तेत्रो जे रामी न थाय ते अस्निह छे. तेथी एम जाणं के ते रागद्वेष रहित छे. अथवा निश्वयथी जे भावरिपुरुष इन्द्रियोना विषय तथा कषायथी बंधातां कर्म छे. तेना वडे हणाय से निहत अने तेम न हणायतो अनिहत छे. उपर बतावेल आशाकांक्षी पंडित तथा भावस्पुयी अनिहत गुणवाळो आ प्रवचन (जैन मार्ग) मां छे. बीजे नयी अने जे साधु अनिहत छे ते परमर्थथी कर्मनो सारी रीते ज्ञाता छे. अने ते भुं करे ते कहे छे. ' एगमप्पाणं ' इत्यादि. ते अहित अथवा अस्निह साधु पोताना एकला आत्माने धन धान्य सोनुं पुत्र स्रो तथा पोताना शरीर विगेरे (पुद्गल उपाधि ) थी जुदु जाणीने शरीर विगेरे बधानो मोह छोडे (संभावनामा लिङ प्रत्यय छे.) तेथी एम सुचन्युं छे के आत्माने बची उपाधीथी जुदो देखे तोज ते शरीरथी जुदो पाडी शके अने तेम मोह उतारना माटे संसार स्वभावनी भावना के तथा एकत्व भावनाने आत्री रीते भाववी. संसार एateमनर्थसारः, कः कस्य कोऽत्र स्वजनः परो वा ? सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च. भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः ॥ १ ॥ आ संसार अनर्धनो सारज है, अने अहीं कोण केनो स्वजन अथवा परजन हे ? बधाए संसारमा भ्रमता स्वजन अने परजन For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५३५॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir 15 ते पर थइ पाछा स्व थाय. अने केटलक फरी देखाव देता नथी. ( अर्थात् समुद्रमा ताणातां अपार समुद्रमा ज्या भेगा बानो तथा स्थिर रद्देवानो तथा मळवानो निश्चय नथी, तथा थोडो काळ पण एकता रहेबानो निश्चय नथी, त्यां कोण पोतार्नु के पारकुंछे?) टू आचा० विचिन्त्यमेतद्भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित् पुरतो न पश्चात् । ॥५३६॥ स्वकर्मभिर्धान्तिरियं ममैव, अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् ॥ २॥ ॥५३६॥ ___ उपर प्रमाणे विचारी हुँ एकलो ई, अने मारे पहेलां के पछवाडे कोइ नथी, परंतु मोहनीयकर्मथी आ एक मारा तारानी भ्रांति छे. खरीरीते तो पहेलां पण हुं अने पछी पण हुँ पोते पोतानो वजन छु एवी भावना तमारे भाववी. सदकोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित्। न तं पश्यामि यस्याहं नासो भावीति यो मम ॥३॥ हुँ सदा एकलो छ. मारो कोइ पण नथी, तेम हुँ बीना काइनो पण नथी, हुँ जेनो थाउं, तेवो मने कोइ देखातुं नथी ! ( कर्मसबंध छुटतां सौ रस्ते पडे हे.) तेम मारो भविष्यमा याय तेवो पण कोइ नथी. एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥ ४॥ पोते एकलोज कर्म बांधे छे, तेनां फळ पण एकलो भोगवे हे, अने जन्मे छे. अने परे छे पण एकलोज तथा भवांतरमा पण 1 एकलोज जाय छे बिगेरे चितवे बळी ते भव्यात्मा साधु शुं करे ? ते कहे छ:-"कसे हि अप्पाण जरेहि अप्पण" विगेरे. पर (जुदो) | आत्मा जे 'शरीर' छे. तेने तपरुप कष्ट वडे अथवा चारित्र विगेरेथी कृश (दुर्बल) बनाव, अथवा कृष एटले कर्म तोडवामां हुं समर्थ 18 RAGE अपनर For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५३७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छु ? एम विचारी यथाशक्ति तेमां यत्न कर, तथा जर एटल शरीरने जीर्ण बनावी दे, एटले तपवडे शरीर एवं कर के बुट्टापाथी जीर्ण जेतुं लागे, अर्थात् विगइनो त्याग करीने आत्मा (शरीर) ने दुर्बळ बनावी देजे. प्रश्नः - शा माटे ? उत्तरः — जेम सार रहित (सुकां) लाकडांने हव्यवाह (अग्नि) शीघ्र बाळी मुके छे, ए दृष्टांत उपदेश आपे के के तुं कर्मने वाळी मुक. 'एवं अत्त समाहिए' उपर प्रमाणे आत्मा समाहित एटले ज्ञानदर्शन चारित्रवडे आत्मसमादित ( समाधिवाळो ) छे ते आत्मसमाहित छे, अर्थात् शुभ व्यापारवाळो छे. ( अथवा व्याकरणना नियमथी विशेषणने प्रथम लेवाथी आत्मा समाहितने | बदले ) समाहित आत्मारुप थाय छे, तेवो तुं वन, एटले जे अस्ति (स्नेहरहित वैरागी ) होय अने ते तप करे ते तपरूप अभि बडे कर्मरूप काटने वाली मुके के, उपर कहेला सूत्रार्थने दृष्टांत तथा बोधने गाथावडे नियुक्तिकार कहे छे. जह खलु झुसिरं कहूं, सुचिरं सुक्कं लहुं डहइ अग्गी, तह गलु खवंति कम्मं, सम्मचरणे ठिया साहू ॥नि. २३४ जेम सुका पोला लाकडाने अग्नि जलदी वाळे तेम उत्तम चारित्र पाळनारी साधु कर्मलाकडांने शीघ्र बाळे छे आ प्रमाणे प्रथम स्ने| हरहित बनीने द्वेषनी निवृत्ति करवा कहे छे 'विमिंच कोहं' विगेरे कारणे अथवा आ कारणे अति क्रूर अध्यवसायवाला क्रोधने छोड, अने क्रोधी शरीर कंपे के माने कहे छे के तुं निष्कंप बनी जा शुं भावीने ? ते कहे : इमं निरुद्धायं संपेहाए, दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो फासाई च फासे, लोयं च पासवि फेदमाणं, जे निव्बुडा पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिय, तम्हा अतिविज्जो नो पडिसंज For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५३७॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥५३८॥ लिजासि तिबेमि ॥ (सू० १३६) चतुर्थे तृतीयः ॥४-३॥ आचा०४ आ मनुष्यपणुं परिगलित आयुवालु विचारीने क्रोध विगेरेने छोडी देजे बळी दुवं विगेरे-तथा क्रोध विगेरे कषायोथी बळ- ता मनुष्यने मन संबंधी जे दुःख उत्पन्न थाय छे, तेने जाण, तथा ते क्रोधथी जे नवां कर्म बंधाय तेनुं भविष्यमां पण उत्पन्न थवा॥५३८॥ नु दुःख विचारीने ते क्रोधादिने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे जाण, अर्थात त्याग कर, आगामी (भविष्य) ना दुःखनु स्वरुप कहे छे. पुढो विगेरे-जुदी जुदी सात नरकी विगेरेमा मळता शीत उष्ण (ठंड ताप ) नी वेदना तथा कुंभीपाक विगेरेनां पीडास्थानोमा यता दुःखोने भोगवां पडशे एथी एम मूचधु के क्रोधथी वळेलाने तेज क्षणे दुःख छे, एम नहीं, पण भविष्यमा पण जुदां जुदां स्थानोमां दुःख भोगवां पडशे. तेने घणो दुःखीओ जोइने बीजा लोक पण दुखीआ थाय. ते बतावे छे लोयंच विगेरे, केवळ क्रोधादिथी आत्माज दुःख अनुभवतो नथी, पण शरीर अने मनथी उत्पन्न थयेला दु.खोचाळा लोको परवश बनीने तेना दुःखने दूर करवा आम तेम भटके छे, तेने जो, विवेकचक्षुथी विचारी जो, (आ मूत्रवडे जेओ मोहांध छे, तेवाभो मगाने दुःखी देखीने अथवा करुणाथी भींजायला हृदयवाला छे तेओ दुःखीने शांति पमाडवा अनेक उपयो करवा आम तेम भटकतां अनेक दुःखो भोगवे छे. जेमके "एक कषायने रोज ५०० पाडा मारवानी बुरी आदत हती ते तेणे न छोडी. पुत्र पोते धर्मी होवाथी तेमां सामील न थयो. अंतकाळे बापने तेना पापथी दाहज्वरनो भयंकर व्याधि थयो अनेक उत्तम शीतळ औषधि बावना चंदन विगेरेनो लेप कतु रवा छतां शांति न पह, त्यारे पुत्रे गभाराइ पोताना परम धर्मी मित्रने पूछ्युं. तेणे विचारीने कडं के तेना नरकना अशुभ कर्मना ल नवलAGE For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit www.kcbatrth.org 14-1 आचा Ce: ॥५३९॥ चिन्हरूप विष्टा अने पिशावने मेळवी विलेपन कर, तो शांति थशे. अने से प्रमाणे पुत्रे न छुटके कयु त्यारे तेने शांति थइ, अने पिता मरीने सातमी नरकमा गयो. आ दृष्टांतथी पापी पोते दुःख भोगवे छे तेम तेनी हायपीट जोइ बीजां सगां पण दुःख भोगवे ले ते बतायु) गुरु कहे छे:-हे शिष्य ! जेभो क्रोध विगेरे नथी करता; ते केवां होय छे ? ते सांभळ. 'जे निव्वुडा' विगेरे, पण || जेओ तीर्थकरना बोधवी निर्मळ हृदयवाळा छे, तेो विषय अने कपाय अग्रिना बुझावाथी निवृत्त (नांत) ययेलां पापकर्ममांग ॥५३९॥ | निदान (वासना) रहित बनेला छे. तेश्रो परमसुखना स्थानने पामेला छे. अर्थात् औपत्रमिक सुखने भजनारा होचायी प्रसिद्ध छे. प्रश्न:--तेथी शुं समजबुं ? उत्तरः-तम्हा विगेरे. ते रागद्वेषधी घेरायेलो दुःखी थाय छे, तेथी अति विद्वान् के जेणे, शास्त्रोनो परमार्थ जाण्यो छे, तेवाए क्रोधानिवडे आत्माने वाळवो नहि. अर्थात् क्रोधादि आवतां तेने शांत (दर) कर, ए प्रमाणे मुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे. :: चोथो उद्देशो त्रीजो उद्देशो कह्यो, तेनो आ कहेवाता चोथा उद्देशा साथे आप्रमाणे संबंध छ; गया उद्देशामां निरवद्य तप वताव्यो, अने ते संपूर्ण रीते 61 सारा संयममा रहेला सुनिने होय छे, तेथी संयम बतावचा चोथो उद्देशो कद्दे छे, तेना आवा संबंधी आवेला चोथा उद्देशानुं आप्रथममूत्र छे. आवीलए पवीलए निप्पीलए जहिता पुवसंजोगं हिच्चा उवसमं, तम्हा अविमणे वीरे, सारए For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५४०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only समिए सहिए सया जए, दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियहगामीणं, विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिजे बियाहिए, जे घुणाइ समुस्लयं वसित्ता वंभचेरंसि ॥ सू० १३७ ॥ 'आवीलए ' इत्यादि आपीडन कर, अर्थात् अविकृष्ट (घोडा) तपत्र ढे शरीरने दुःख आप आ प्रथम दीक्षा अवसरे छे, पण ज्यारे सिद्धांत भणी रहे, त्यारे प्रकर्षथी ( वधारे प्रमाणमां ) तप करी कायाने पीड, (सुकाव ) फरी वधारे तत्वज्ञान मेळवतां गुरुनी | सेवा करनार अंतेवासी वर्ग जेणे अर्थसार (रहस्य) मेळव्युं छे, तेत्रा मुनि शरीरने त्यजवानी इच्छाथी मास अर्धमासनो तर करवा बढे निश्रयथी पडे, शिष्य कहे छे के ठीक कर्मक्षय करवा माटे तप करे छे, पण ते पूजालाभ कीर्ति माटे करे तो शुं चाय ? गुरुकड़े के ते माटे करे तो शरीर पीडवानो तपरूप उपदेश निरर्थकज थयो. ते माटे बीजी रीते कहे छे. कर्म अथवा कार्मण शरी| रनेज पीडे (सूत्रपाठ थोडो रही गयो देखाय छे ) अहींया पण आपीड, प्रपीड, निष्पीड. कार्मण शरीर पीलवा माटे जाणवां. सूत्रपाठ आवो जोइए, “ आवीलए, पवीलए, निप्पीलए कम्मं " अथवा मंदबुद्धिवाळा माटे त्रणेनी अवस्था बतावे छे, के आपीडन ते चोथा गुणस्थानथी लइने सातमां सुधीमां थोडी थोडी तपास्या करे, अने आठमा नवमा गुणस्थानमां प्रपीडन ते मोटी तपास्या करे, अने १०मा गुणस्थानमां निष्पीडन ते मास क्षपण विगेरे मोटो तप करे अथवा उपशम श्रेणीमां आपीडन, क्षपक श्रेणिमां मपीडन, अने शैलेश अवस्थामा निष्पीडन तप जाणतो. शृं करीने तेवो तप बतावे छे, जहिता-विगेरे; पूर्वसंयोग ते पोतानी पासे जे कई धान्य धन सोनुं पुत्र स्त्री विगेरे हतुं, ते त्यागीने तप करे, अथवा असंयम जे अनादि भोना अभ्यासथी संबंधी हतो, तेने অछন सूत्रम् 1148011 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥५४१॥ नछोडीने तप करे, बळी 'हिमा विगेरे, (हि धातुनो अर्थ गतिवाचक छे तेथी) पामीने (मेळवीने) ? ते कहे हे. इन्द्रिय तथा लि मनने जीतवारूप उपशम अथवा संयम मेळवीने तप करे तेनो सार आ छे, के असंयम छोडी संयम धारण करीने तप तथा चारित्रना | आचा० 8. अनुष्ठानवडे कर्मने वधारे वधारे यथाशक्ति पीडे जेथी कर्मने पीढवा माटे उपशम मेळववो. अने ते मेळव्या पछी (अविमनस्कता) ॥५४ निश्चल शांति मेळवधी ते कहे थे. 'तम्हा' इत्यादि, जेम कर्मक्षय माटे असंयमनो त्याग, तेथी अवश्ये संयम मळे, तेमा चित्तनी अशांति न होय, तेथी अवीमना एटले भोगकपायमां अथवा अरतिमां जेनुं मन गयु ते विमन, वो जे न होय ते अविमना, अर्थात् रागद्वेपनी उपाधियी जेनु मन चंचळ नधी तेवा शांत स्थिर मनवाळो साधु होय. प्रश्न:-ते क्यो छे ? उत्तरः-चीर ! जे कर्म विदारण करवामां समर्थ छे, अने 'सारए' इत्यादि. मुआरत एटले सारीरीते जीवन पर्यंतनी मर्यादा ए संयम अनुष्टानमां रक्त रहे ते स्वारत कहेवाय, पांच समितिए समित तथा हितयुक्त ते सहित अथवा ज्ञानादियुक्त बनीने सदा (हमेश) एकवार गुरुए अर्पण करेलो संयम भारवाळो ते शिष्य संयमभारनी यतना करे. मा-वारंवार शा माटे संयम अनुष्ठाननो उपदेश करो छो? उ:-ते दुरानुचर छे, दुःखे करीने अनुचराय (पळाय) तेवो छे. प्रा-मुं? उ.-मार्ग ते संयम अनुष्ठान विधि प्रश्नः-केवाओने ? :-अप्रमत्त साधुनोने, प्रः-केवाओने ? अनिवर्त ते मोक्ष छे. लेमां जेमने जवानी इच्छा छे तेवाओने आ संयम पाळनो कठण छे ते केवीरीते पायो कहेवाय ? ते वताचे छे-विगिंचव-विगेरे मांस शोणित जे अहंकार तथा काम वास-12 ६/ना वधारनारां छे. तेने विकृष्ट तप अनुष्ठान वडे विवेचकर (दरकर) आत्माथी जुदां जाणी तेने शोधावीदे, आ वीर पुरुषोना मार्गनुं अनुचरण छ, एम जाणवू. जे आवी रीते तपकरी शरीरने मुकवे, तेने शुं गुण थाय छ, ने कहे छ, 'एष' विगेरे मांसभोणी-8 For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तने सुकवे, ते पुरि (नगर) मां शयन करवाथी पुरुष छे, अने व ते संयम छे ते संयम जेने होय ते द्रविक पुरुष , अथवा द्रव्यभूत छे कारण के तेज मोक्षमा जाय छे, कर्मशत्रु जीतवामां समर्थ होवाथी ते वीर पण छे, मांसशोणीत शोषवानुं बताच्याथी आचा० सुत्रम् वीजा पदार्थो भेद चरबी विगेरे शोषत्रानुं पण बताव्यु जाणवू. कारण के मांस मुकावा ते पण साये मुकाइ जाय छे; वळी आया॥५४२॥ मणीजे विगेर एटले वीर पुरुषोना मार्गे चालनारो जे मांस लोही सुकवे, ते मोक्षामिलापीओने आदानीय ग्राथ. मानवाजोग वचन ॥५४॥ वालो विख्यात थाय छे. प्रः-एवो कोण छे ? उ:-जे ब्रह्मचर्य ते संयममा रही कामवासना जीतबामा प्रयत्न करे, अथवा समुच्छ्रकाय ते शरीर अथवा कर्मोपचयने तपचारित्रबडे धुणावे. (कशकरे-दूरकरे) ते आदानीय तथा व्याख्यात (स्तुत्य पूज्य) याय छे, आ प्रमाणे अप्रमत्त साधुनुं खरूप बताव्यु. हवे तेवू संयम न पाळनारा जे प्रमत (प्रमादी साधुओ) छे तेनुं वर्णन करे : नित्तेहि पलिच्छिन्नेहिं आयाणसोयगढिए बाले, अव्वोच्छिन्नबंधांणे अणभिकंतसंजोए तमंसि अवियाणओ आणाए लंभो नस्थि तिबेमि (सू० १३०) जे पदार्थ तरफ लइ जाय-अर्थात् पदार्थनो निर्णय करवा जे दोरे, ते नेत्र विगेरे पांच इन्द्रियो छे, तेना बढे पोताना विषयने ग्रहण करवा बडे जे पाप याय, ते अटकावीने साधु यतां जगत्मा सारा पुरुषोथी पूजनीक थइ ब्रह्मचर्यमा रहेवा छतां पण फरीची 18 तेने मोहनो उदय यवायी सावध कृत्यमा संसारभ्रमणना बीजरुप कर्मना इन्द्रियोना विषयोरुप स्रोत (प्रवाहो) अथवा मिथ्यात & अविरति प्रमाद कपाय योग के तेमा गृद्ध यार ते आदान स्रोत मृद्ध बने. मा-कोण ? उ:-बाल (अक्ष) छे, ते राग द्वेषरुपाली अCA For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie आचा० ॥५४॥ असक्स महा मोहथी मलिन अंतःकरणवाळो मृद बने. मा-पछी ते केवो थाय ? उ.-अवोच्छिन विगेरे-एक सरखां सैकडो जन्ममरण थापनार प, आठ प्रकारना कर्मरुप बंधन तेने मळे छे; बळी 'अणमि.' जेणे संसारना संयोगरूप धन धान्य सोनु, पुत्र स्त्री, विगेरेनो | सूत्रम् BI मोह अथवा असंयमनो संयोग छोड्यो नवी; ते 'अनभिकांत संयोगी' छे, तेवा कुसाधुने इन्द्रियोने अनुकुल विषयलालसाना अंधारामां' अथवा मोहरुप अंधकारमा पवर्तेला पोतार्नु खलं हित अथवा मोक्षउपायो तेणे न जाणवाथी तीर्थकरनी आज्ञा (उपदेशनो) लाभ 3/॥५४३॥ तेने यवानो नथी एबुं हुं कहुं छं अथवा तेने आता एटले सम्यक्त्वनो लाभ थवानो नथी. (भविष्यमां) पण धर्म मळवो दुर्लभ छे. कारण के, सूत्रमा नास्तिक शब्द छे ते अव्यय प्रणे काळ आश्रयी छे. जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया? से हु पन्नाणमंते बुझे आरंभोवरए, संममेयंति पासह, जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं पलिळिंदिय बाहिरगं च सोयं, निकंमदंसी इह मच्चिएहि, कम्माणं सफलं दट्टण तओ निजाइ वेयवी (सू० १३९) जे कोइपण चाळमूर्ख साघु कर्मादान स्रोतमां गृद्ध थयेल छे तथा एकसरखां जन्ममरण बांध्या छे. तथा संसारमोह छोड्यो नथी; अज्ञानअंधकारमा मूल्यो छे, तेने पूर्वजन्ममां धर्मप्राप्ति नहोती; भविष्यमां पण थवानी नथी; तेने मध्यजन्ममां क्याथी थवानी छे ? अर्थात् जेणे सम्यक्त्व पूर्व प्राप्त करेल द्दशे; तेनेज वर्तमानमा मळे छे. कारण के जेणे सम्यक्त्व पूर्वे मेळवी तेनो स्वाद लीधो तेने पाछो मिथ्यात्वनो उदय यतां अपार्ध पुद्गल परावर्तनना काळे पण थशे; पण सम्यक्त्व वमेलाने फरी सम्पत्वनो असं-ला मकर RASS For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा । ॥५४४॥ ॥५४॥ 8 भवज थाय नेवु नथी. (अर्थात् अभविनेज त्रणे काळमां नथी; अथवा अनिरुद्ध इन्द्रियविषयवाळी होय; तोपण आदान स्रोत वृद्ध जाणको एम कहेलुं जाणचु. (पण सम्यक्त्व मेळच्या पछी पार्छ न मळे तेवु नहि.) पण जे साधु तेवो प्रमादी न थइ संसारसुखनु स्मरण न करे, अने भविष्यमा मळनारी देवांगनाना भोगने न इच्छे, तेने वर्तमानकाळमां पण भविष्यमुखनो अमिलाप क्याथी होय? ते बतावे छे. जे साधुए भोगनां भविष्यनां कडवां फळ जाणेला छे, तेने पूर्व भोगवेला भोग याद आवता नवी; भविष्यना & भोगनी अभिलाषा पण नथी; तेवा उत्तम साधुने व्याधिने छंछेडया समान भोगने रोग जाणीने तेने केवीरीते खोटी इच्छा पण टू याय ? अर्थात् मोहनीयकर्म शांत थवाथी तेने भोगेच्छा होती नथी. जे साधुने त्रिकाळ-विषयनी भोगेच्छा दूर थइ ते केवो होय ? ते कहे छे-सेहु-विगेरे आवो निरीह साधु प्रकृष्टज्ञान जे जीवाजीव संबंधी तख बतावनारुं छे तेने मेळवे; तेथी प्रकृष्टज्ञानवाळो छे, तेज बुद्ध एटले, तख जाणनारो छे, तेथीज ते सावधअनुष्ठानना आरंभथी दुर रहे छे, तेथी आरंभ उपरत छ, ने गुण उत्तम छे ते बतावे छे, सम्म विगेरे एटले साधुओने ते शोभावनाएं भूषण छे अथवा सम्यक्त्वन कार्य करनार होवाथी ते सम्यक्त्व छे. माटे गुरु कहे छ:-हे शिष्य ! तुं तेने जो. तुं पण तेवू मेळव. शामाटे ते शोभन (भूषणरुप) छे ? ते कहे छे:-जेण विगेरे जे कारण* थी सावध-आरंभमां प्रवर्नेलो छे. ते सांकळ विगेरेधी बंधनुं तथा चाचवा विगेरेथी मार खाय छे तथा पाणसंशयमरूप-घोर दुःख खमे छे. तथा शरीर मन संबंधी परिताप दारुण दुःख वीजाने दइने पोतेपामे छे, माटे ते आरंभो छोडवा ते सारंडे, करीने आरंभ छोडे, ते कहे छे. 'पलिच्छिन्दि' विगेरे स्रोत (पापर्नु उपादान) रूप बहारथी धन धान्य विगेरे अथवा हिंसादि आस्रवद्वार अढार पापस्थान] छे, तथा च शब्दथी अभ्यंतर रागद्वेषरुप अथवा विषय तृष्णा स्रोतने त्यागीने निर्मळ था; वळी 'णिकम्म' कर्म नवर For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम ॥५४५॥ A जेनां दूर थयां ते निष्कर्मदर्शी छे, 'इह'-आ संसारमा मर्त्य [माणस) लोकमां जे निष्कर्मदर्शी छे! तेज बाह्य अभ्यंतर परिग्रह ४ आचा० * छेदनाराओ छे, शुं आधार लइने परिग्रहने छेदे अथवा निष्कर्मदर्शी बने ते कहे छे, 'कम्माणं' विगेरे मिथ्यात्व अविरति प्रमाद ॥५४५ कषाय योगोचडे जे कर्म बन्धाय छे. ते ज्ञानावरणीय विगेरेनुं सफळपणुं देखीने एटले ज्ञानावरणीयन फळ ज्ञान ढंकावं छे, दर्शनS/ आवरणीयनूं देखवामां विघ्नरुप छे, वेदनीयर्नु फळ रोग विगेरे दुःखो मुखो भोगववाना छे. प्रश्न:-बयां कर्मना विपाकना उदयने इच्छता नथी ? प्रदेश उदयने पण सदभाव होय छे, अने तप करवाथी क्षय पण थाय Pछे त्यारे कर्मर्नु सफळपणुं केवी रीते घटे. आचार्यनो उत्तरः-ते दोष नथी, अमने बधा प्रकारचें इच्छवापणु अहीं नथी, पण द्रव्य पूर्णपणुं मानीए छीए अने ते छेज, एटले दरेकने आठज कर्मनो उदय छे, एम नहि पण बधा जीव आश्रयी सामान्यथी जोतां आठे कर्मनो सदभाव छे तेथी ते कर्मनु अथवा कर्मनुं मूळ आश्रय छे. तेनाथी निश्चयथी नीकळी जाय, अर्थात्-आश्रव आवे तेवू • कृत्य न करे. भः-कोण न करे ? उ:-वेदविद् जेना वडे सघळु चर-अचरवेदाय, ते वेद जैनागम छे, तेने जाणे ते वेदविद् । जाणवो अर्थात् सर्वजना उपदेशमा वर्तनारो होय ते आ नवां कर्म न बांधे. आ अमारा एकलानो अमिपाय नथी; पण सर्वे तीर्थक४ करोना आ आशय छे ते बतावे छे. जे खलु भो ! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघऽदसिणो आओवरया अहातहं लोयं उवेहमणा पईणं पडिणं दाहिणं उईणं इय सच्चंसि परि (चिए) चिडिंसु, साहिस्सा १२. ५ २ % LSEX For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० EAR- ॥५४६॥ चारित्र कर्ण. हवे. निमा केटलाक लेतेजसिणोति शुभ अ, मो, नाणं वीराणं समियाण सहियाणं सयाजयाण संघड दंसीणं आओ व रयाणं अहा तह लोयं समु वेहमाणाणं किमस्थि उवाहो?, पासगस्स न विज्जइ नस्थि तिमि (सू. १४०) सूत्रम् । चतुर्थे चतुर्थः ४-४ । इति सम्यक्त्वाध्ययनम् ॥ ४ ॥ सम्यग्वाद अने निरवद्य तप तथा चारित्र को. हवे, तेनुं फळ कहे छ:-'जेखलु' विगेरे (खलु शब्द वाक्यनी शोभा माटे हे.) जे पूर्व अनंता तीर्थंकरो थया तथा थवाना छे, अने वर्तमानमा केटलाक छे, तेओ कर्मशत्रुने विदारवामां समर्थ होवाथी वीरो छे, समितिथी युक्त तथा ज्ञानादिधी सहित छे. सारा संयमथी यनावाला छे. 'संबड दसिणोति शुभ अशुभने निरंतर संपूर्णदर्शी (देख-12 ल नार) छे. पापकर्मरुप-आत्माथी उपरत छे. तेओ जेवीरीते लोक चौदराज प्रमाण छे, तेने अथवा, कर्मलोक जे वधी दिशा पूर्व विगेरेमा रहेल छे, तेनी जीव अजीवनी व्यवस्थाने देखनारा छे. तेओ सत्य संयमतपमा स्थिर रहेला छे. अर्थात् तेमने त्रिकाळ विषय संबंधी संपूर्ण देखाय छे. पूर्वे अन्ता थया; ते संयममा रह्या. पंदर कर्मभूमिमां संख्याता तीर्थकर-संययमा रहेला छे, तथा भविष्यमा अनंता थवाना छे. तेओ संयममां स्थित रहेशे; तेश्रोनो त्रणे काळनोज अभिप्राय (बोध ) छे, ते हुँ तमने कहीश; एवं सुधर्मास्वामी शिष्यांने कहे :-तमे सांभळो. पूर्वे कहेला उत्तम विशेषणोवाळानुं ज्ञान (अभिमाय) आ छे के, जे कर्मजनित उपाधि हे, ते नारक विगेरे चार योनिमां जन्म लेवो सुखीदुःखी, सुभग, दुर्भग, पर्याप्त-अपर्याप्त विगेरे नवा नवां मळे छे के नहि ते | संबंधी परमतवाळाने शंका छ के ? फरी मळी शके ? तेथी, ते तीर्थकरो साक्षात् जोइने कहे छे के:-तेवा साक्षात् देखनाराने ते ते वावलम्बन कर For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५४७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वस्तु उपर मोह न रहेवाधी ममता छुटीजवाथी तेवा पश्यक ( केवळ ज्ञानी) ने कर्मजनित उपाधि भविष्यमां मळवानी नथी; ते प्रमाणे हुं पण कहुं हुं पण आ हुं मारी बुद्धिधी कहेतो नथी, सूत्रानुगम को. चोथो उद्देशो समाप्त थयो, नय विचार तेमांज थोडो बतावी दीघो छे. चोथुं सम्यक्त्व नामनुं अध्ययन समाप्त धर्यु. ( टीकाना स्लोक ६२० थया. ) 'लोकसार' नामनुं पांच अध्ययन. चो अध्ययन का पछी हवे पांच अध्ययन कहे छे. तेनो आ प्रमाणे संबंध छे गया अध्ययनमां सम्यक्त्वनुं स्वरुप बताथ्युं अने तेनी अंदर ज्ञान रहेलुं छे, ए सम्यक्त्व तथा ज्ञाननुं फत्र चारित्र छे, अने चारित्रज मोक्षनं अंग प्रधानपणे छे, तेथी ते लोकमां साररूप छे. ते चारित्रनुं प्रतिपादन करवा माटे आ अध्ययन छे. आवा संबंधी आवेला आ लोकसार अध्ययनना उपक्रम विगेरे चार अनुयोगद्वार थाय छे ते प्रथम उपक्रम द्वारमां अर्थाधिकार वे प्रकारे छे. अध्ययrat विषय पहेला अध्ययनमां को छे, अने उद्देशानो नियुक्तिकार गाथाओ बडे कई छे. हिंसगविसयारंभग, एग चरुति न मुणी पढमगंमि विरओ मुणिन्ति बिइए, अविरयवाइ परिग्गहिओ ॥२३६॥ तइए एसो अपरिग्गहो, य निचिन्नकामभोगोय । अवत्तस्सेग वरस्स, पञ्चवाया चउत्थमि ॥ २३७ ॥ हरओम य तव संयमगुत्ती निस्संगया य पंचमए । उम्मग्गवजणा छट्टगंमि, तह रागदोसेय ॥ २३८ ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥५४७॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४८॥ हिंसक ते हिंसा करनारो, तथा विषयो माटे आरंभ करतो ते विषयारंभक, ते बन्ने साथे लेतां हिंसक तथा विषयारंभक छे आचा एटले जे साधु प्राणीओनी हिंसा करे, अने विषयमुख लेवा सावध आरंभ (संसारी जेवो) करे, ते मुनी न कहेवाय, (व्याकरणना नियम प्रमाणे समास तथा विग्रह टीकामां बताव्या छे. के जेथी शब्दनो अर्थ तया उत्पत्ति समजाय) तथा विषयसुखना माटे एक५४ा लोन विचारे, ते एक चर छे. ते पण मुनी न कहेवाय आ त्रण अधिकार हिंसक, विषयारंभक अने एकचर छे ते पहेला उद्देशामा छे. बीजा उद्देशामां हिंसादि पापस्थानथी जे दुर रहे, ते चिरत मुनि याय, ते अर्थाधिकार छे, बदन शील ते वादी, पण जे अविहैरत वादी होय, ते परिग्रह राखनारो बने छे, ते आ बीजा उद्देशामां बतावशे. त्रीजा उद्देशामा पूर्व कहेलो अविरत ज्यारे परिग्रह वालो मुनी बने छे, अर्थात् कामभोगनी वासनाथी दूर रहेलो ते मुनी छे, ते आमां बतावेल छे. चोथा उद्देशामां अव्यक्त (अगीतार्थ) 15 ने मूत्रअर्थ भण्या विना तथा मूत्रार्थ परिणम्या विना एकलो फरवाथी दुःखो भोगववां पडे छे ते चत्ताव्यु छे. पांचमामां हृदनी उपमाए मुनी ए थवं, एटले जल भरेलो हृद ( होज) पाणी न झरी जाय, तो प्रशंसायोग्य छे तेम बनादर्शन चारित्रथी सदा साधु भरेलो होय, अने विसरी न जाय, तथा ते तप संयम गुप्ति तथा निःसंगता राखे, तो ते शोभे छे, एम बताच्युं छे. छछा उद्देशामां उन्मार्ग 17 ( कुमार्ग) → वर्जन छे एटल कुदृष्टि तथा रागद्वेप छोडवानुं बताव्यु छ, आ प्रमाणे त्रण गाथानो अर्थ थयो, नामनिष्पन्ननिक्षेपामां दाचे प्रकारे नाम छे. ते आदान पद वडे नाम छे, तथा गौणपणाथी छे ते बनेने नियुक्तिकार कहे छे. 15 आयाणपएणावंति गोपणनामेण लोगसारुत्ति। लोगस्स य सारस्स य चउकओ होइ निकखेवो ॥ २३९ ॥ जला-१२ऊ For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५४९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( प्रथम जे ग्रहण कराय, ते आदान छे. तेनी साथ पद शब्द जोडतां आदान पद युं अने ते करणभूत बडे 'आवन्ती' ते नाम छे. अध्ययननी अंदर शरुआतमां (आवन्ती बोलाय छे ) ते आदान पद नाम थयुं तथा गुण बडे जे नाम बने, ते गौण अने तेथी जे नाम पडे ते गौण नाम छे. ते हेतुथी लोकसार नाम के. चौद रज्जु प्रमाण लोक छे तेनां सार ( परमार्थ ) लोकसार छे. पदवा आ नाम के तेथी लोकना तथा सारना दरेकना चार प्रकारे निक्षेपा थाय छे, नाम स्थापना द्रव्यभाव ले तेमां नाम लोक ते कोइनुं नाम लोक होय. चौद राजलोकनी स्थापनानुं चित्र ते स्थापाना लोक छे. तेनी स्थापना नीचली त्रण गाथाओोथी जाणवी. तिरिअं चउरो दोसुं, छदोसुं अठ्ठ दसय एक्केके । बारस दोसुं सोलस, दोसुं वीसा य चउसुं तु ॥१॥ पुण रवि सोळस, दोसुं बारस दोसुं तु हुंति नायक्वा । तिसु दस तिसु अट्ठच्छ, य दोसु दसुं तुचत्तारि ॥२॥ ओयरिय लोअमज्झा, चउरो चउरो यसवहिं णेया । तिअतिअ दुग दुग, एक्केकगं च जा सतमोए उ ॥३॥ ( गाथानो परमार्थ गुरुगमथी जाणवो कारण के टीका नथी) द्रव्य लोकतुं स्वरुप जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काळ ए छ द्रव्यनो समुह जेमां के ते द्रव्य लोक छे. अने भावलोक औदयिक औपशमिक विगेरे छ भाव वाळो छे ते जाणवो. अथवा सर्व द्रव्य पर्याय युक्तस्वरुपत्राळो जाणो मारना पण निक्षेपायां नाम स्थापना मृगमने छोडी द्रव्य सार कहे छे. बस थूल गुरुए, मझे देस पहाण सरिराई | धण एरंडे वइरे, खइरं च जिणादुरालाई ॥ २४० ॥ एमा पूर्वार्ध अने पश्चिमार्धमा यथासंख्य अनुक्रमे सार गणनां वधायां धन सार भूत छे, जेमके आ कोटीसार (करोडपति) For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥५४९॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit www.kobatirth.org 18 अथवा पांच कपर्दिका (बाळकोनी रनवानी कोडीओ) बालो छे. स्थूळमा एरंडो सार छे ( अहीं सार शब्द प्रकर्षवाची छे.) स्थळ मध्ये एरंडो अथवा भीडो प्रकर्ष थयेलो छे, गुरुपणामां बज भारे छे. मध्यमां खेरनुं झाड छे, देशमा आंबो अथवा वेणुं छे. । प्रधानमा ज्यां जे प्रधान भाव अनुभवे ते सचित्त अथवा अचित्त के मिश्रज होय ते, तथा सचित्तमां वे पगवाळो अपद छे, तेमां ॥५५० पगमा तीर्थकर छे. चो पगमा सिंह छे. अपद (झाडो) मां कल्पवृक्ष छे. अचित्तमां वैडूर्य मणिरत्र छे मिश्रमा तीर्थकरज ज्यारे विभूषित होय छे, शरीरोमां मुक्ति जवाने योग्य तथा विशिष्ट रुपनी प्राप्ति (तीर्थकर चक्रवर्तीने आश्रयी) होवाथी औदारिक प्रधान छे, गाथामां आदि शब्द शरीर साथे लेबाथी स्वामित करण अधिकरणमा सारता योजवी, जेमके स्वामीपणामां गोरसनुं सारभूत घी छे, करणपणामां मणीरवनी सारतावाला मुकुट वडे राजा शोभे छे, अधिकरणमा दहीमां घी, पाणीमा कमळ उगेलु शोभे छ विमेरे छे. हवे भावसार बतावे छे. भावे फलसाहणया फलओ सिद्धी सहत्त म परिहा। साहणय नाण देसणसंजमतवसा तर्हि पगयं ॥२४१। भाव विषयमा सार विचारतां फळ साधन तेज सार छे. जे, मतलब माटे क्रिया करीए ते प्राप्त थाय. (जेमके-विद्यार्थी वरस सुधी भणे अने पास थाय; त्यारे भावसार छे.) जोके, आ फळ प्राप्ति प्रधान छतां ते मळे. पछी तेनो अंत पण आवीजाय अने अनिश्चित पण छे. तेथी ते, अनेकांत अनात्यंतिक छे, ते कारणथी परमार्थथी जोतां निःसार छे. पण तेथी उलटुं एटले, सिद्धि15 पदज मेळबवू सार छे. ते के छ ? उ:-ते उत्तम सुखवडे श्रेष्ट छे. कारणके, ते एकांत सुखवाळी, अत्यंत सुख आपनारी सिद्ध RPSC वालाAARऊर For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie आचा० 18/गति छे. तथा तेमां कोई जातनी बाधा नथी, माटे ते सर्वोत्कृष्ट छ, अने तेनां साधनो प्रकृत (चालु) उपकारक मान दर्शन संयम, 181 अने तप छे ते भावसार सिद्धिफल मेळवदा तेनां साधन ज्ञानादिक छे तेमां आपणु कार्य के. एटले शानदर्शन चारित्ररुष-भाव सूत्रम् ॥५५॥ सारवडे अहीं अधिकार छे. तेथी ते ज्ञान विगेरे जे सिद्धि (मोक्ष) ना उपायो छे, तेनी भावसारता बतावे छे. ॥५५१॥ लोगंमि कुसमएसु य काम परिग्गहकुमग्गलम्गेसुं। सारो हु नाणदेसणतवचरणगुणा हियट्टाए । २४२॥ गृहस्थ लोकमां खराब (संमारी) सिद्धान्त छे, ते कामवासनाना आग्रहथी कुमार्ग छे, तेमां रक्त वनेला होवाथी काम परिग्रहनो आग्रही बनी गृहस्थ भावने तेओ प्रशंसे छे अने बोले छे केः गृहाश्रमसमो धम्मों, न भूतो न भविष्यति। पालयन्ति नराः शूराः क्लीवा पापण्डमाश्रिताः ॥ १॥ गृहस्थम जेवो धर्म थयो नथी, थवानो नथी, तेनु पालन शूर पुरुषो करे छे, पण कलीच (सत्व विनाना) पुरुषो तेने छोडी ४ बावा (साधु) बनी जाय छे, कारण के गृहस्थाश्रमने (गृहाश्रमने) आधारे बधा त्यागीओ रहे थे, तेवू सांभळीने (ओछी टू बुद्धिवाळा ) महामोहथी मूढ बनीने इच्छा मदन काममा प्रवर्ते छे, तेज प्रमाणे खरा साधु सिवायना वेशधारीओ पण जेमणे इन्द्रि योनी कुचेष्टा रोकी नथी तेओ पण ते वे प्रकारनी कामवासनाने वखाणे छे, एयी लोकमां साररूप ज्ञानदर्शन तप चारित्रना गुणो, 18 उत्तम सुखवाळी श्रेष्ट सिद्धि मेळववा माटे आदर करवा योग्य सार छे, कारण के ते हितसिद्धि आफ्नार छे, जो ज्ञानदर्शन तप 8 13 चारित्रना गुणो हित माटे सार छे, तो शृं करवं ते कहे छे: CA For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५५२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चऊणं संकपयं, सारपयमिणं दढेण धित्त । अस्थि जिओ परमपयं, जयणा जा रागदोसेहिं ॥ २४३ ॥ प्रथम शंका छोडी दे, अमारा करेला तप विगेरेनुं फल मोक्ष आपशे के नहि, एवो विकल्प ते शंका छे, ते शंकानुं पद ते निमित्तकारण छे, जेमके जिनेश्वरे कहेला इन्द्रियोथी न जणाय, एवा झीणा विषयो होवाथी ते फक्त आगम प्रमाणे मानवा जोइए, तेमां न समजतां संदेह थाय तो पण ते छोडीने आ ज्ञानादिक सार जे पूर्वे बतावेल छे, तेने दृढ पणे (स्थिरचित्ते ) कुमार्गे चालनाराओथी उगाया बिना निश्चलपणे मानवां, तथा पाळवां, ते शंका दूर करवा गथाना पाछला वे पदमां क ले के जीव छे, आम प्रथम जीवने बधा पदार्थमां प्रथम लेवाथी अने जीवप्रधान होवाथी बीजा अजीव विगेरे पदार्थों पण जाणी लेवा, ( के बधा पदार्थो विद्यमान छे ) तथा जीव वाळो ( शरीरधारी के बिना शरीरनो ) जीव जीवे छे, तथा जीवशे तथा ते संसारी जीव शुभ अशुभ कर्मना फलने भोगवनारो, अने ते 'हुं पोते' एम प्रत्यक्ष साध्य छे, अथवा तेने थती इच्छा द्वेष प्रयत्न विगेरे कादोना अनुमानथी पण साध्य के, तेज प्रमाणे अजीवो पण धर्म अधर्म आकाश पुद्गलने गति, स्थिति, अवगाह आपवाना; तथा वे अणु विगेरे स्कंधना हेतुरूप छे. तेथी, पांच द्रव्यसिद्ध थयां, ए प्रमाणे आस्रव-संवर बंध निर्जरा पण विद्यमान छे. कारणके, पुरुषा धानपणे छे. आ पदार्थमां आदिजीव अने अंते मोक्ष ग्रहण करवाथी वचला पदार्थों आवी जाय छे. एटले जीव तो सूत्रमां साक्षात् छे, अने मोक्ष हवे पछी बतावे छे के, परम तेज पद ते, परमपद छे. एम जाणवुं के, मोक्ष शुद्धपद कहेवानुं होवाथी विधमान छे. कारण के, ते बंधथी विरुद्धपक्षमां छे, अथवा बंधनी साथै अविनाभाविपणे छे. ( एटले बंध त्यारेज कहेवाय के कोइपण For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥५५२॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० ॥५५३॥ | अंशे बे पदार्थ जुदा पडे. जो, जुदा न पडे तो, एकज कहेवाय ते बंध न कहेचाय. माटे, जुदा पडे; ते मोक्षजीवने कर्मरूपी-अजीव / सूत्रम् M पदार्थ पुगळ स्कन्धरुपे कई अंशे मळेलो ते सर्वथा जुदो पडे ते संपूर्ण मोक्ष छे, अने थोडे अंशे जुदो पदे; ते देशमोक्ष छे.) हवे, मोक्ष जो होय; पण, ते प्राप्त करवानो उपाय न होय; तो, माणसो | करे? तेथी ते बतावे छे. 'यतना' एटले, रागद्वेष छोडवामा ॥५५३॥ यत्न करवो; ते प्रथम लक्षणरूप-संगम पण विद्यमान छे. तेथी, आ प्रमाणे जीव अने परमपद विद्यमान छे, ते (मोक्षमा) शंका दूर करीने सानादिक-सारपदने मेळववाह प्रयत्न करयो, तेनाथी पण अपर अपर (चढतो) सार तथा श्रेष्ठगति छे. ए, बतावी उपक्षेप कहे छे: लोगस्स उ को सारो!, तस्स य सारस्स को हवइ सारो?। तस्स य सारो सारं, जइ जाणसि पुच्छिओ साह ॥ २४४॥ चउद राजममाणनो जे लोक छ, तेनो सार छे ? ते सारनो भु सार ? ते सारनो शुं सार जो ए तमे जाणता हो; तो, हु 18/ & पुर्छ माटे कहो. लोगस्स सार धम्मो, धम्मपि य नाणसारियं विति। नाणं संजमसारं, संजमसारं च निवाणं ॥ २४५॥ ___बधा लोकनो सार धर्म के, धर्मनो सार शान छे, ज्ञाननो सार संयम छ, संयमनो सार निर्वाण छे. आ प्रमाणे नामनिक्षेपो कहो. हवे, सूत्रानुगममां मूत्र कहे जोइए. ते कई छे: आर्वतो केयावंती लोयंसी विप्परामसंति अद्याप अणहाए, एएसु चेव विप्परामुसंति, गुरु + For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५५४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से काम, तओ से मारते, जओ से मारते तओ से दूरे, नेव से अंतो नेव दूरे ( सु० १४१ ) ' आवन्ती ' - विगेरे, जेटला जीवो, मनुष्य, अथवा बीजा असंयत छे, तेमांना केटलाक चौद राजप्रमाण लोकमां गृहस्थ लोकमां गृहस्थ, अथवा अन्य तीर्थिक लोक छे, तेओ छ जीवनीकायाना आरंभमां प्रवर्तीने अनेक प्रकारे विषयना रसीया बनी पीडा करे छे. एटले दंडाथी के, चाबखाथी मारवा विगेरेथी दुःख दे छे. शा माटे दुःख दे छे ? ते कहे छे: धर्म, अर्थ, काम माटे, प्रयोजन आवतां जीवोनो घात करे छे ते बतावे छे. धर्मनिमित्त ते, शौच ( पवित्रता) माटे पृथ्वीकाय (काची माटी) ने दुःख दे छे. धन मेळवावा खेती विगेरे करे छे. काम ( शरीरशोभा) माटे आभूषण विगेरे बनावे छे. ए प्रमाणे बीजी कायोनी हिंसा करवा संबंधी पण जाणवुं. हवे, अनर्थथी (वीनाप्रयोजने ) ते फक्त शोखना माटेज शिकार विगेरे प्राणीनो नाश करनारी क्रीयाओ करे छे, तेथी, ए प्रमाणे प्रयोजने अथवा अप्रयोजने प्राणीओने हणी; ते छ जीवनीकायाना स्थानमां | विविध प्रकारे सूक्ष्मबादर पर्याप्तक- अपर्यायतक विगेरे भेदवाळां एकेन्द्रिय विगेरे प्राणीओने दुःख दे छे. पछी तेमांज पोते अनेकवार उत्पन्न थाय छे. अथवा, ते छ जीवनीकायाने बाधा करी तेनाथी बंधायलां कर्मवडे तेज कायोमां उत्पन्न थड़ने तेवा प्रकारोवडे कमने भोगवे छे, ते संबंधमां नागार्जुनीआ आ प्रमाणे कहे छे: " जावंति केइ लोए छकाय बहंसमारंभति अट्ठार अणट्टाए वा $9 विगेरे सूत्रमा आनो अर्थ आवी गयो छे. शंका-एम इशे; पण, शा माटे आवां कर्मी जीव करे छे के, जे अन्य कायमां जड़ने For Private and Personal Use Only लक सूत्रम ॥ ५५४॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५५५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोगवां पढे छे ? उत्तर 'गुरुसे० ' विगेरे तत्लने नहीं जाणनारा ते जीवने सुंदर शब्द विगेरे इच्छवा योग्य काम ( विषयो ) दुःखे - करीने छोडवा योग्य के ? कारणके, अल्प मत्ववाळा जेमणे पुण्यनो समूह पूरो नथी कर्यो; तेओने ते उल्लंघनुं दुष्कर छे, तेथी ते कायामां आरंभ करे छे, अने तेथी पाप बंधाय छे, तेथी शृं धाय ते कड़े छे, ते संसारी जीवे छ जीवनिकायने दुःख देवाथी तथा अधिक विषयलालसा करवायी पोते मारे ते आयुष्यनो क्षय ( मरणवश ) ने प्राप्त थाय छे, अने मरेला जीवने जन्म अवश्य थवानो छे, जन्ममां पालुं मरण थवानुं, ए प्रमाणे जन्म मरणरुप संसारसमुद्रमां उपर आवबुं. नीचे जनुं, तेथी जीव छुटतो नथी, पछी बीजुं ते शुं करे छे, ते कहे छे, 'जओ ' विगेरे जेथी ते मृत्युना मध्यमां पडेलो परम पदना उपायो ज्ञान विगेरे रत्नत्रयथी, अथवा | तेनुं कार्य मोक्ष तेथी दूर रहे, अथवा सुखनो अर्थी ते कामने त्यजतो नथी, अने विषय रस न छोडवाथी पाछो मरणना मुखमां जाय छे, तेथी जन्म जरा मरण रोग शोकथी घेरायेलो सुखधी दूर रहे छे, ते अधिक विषय रसीयाने मृत्युना मुखमां पडतां शुं थाय छे ते कहे छेले 'नेवसे,' विगेरे पछी ते विषय सुखना किनारे आवतोज नथी तेनो अभिलाष हृदयमां रहेवाथी काम वासनाने न त्यागवाथी संसारथी दूर नथी थतो, अथवा जेने अधिक विषय आस्वाद के ते कर्मनी अंदर ले के बहार छे ! उत्तर:- 'णेबसे. ' ते जीवकर्मा मध्यमां भिन्नग्रंथी होवाथी नथीज; कारणके, भविष्ययां तेनां कर्म अवश्य क्षय यशे तेम दूर पण नथी; कारणके | कोटी कोटी (कोडा कोडी ) सागरोपममां थोओ एवी तेनी स्थिति छे, पूर्वे कलां कारणोथी चारित्रनी प्राप्तिमांज ते कर्मनी अंदर नथी तेम दूर नथी. एम बोलवु शक्य छे. चारित्र आत्मामां एकवार फरश्युं होय; तो तेनो मोक्ष थाय छे, अथवा जेणे आ | प्राणों लेवारूप कर्म न कर्बु, ते संसारना अन्तर्भूत छे: के बहार वर्ते छे ! तेवी शङ्कानुं समाधान करे छे, ते जीव रक्षक साधुनां For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५५५॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आपा० ॥ ५५६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घातिकर्मो क्षय धवाथी केवळी ते संसारना मध्यमां न गणाय, तेम दूर पण नथी, कारणके चार अधातिकर्म बाकी छे, आ ( केवळीने आश्रयी छे) जेणे ग्रंथी भेद करीने दुष्प्राप्य एवं सम्यक्त्व प्राप्त कर्यु अने संसारना आरातीय तीरे (मोक्षमां जवानी तैयारीवाळो ) केवा अध्यवसायवाळो होय छे, ते कहे छेः से पासइ फुसियमवि कुसग्गे पणुन्नं निवइयं वाएरियं, एवं बालस्स जीवियं मंदस्स अवियणाओ, कूराई कम्माई बाले पकुवमाणे तेण दुक्खेण मृढे विप्परिआसमुवेइ, मोहेण गम मरणाइ एइ, एत्थ मोहे पुणो पुणो [ सू० १४२ ] जेनुं मिथ्यात पडल (पडदो) दूर थयेल छे, अने सम्पतवना प्रभावथी संसारनी असारता जाणेली छे, (दृश्य धातुनो अर्थ प्राप्तिना अर्थमा छे) ते जाणे छे के, कुशना अग्रभागे रहेला पाणीना बिंदु माफक संसारी (बाल) जीवनुं आयुष्य छे, अने ते पाणीना बिंदु उपर उपरथी आवता पाणीना बीजा बिंदुयी प्रेरणा थतां वायुना झपाटाथी पडतां वार न लागे, तेम आ बालजीवनुं जीवित छे, तेनुं क्षणमात्र जीवित जाणीने, तत्व जाणनारो डाह्यो साधु तेमां मोह न करे, माटे बाळ शब्द लीधो ले, पटले बाळ ते अज्ञानी छे, ते अज्ञानपणाथी जीवितने बहु माने छे, तेथी बाळ छे, मंद छे, सद्असत्ना विवेकथी शून्य छे, तेथी बुद्धिहीन होवाथीज परने जाणतो नथी, अने परमार्थने न जाणवाथीज जीवितने बहु माने के अने परमार्थ न जाणवार्थ ते शुं करे छे, ते कहे छे, 'कुरागि' विगेरे ते निर्दयतानां कृत्यों करे छे, हिंसा जूठ विगेरे जे बीजा लोकोने आश्वर्य पमाडे तेवां महान पाप अथवा अढारे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५५६॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥५५७॥ सपापस्थानने ते बाल जीव करे छ, (आत्मनेपद क्रियापद छेवाथी पोताने माटे ते करे ,) नेनु कळ बतावे थे, क्रूर कर्मना विषा-16 आचाकथी मेळवेला दुःखबहे शें करवं? एम विचारमा मढ बनेलो क्या कृत्यथी मारूं आ दःख दर थशे, एम मोहथी मोहित धयेलो विप- होस (उलटो रस्तो) पामे छे, एटले ते मृद जे पाणीनी घात विगेरे पापकृत्यो जे दुःख मळयानां कारणो छे, तेज हिंसाना कृत्य ॥५५॥ दर करवा माटे फरी करे छे! बळी 'मोहेण' मोह अज्ञान छे, अथवा मोहनीयकर्म के, ते मिध्यान कपाय विषयनो अमिलापरुप छे, तेना बहे मूढ थयेलो नवां अशुभ कर्म बांधे छे, तेनाथी गर्भमां जाय छ, पछी जन्म वालावस्थ कुमार यवन बुढापो विगेरे तेने मळे के बळी ते विषय कपाय विगेरेथी कर्म नवां बांधीने आयुना क्षयथी मरण पामे छे, आदि शब्दथी पाछो गर्भ जन्म विगेरे 1 मेळवे, एम जाणवू. पछी ते नरक विगेरेनां दुःख पामे छे, ते कहे छे. 'पत्य' उपर कहेला मोह कार्य ते गर्भ मरण विगेरेमां वारवार अनादि अनंत चार गतिरूप संसार कांतारमा ते जीव भ्रमण करे छे, पण तेनाथी मुक्त यतो नथी, त्यारे केवीरीते भ्रमण न करे ? उत्तरः-मिध्यात कपाय अने विषयना अमिलापथी दूर रहेतो ते केवी रीते दर थाय ? उत्तर:-विशिष्ट ज्ञाननी उत्पतिMथी? प्र-ते केवी रीने मळे ? उ:-पोहना अभावधी ? जो आ प्रमाणे एक बीजाने आश्रये रहेला के, जेमके मोह अज्ञान अथवा मोहनीयकर्म तेनो अभावथी विशिष्ट जान, ते पण मोहनीयकर्म दर पवाथी र प्रमाणे इतर इतर आश्रय दोष खुलोज थाय छे, ? एटले एम थयु के ज्यां सुधी विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति न थाय त्यां सुधी कर्म शांत करवानी मचि पण न वाय. उ:-तमारो कहेलो दोष लागतो नथी. कारण के अर्थ (पदार्थ) नो संशय आवतां पण प्रवृत्ति यती देखाय छे, ते मूत्र कहे छ:संसयं परिआणओ संसारे परित्राए भवइ, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिनाए भवइ (सू For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ५५८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाजुमा अंश जेम देखाय त्यां संशय थाय छे, ते अर्थ संशय, अने अनर्थ संशय एम ये भेद छे. अहीं अर्थ ते मोक्ष, तथा मोक्षनो उपाय छे, तेमां मोक्षमां संशय नथी, कारण के तेने परम पद एम स्वीकार्य छे, पण तेना उपायमां संशय होय तो पण महत्ति थाय छे, अर्थ संशय ते प्रवृत्ति अंग छे, भने अनर्थ ते संसार अने संसारना कारणो छे, तेना संदेहमां पण निवृत्ति थाय छेज, कारण के अनर्ष संशय ते निवृत्तिनुं अंग छे, एथा अर्थमां अथवा अनर्थमा रहेला संशयने जाणतो होय तेने हेय उपादेयनी महति थाय छे, तेज परमार्थथी संसारतुं परिज्ञान छे, ते बतावे छे, ते परिज्ञानवडे संशयाने जाणनाराथी चार गतिवाळो संसार अथवा तेनुं मूळ कारण मिध्यात अविरति विगेरे अनर्थपणे न परिज्ञाकडे जाणेलुं थाय छे, ते बतावे छे, अने प्रत्याख्यान परिज्ञाबडे त्याग वाय ले, पण जे संशयने नथी जाणतो, ते संसारने पण नथी जाणतो, ते बतावे छे, 'संशयं' संदेहने को प्रकारे न जाणनारानी हेय उपादेयनी प्रवृत्ति नहीं थाय, अने प्रवृत्ति बिना संसार अनित्य छे, अशुचिधी भरेलो छे, घणां दुःख आपनारो छे, निःसार छे. एम वे जाणतो नथी, आ नियंत्र केवी रीते धाय-के ते संशय जाणनारे संसार जाण्यो के ? तथा शुं निश्रय करतो ? उ:- संसारना परिज्ञाननुं कार्य विरतिनी प्राप्ति थाय छे, तेथी सर्व विरतिमां पृष्ठ (श्रेष्ट) विरतिने बाबा कहे छे. जे छेए से सामरियं न सेवइ, कट्टु एवमवियामओ बिइया मंदस्स बाळया, लद्धा हुरत्था पडिलेहाय आगमिता आणविजा अणासेवणयः ति बेमि ( सू० १४४.) जे छे एजे निपुण छे, जेणे पुण्य पाप जाण्यां के, ते मैथुन (संसार संबंध) मन वचन कायाथी करतो नथी, तेनेज संसार For Private and Personal Use Only सूत्रमं ॥५५८॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५५९॥ www.kobatirth.org जाणनारो कहेवो, ( ते जे स्त्रीसंग मन वचन कायथी न करे) पण मोडनीयकर्मना उदयवी जे पासत्या (शिथिल साधु) के, ते सेवे छे, अने सेवीने पछी साता तथा गौरव नाश थवाना भयथी शुं करे ते कहे छे, कट्टु एकांतमां कुचाल सेवीने गुरु विगेरे पूछतां जुढं बोले आवी रीते जुटुं बोली पाप छुपावनारने शुं थशे ते कहे छे, 'बिइआ' अबुद्धिमानने प्रथम तो कुकर्म कर्तुं ते अज्ञानता छे, अने पाएं जुड़े बोलतां मृषावादनो दोप लागे छे, तथा ते फरी न करवापणे फरी अनुत्थान (चालु) ले, आ संबं नागार्जुनीआ आ प्रमाणे कहे छे: " जे खलु विसए सेवई सेवित्ता वाणालोएड़, परेणवा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परंसएण वा दोसेण पाविद्वयरेण वादोसेण उवलिं पिजंत्ति " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे कुकर्म करे करीने आलोचना करतो नथी, अथवा बीजाए पूछतां जुटुं बोले छे, अथवा पापी पोताना दोषो वढे वधारे वधारे लेपाय छे. जो एम छे, तो शुं करं, ते कहे छे, 'लद्धाहु' कामो प्राप्त थये छते पण 'हुरत्थे ' चित्र क्षुल्लक (मुनि) माफक तेनां कडवां फळ जाणीने चित्तथी ते बहार करे (अथवा हुशब्द अपि अर्थमां लइ रेफनो आगम थयो ते बीजाना अर्थमा प्रथम विभक्ति लेतां) आवो अर्थ थाय छे के, मेळवेला होय, ते विपाकद्वारवडे विचारीने तथा ते शब्दादिनां कडवां फळ जाणीने बीजाने तेवां पाप करवानी आज्ञा पण पोते न आपे, तेम पोते पण छोटे, एवं सुधर्मास्वामी कहे छे, जे में पूर्वेकं, ते में एक सरखो श्रेष्ट ज्ञान प्रवाह मेळ्ळ्यो छे, अने शब्दादिनां कडवां फळने जाणवाथी देखवाथी जिनेश्वरना वचन For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५५९॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५६०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपर मने आनंद थयो छे, (प्रथम भगवाननुं वचन सांभळ, तेथी कढवां फळ जाण्यां पछी अनुभव्यं तेथी विश्वास थयो) तेथी हुं हुं हुं के:पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिजमाणे, इत्थ फासे पुणो पुणो, आवंसी केयावंती लोयंति आरंभजीवो, एएस चेव आरंभजीवी, इत्थवि बाले परिपश्चमाणे रमई पावेहिं कम्मेहिं असरणे सरणंति मन्त्रमाणे, इहमेगेसिं एगचरिया भवइ, से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोभे बहुए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे आसवसन्ति पलिउच्छन्ने उद्वियशयं पत्रयमाणे, मा मे as अक्खू अन्नायपमायदोसेणं, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ, अट्टा पया माणव ! कंमकोविया जे अणुवरया अविजाए पलिमुकूखमाहु आवहमेव अणुपरियहंति तिबेमि ( १४५ ) | लोकसारे प्रथमोदेशक: ५-९ ।। हे एकांत धर्म रक्त मनुष्यो ? तमे देखो ? ( रुपमां बहु वचन लेवाथी आदि शब्दनो अर्थ धाय के एटले रुपआदि) के रुप विगेरे इन्द्रियोना रस जे खास कडवां फळ आपनार असार छे, तेमां गृद्ध थयेला अथवा संसारमां पडेला जीवो स्वाद लइने पछी दुःख भोगवा नरक विगेरे पीडा स्थानमां गयेला छे, ते प्राणीओने जुओ ? ( कोइने नरक उपर विश्वस न होय तो कसाइखानाम पशु पक्षीओने गळे छुरी फरती देखो, के ते पशु पक्षीओ आवी दशामां पडवानुं भुं कारण छे, तथा पशुने मारनारा मरावनारा For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥५६०॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५६१॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांसनो स्वाद करनारनी भुं दशा थशे, ते पण विचारो ?) ते विषय रसना स्वादुओ इन्द्रिओने वश थइ शुं फळ मेळवे ते कई छे, 'एत्थकासे' आ संसारमा इन्द्रियथी परवश थयेलों मूढ बनीने कर्मनी परिणतिरूप स्पर्शोने वारंवार तेवा तेवा स्थानोमां ते भोगवे, पाठांतरमां 'एत्थमोहे' छे, आ संसारमां मोह ते अज्ञान अथवा चारित्र मोहमां वारंवार मूढ बने छे, कोण ? उत्तरः- आवंती-जे कोई गृहस्थ आ लोकमां पेट भरवा पाप आरंभ करनारा छे तेओ (बीजाने दुःख देइने) पोते पाछां तेवां दुःख मेळवे छे, बळी ते गृहस्थोने आश्रय करीने रहेल आरंभ करनारो करावनारो अनुमोदनारो जनेतर के पासत्थो वेष विडंबक साधु छे, ते पण गृहस्यो माफक दुःख भोगवे छे, ते बतावे छे, एएस सावध आरंभमां पडेला गृहस्थोमां शरीर निर्वाह माटे रहेतो जैनेतर के पासत्यो | साधुपण आरंभजीवी होय, ते पूर्वे बतावेला दुःखनो भोगीयो थाय, वळी गृहस्थ के जैनेतर तो दूर रहो, पण जे संसारसमुद्रथी तरारूप सम्यक्त्व रत्र मेळवीने मोक्षनुं एक कारण विरति परिणाम पामीने पण जो पापकर्मना उदयथी चारित्रने पूरुं न पाळे तो ते पण सावध अनुष्ठान करनारो बने छे, ते कहे छे 'एत्यवि' आ अईत् प्रणीत संयम मेळवीने रागद्वेषथी व्याकुल बनेलो अंदरथी तपती अथवा उत्कंठा करतो विषयनी आकांक्षाथी रमे छे, ? कोनी साथे ? उत्तर:- पाप कृत्योवडे विषयरस लेवा सावध अनुष्टानमां चित्त लगाडे छे, शुं करतो ? 'असरण' कामाग्रि अथवा पापकर्मथी वळतो जो के सावध अनुष्ठानना अशरण छे, छतां तेनुं शरण खेतो भोगनी इच्छावाळो अज्ञान अंधकारथी छवायेलो दृष्टिवाळो ( कामांत्र बनेला ) वारंवार अनेक दुःखोने भोगवे छे, गृहस्थ के जैनेवर दूर रहो पण प्रवज्या (दीक्षा) लेइने पण केटलाक वेष विडंबको दुराचारोने आचरे छे, ते बतावे छे, 'इहमे' आ मनुष्य | एकला करे छे, (चराय ते चरण अथवा चर्या एकलानी चर्या ते एक चर्या) ते एकलविहारीपणुं प्रशस्त अप्रशस्त एम वे भेदो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ।। ५६१ ।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व छे, तथा ते द्रव्यथी भावथी एम वे भेदे छे, तेमां द्रव्यथी ने गृहस्थ पाखंडी विगेरेनु विषय कषाय विगेरे माटे एकलातुं फरखं धाय, अने भावधी अप्रशस्त न होय कारण के राग द्वेषना अभावथी ते एक चर्या होय छे, अने रागद्वेषना अभावमा अप्रशस्त एक चर्या ते द्रव्यथी प्रतिमा धारण करेला गच्छपांथी नीकळेला जिनकल्पीने संघ विगेरेना कार्य माटे एकला जवू पडे ते छे, अने भावथीम सुत्रम | तो प्रशस्त एक चर्या राग द्वेषना विरहथी थाय छे, तेमां द्रव्यथी तथा भावथी एकचर्या ते केवळ ज्ञान उत्पन्न न यथेला तीर्थक रोए संयम लीधा पछीनो छद्मस्थ काल छे, बाकीना वधा चार भांगामां आवे छे, तेमा प्रथम अप्रशस्त 'द्रव्य एक चर्यानु' दृष्टांत * कहे छे:-पूर्वे देशमां धान्य पूरक नामना संनिवेशमा जुवान वयमां देवकुमार जेवा रुपवान तापसे गामना नीकळवाना रस्ता उपर छठनो तप शरु कर्यो, बीजा तापसे पासेना गाममा पर्वतनी गुफामां अठम तप करीमे अतापना लेवा लाग्यो पछी गाममाथी नीक-18 ळतां ते तापसने ठंड ताप सहेतो देखीने लोकोए तेना गुणोधी रंजीत थइने आहार विगेरेथी तेनुं सन्मान कयु, लोकोर पूजतां तथा सत्कार करतां ते तपासे लोकोने कयु के माराधी पण बीजो पहाडनी गुफाचाळो तापस धारे कष्ट सहन करे छे, तेथी लोकोए | तेने वारंवार स्तुति करतो जोइ तेमणे ते वीजा तापसनी पण पूजा करी, अने पारकाना गुणो गावा दुष्कर छे, एम जाणीने तेनो पण सत्कार कर्यो. आ प्रमाणे बन्ने भाइए एकला रहीने पूजावा माटे तप कर्यो, तेथी ते अभशस्त छे. आ प्रमाणे बीजा पण एक चर्याना दृष्टांतो यथा संभव विचारी छेवा. आ प्रमाणे सूत्रार्थ कहेतां स्त्र स्पर्शिक नियुक्तिवडे नियुक्तिकार कहे छे. • चारो चरीया चरणं, एगहुं वंजणं तहिं छक्क। दव्यं तु दारु संकम जल थल चाराइयं बहहा ॥२४॥ For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५६३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चार (ते चर धातुनो अर्थ गति तथा खावाना अर्थमां छे, तेनुं भावमां चार रुप बने छे) तथा चर्या शब्द ( ३-१-१०० ना सूत्र प्रमाणे) बने छे, तेम चरण पण बने छे, एक ते अभिन्न, अर्थ ( समान अर्थ ) बाळा ते एकार्थ कद्देवाय छे. जेना बडे अर्थ प्रगट कराय ते व्यंजन शब्द छे, अर्थात् चार, चर्या अने चरण ए त्रणे शब्द एक अर्थवाळा छे, तेथी तेना जुदा निक्षेपा छ प्रकारे छे, नाम स्थापना मृगमने छोडीने श शरीर भव्य शरीरथी जुदो 'द्रव्य चार' ते अडधी गाथामां बताव्यो छे, 'दव्वं तु' तु शब्दनो अर्थ पुनः छे, द्रव्य आधी रीते थाय छे, दारु (लाकडं) चाले हे, ते जलयां तथा स्थलमां चाले छे, तेथी ते प्रथम कहे छे, ते लाकडं | जलमा स्थलमां अनेक प्रकारे चाले छे, एटले लाकडानो पूल विगेरे पाणीयां बनावे छे, अने स्थलमा खाडा विगेरे ओलंगवा माटे | लाकडां गोटवे छे तेमज जलमां लाकडानी नाववडे चलाय के, जमीन उपर रथ विगेरेथी चलाय छे तेमज आदि शब्दथी ते लाकडं | महेल बनाववा विगेरेमां दादर बनाववामां काम लागे छे, तथा जे जे द्रव्य एक देशथी बीजा देशमां जवा माटे वपराय ते द्रव्य चार छे. हवे क्षेत्र चार विगेरे कहे छे, वित्तं तु जंमि खिते, कालो काले जहिं भवे चारो। भावंमि नाण दंसण, चरणं तु पसत्थ मपसत्थ ॥२४७॥ जे क्षेत्रमा चार (चालवा करीये अथवा जेटलं क्षेत्र चालीए, ते क्षेत्र चार कहेवाय छे, ते प्रमाणे जे कालमां चालीए, अथवा जेटलो काळ चालीए ते काळ चार छे. भावमां चारके चरण चे प्रकारं छे, प्रशस्त चरण अने अप्रशस्त छे. तेमां प्रशस्त चरण ते 'ज्ञान दर्शन अने चारित्र' छे, अने For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५६३॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५६४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एनाथी उलदुं अप्रशस्त चरण ते ग्रहस्थ भने अन्यदर्शीनीओनुं संसारी वर्तन छे. तेथी आ प्रमाणे द्रव्य विगेरे चार प्रकार तुं चरण बतावीने वर्तमानमां उपयोगीपणे साधुनो प्रशस्त भाव चार प्रश्न द्वाराए नियुक्तिकार बतावे छे. लोगे चउविहंमी, समणस्स चउविहो कहं चारो ? होई विई अहिगारो, विसेसओ खित्तकालेसुं ॥२४८॥ चार प्रकारना द्रव्य क्षेत्र काळ अने भावरूप लोकमां श्रम सहेनार ते श्रमण (यति) नो केवीरीतनो द्रव्यादि चार प्रकारनो चार छे ? उत्तर - अहीं धृति (धैर्यता ) नो अधिकार छे, एटले चार प्रकारे धैर्यता राखवी. -:- चार प्रकारनी धैर्यता -: द्रव्ययी धैर्यता — एटले अभ्स ( रस रहित) तथा विरस ते तुच्छ तथा लुरु विगेरे भोजन मळे, तो पण तेमां धैर्यता राखवी. क्षेत्र धैर्यता -- एटले कुतीर्थिके लोकोने पोताना रागी चनाच्या होय, अथवा कुदरतीज लोको अभद्रक होय (तो साधुनुं बहु मान न करे तेथी) साधुए उद्वेग न करवो, काळ धैर्यता ---ते दुकाळ विगेरे मुश्केलीना वखतमां जेतुं भोजन विगेरे मळे, तेमां संतोष राखवो. भाव धैर्यता - ते कोइ आक्रोश करे हांसी करे अपमान करे, तोपण क्रोधायमान न यनुं, पण विशेष करीने तो क्षेत्रकाळमां testj होय त्यां वधारे धैर्यता राखवानी छे, कारण के प्राये तेना निमित्तेज द्रव्य अने भात्रमां अधैर्यता थाय छे. हवे फरीथी द्रव्यादिकना भांगायी साधुनो चार कहे छे. For Private and Personal Use Only X सूत्रम ||५६४ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा018 1/पावोवरए अपरिग्गहे अ गुरुकुलनिसेवए जुत्ते । उम्मग्गवजए रागदोसविरए य से विहरे ॥२४९॥ सूत्रम _ 'पापोपरतः'-एटले पापना हेतु जे सावध अनुष्ठान हिंसा, जूठ अदत्त आदान (चोरी) अने ब्रह्मचर्य भंग ए पापोथी पोते दूर रहे, तथा परिग्रह न राखे ते अपरिग्रह पटले द्रव्यचारमा पांचे महावत पळवान बतायु, तथा क्षेत्र चार हवे बतावे के के-गुरु--॥५६५॥ 15 कुल ते गुरु पासे रहे, तथा तेनी सेवामा रहे. एटले आखी जोंदगी सुधी गुरुना उपदेश विगेरेथी ( तेमनं मन प्रसन्न करीने) * चारित्र निर्मळ पाळवं. आधी काळ चार बताव्यो. के आखी जोंदगी सुधी बधो कार गुरुनी आजामा वर्तवू. & वे भावचार कहे के, साधु मार्ग उलटो ते उन्मार्ग , एटले कोइ पण जातनं कुकर्म होय तेनं वर्जन करे, ते उन्मार्ग वर्जक छे. तथा रागद्वेषथी विरक्त बनीने ते साधु विहार करे तथा संयम अनुष्ठान योग्यरीते करे. नियुक्तिकारे चार बताव्यो. हवे पार्छ मूत्र आश्रयी चार (चर्या) बतावे छे. तेमा पूर्व विषय कषाय निमित्त जे एक चर्या (एकलविहार ) करे. ते केवो 1 थाय ते कहे छे. 'से बहुकोहे'-विगेरे एटले विषयगृद्ध बनेलो इन्द्रियोने अनुकूल वर्तनारो एकलो पडेलो पतित साधु अथवा गृहस्थ 8 होय, तेनु बीजा माणसो अपमान करे तो ते बहु क्रोधवाळो बने, तथा कोइ तप विगेरेना कारणे वंदन करे तो बहुमानवाळो (अहं में Pकारी) बने. तथा कुरुकुचादि (कुचेष्टा) तथा ल्क (खोटी) तपश्या करीने बहु कपटी बने अने आ बधुं कृत्य आहार विगेरेना। लोभथी करे माटे ते बहु लोभी बने, अने तेज कारणथी बहु रजवाळो एटले बहु पापरूप कर्म रजवाळो अथवा आरंभ विगेरेमा ६ बहु रक्त बने तेथी बहुरत कहेवाय छे, तथा नटनी माफक भोगो (संसारी मुख) लेवा बहु वेषो धारण करे ते बद्दु नट कहेवाय. है ऊछन्न For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ५६६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | तेज प्रमाणे घणा प्रकारे शउपणुं करे तेथी बहु शठ कहेवाय, तथा संसारी कृत्यना घणा विचारो करे तेथी बहु संकल्पी (संकल्पवाळी) कहेवाय एज प्रमाणे चोर विगेरेनी पण एक चर्या (अप्रशस्तमां) जाणवी, आवी रीतनो होय तेनी केवी अवस्था थाय, ते कहे छे:'आसव' विगेरे आस्रवो ते हिंसा विगेरे छे, तेमां सक्त (संग) राखे ते आसव सक्त कहेवाय, अर्थात् हिंसा विगेरे पाप करनारो होय, 'पलित' ते कर्म तेनावडे अविच्छिन्न छे एटले कर्मयी अवष्टब्ध (लेपायलो) हे आवरीते अनेक दुर्गुणवाळो होय, छतां पण पोते (लोकोने ठगचा) शृं कड़े ते कहे छे:— उट्टिय - धर्म चरण ( चारित्र) माटे हुँ उद्यम करनारो खुं, एटले पतित साधु पण एज प्रमाणे बोले के हुं चारित्र पाछे हुँ, अने से प्रमाणे न पाळवाथी कर्म वडे लेपाय छे, अने ते साधु वेषधारी मोढेथी पोताने साधु बोलतो आम्रवोमां वर्ततो छतां आजीत्रिकाना भवथी केवी रीते वर्ते छे. ते कहे छे. 'मागे' मने बीजा कोइ पाप करतां न देखो एथी ते पाप छानां करे छे, अथवा ते अज्ञानथी अथवा प्रमादना दोपथी पाप करे छे, वळी 'सयार्य' सतत (निरंतर) मोहनीय कर्मना उदयथी अथवा अज्ञानथी मूढ बनेलो श्रुत भने चारित्र धर्मने जाणतो नथी, एटले तेने धर्म अधर्मनो विवेक नथी, जो आम छे, तो भुं करवुं ते कड़े छे:— अट्टा - विषय कषायोथी आर्त (पीडायला) बनीने तेओ आठ प्रकारनां कर्म बांधव कोविद (कुशल) छे. पण धर्म अनुष्ठानम कुशळ नथी, [ एवं गुरु सांभळनार भव्य जीवोने आश्रयी कहे के. ] हे जंतुओ ! हे मनुष्यो ! तमे जुओ ! (मनुष्य धर्म करवाने योग्य होवाथी मनुज शब्द लीघेल छे ) हवे क्या मनुष्यो निरंतर धर्मने न समजतां कर्म बन्धमा कुशल छे ? ते कहे छे: ! 'जे अणुवरया' - जे कोइ (चोकस अमुक एम नहीं) पण पाप अनुष्ठानथी त्रिरक्त [निवृत्त] न होय, तेओ ज्ञान दर्शन चारित्र For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥५६६॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५६७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे मोक्षनो मार्ग छे, तेज विद्या छे, तेथी उलटी अविद्या छे, तेनाथी पण तेओ परि [वधी रीते] वेरायलां छतां मोक्ष कहे (अर्थात् अज्ञान दशामां रही कुकर्म करी तेनाथी मोक्ष माने) तेओ धर्मने जाणता नथी, हवे धर्मने जाणनारो शुं मेळवे ते कहे छे. 'आवट्ट-भाव' आवर्त्त ते संसार छे. ते संसारमां कुबाना अरटना न्याये जन्ण मरणनुं भ्रमण कर्या करे छे, अने नरक विगेरे चार गतिमां ते वारंवार जन्म ले छे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे, आ प्रमाणे लोकसार अध्ययनमा प्रथम उद्देशो समाप्त भयो. लोकसार अध्ययननो बोजो उद्देशो हवे बीजो उद्देशो कहे छे, ते नो आ प्रमाणे संबंध है. पहला उद्देशामां कछु के एक पर्यायवाळ (त्यागी) बनीने पण सावय अनुष्ठान करवाथी तथा विरति ( चारित्र) न पाळवावी तेये मुनि न कहेवो, आ बीजा उद्देशामां तेनाथी उलटो ते चारित्र पाळीने | पाप अनुष्ठान त्यागनाराज मुनि कहेवाय छे, ते कहे छे. आ संबंधथी भावेला उद्देशानुंं पहेलुं मूत्र कहे छे. आवन्ती केयावन्ती लोए अणारंभ जीविणो तेसु, पत्थोवरए तं झोसमाणे, अयं संधीति अदक्खू, जे इस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति अन्नेसी एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, उहिए नो पमायए, जाणित दुकूखं पत्तयं सायं, पुढो छंदा इहमाणत्रा पुढो दुकूखं पवेइयं से अधि For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५६७॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org हिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्ठो फासे विपणुन्नए (सू० १४६) आचा031 आ मनुष्य लोकमां जेओ केटलाक मनुष्यो आरंभ रहिन जीवनारा छे, अहीं आरंभ एटले सावद्य अनुष्ठान अथवा पमादीपणुं छे कई छे के सूत्रम् ॥५६८॥ आदाणे निक्खेवे, भासुस्सग्गे अठाणगमणाई । सहो पमत्त जोगो, समणस्सवि होइ आरंभो ॥१॥ IM॥५६८॥ कोइ पण वस्तु लेवी के मुकवी, बोलवू. मल परठवो, स्थानमा रहे. अथवा जदूं आव, आ वधुं कार्य साधु जो प्रमादथी करे,si तो तेने आरंभ (नो दोष) लागे छे, पण तेथी उलटुं ते प्रमाद न करे, तो अनारंभी कहेवाय छे, तेवू निरारंभ जीवन गुजारे छे, तेवा साधुओ समस्त आरंभथी निवृत्त याला छे, अने जे गृहस्थीमो पुत्रकला के पोनाना शरीर विगेरेना रक्षण मादे आरंभ करे , 18| ला तेमना उपर जीवन गुजारे , तेनो भावार्थ भा छे, के सावध अनुष्ठान करनार गृहस्थी छे, नेमना आश्रये पोताना देखनो निर्वाह करवावाला अनारंभ जोबनवाळा ते साधुओ होय छे, जेम कादवना आधारे रहेल छतां कमळ निर्लेप होय हे, नेम तेश्रो निर्लेप छे, जो एम छे, तो भुं समज. ते कई के, आ सावध आरंभवाळा कर्तव्यमा संकुचित गात्रवाळो बने. अथवा अहीं जिनेश्वर कहेला | धर्ममा रही पापारंभधी निवृत्त थाय, प्रश्न-ते शुं करे? उ०-ते सावध अनुष्ठानथी आवेल (थता) कर्मने क्षय करतो मुनि भावने भजे प्रश्न-शृं आलंबन लइने उपरत थाय? उ०-'अयंसंघी' विगेरे (अविवक्षित कर्म वताच्या विनानो धातु होय ते पण अकर्मक धातु ती थाय छे. जेमके, जो ? मृग दोडे के ! एम अहीं पण "अद्राक्षीत् क्रिया छतां पण अमंघि एम प्रथमा विभक्ति करी छे.) आ प्रत्यक्ष नजरे देखातो आर्यक्षेत्र मुकुलमा जन्म इन्द्रियांनी पूरी शक्ति धर्मनी श्रद्धा नथा वैराग्य लक्षण वाळो अवसर मळ्यो छे, अथरा मिथ्यात्वनो । कला-CGES For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय थयो के. अथवा मिथ्यात्वनो हाल तेने उदय नथी, एटले सम्यक्त्तनी माप्तिना हेतुभूत कर्मविवर लक्षणवाळो संघि [अवसर] आचा० अथवा शुभ अध्यवसायना जोडाणरूप संघि तने मल्यो छे, तेने तारा आत्मामा स्थापन करेलो तुं नजरे जो, एथी हवे तुं एक क्षण पण || सूत्रम् ॥५६९॥ भमाद न करजे. विषय विगेरेना कारणे प्रमादी न थइश, क्यो प्रमादी न थाय ? उत्तरः-'जे इमस्स' जे एटले जेणे तख प्राप्त कयु, ॥५६९ एवा तवज्ञानीने 'जेना बडे आठ प्रकारर्नु कर्म' विशेष करीने ग्रहण थाय ते इन्द्रियांवाल विग्रह (शरीर) औदारिक छे, तेनो आ वर्तमानमो समय [क्षण] सुखमां के दुःखमां वीत्यो. अने भविष्यमां वीत. ते दरेक क्षण शोधवानो खभाव छ, ते अन्वेषी कहेवाय छे, अने ते सदा अप्रमत्त रहे छे, आचार्य कहे छे के आ हुँ नथी कहेतो पण 'एसमग्गे आ कहेलो मोक्ष मार्ग आर्य पुरुषोए कहेलो .एटले बधा त्यागवारूप धर्म (कुतीर्थ विगेरे) थी दूर रही मोक्ष किनारे पहोंचेला एवा तीर्थकर गणधरोए प्रकर्षथी पूर्वे कहेलो छ, वळी 8 तीर्थकरोए पूर्वे कहेलो अने हवे कहेबातो मार्ग को छे, एटलुज नही पण ते प्रमाणे वर्तवानुं छे.ते कहे छे. 'उहिए'-संधि (अवसर) मळेलो है। जाणीने धर्मचरण माटे तैयार थएलो तु [साधु] एक क्षणमा पण प्रमाद न करीश. वळी चीजु भुं समजवानुं छे? ने कह छे-जाणित्तु-दरे8 कमाणीनुं दुःख अथवा तेनुं मूळ कारण कर्म जाणीने तथा मनने प्रसन्न करना मुख जाणीने तु प्रमादी न थइश. बळी दरेक जीवने दुःख अथवा कर्म जु९ छे, एटलंज नहि पण कर्मनुं मूळ कारण अध्यवसाय पण दरेक पाणीनो जुदोज छे.ते बतावे छे, 'पुढो' जेओनो अभिपाय प्रथा छे तेओ प्रथक् छंदवाळा कहेवाय छे. एटले जुदी जुदी जातना बन्धना अध्यवसायना स्थानवाला छे. तेओ 'इ' 18 ते आ संसारमा अथवा संज्ञावाला संज्ञी लोकमां मनुष्यो छे. अने तेज प्रमाणे बीजा जीवो पण जाणवा, अने दरेक संझी प्राणीनो द, जुदो जुदा संकल्प होवाधी तेना कार्यरूप कर्म पण जुदुंन छे, अने तेना कारणरूप दुःख पण जुदा रुपवाडं छे, अने कारण भेद लें लखनAAEX For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आची सूत्रम् ॥५ ॥ ॥५७०॥ याय तो अवश्ये कार्य भेद थाय छे, तेथी पूर्व कहेलुं फरीयाद करवावीने कहे हे, 'पुढो' दुःखना उपादानना भेदथी पाणीोर्नु दुःख पण जुएं जुएं बताव्युं कारण के बघा प्राणीओने पोताना करेलां कर्म भोगववामा इश्वर (समर्थ)पणुं छे, पण बीजार्नु करेलुं पोते न भोगवे आधु मानीने भुं करे ? ते कहे हे, से-ते अनारंभ जीवी साधु प्रत्येक प्राणीना सुख दुःखना अध्यवसायने जाणनोरो जुदा जुदा उपायो वडे प्राणीभोनी हिंसा न करतो तथा जुळु न बोलतो, (संयम पाळे) तेम तुं पण जो (मूत्रमा प्राकृतना अथवा आप वचनथी 'पश्य'नो लोप थयो छे. ए प्रमाणे पर स्वमां पण ज्यांपद न लीधुं होय त्यां लेबु) आवीरीते जीवहिंसा न करनारो बीजु शुं करे ते कहे छे, पुट्ठो-ते पांच महाव्रतमा स्थिर रहीने जे प्रमाणे संयम पाळयानी प्रतिज्ञा लीधी . ते प्रमाणे पाळवामा उद्यम करे, अने परिसह उपसर्गो आवतां तेनाथी यता शीत उष्ण विगेरे स्पर्श अथवा दुःखना स्पर्श आये तेने सहन करी आकुल न थाय पण संसार असार छे विगेरे जुदी जुदी भावनाओवडे (धर्ममां) प्रेरे, अने प्रेरणा ते सम्यक्प्रकारे सहे. पण ते दुःख पडवाथी आत्माने दुःखी न मानवो. (व्याकुल न थर्बु) पण जे समभावे रही परीषहोने सहे, तेने शुं गुणो थाय, ते कहे छे: एस समिया परियाए वियाहिए, जे असत्ता पावहिं कम्मेहिं उदाह ते आयंका फुसंति, इति उदाह धीरे ते फासे पुट्ठो अहिया सइ, से पुर्वि पेयं पच्छा पेयं भेउरधम्मविद्धंसगंधम्ममधुवं अणिइयं असासयं चयावचइयं विपरिणामधम्म, पासह एवं रूवसंधि (मू० १४७) पूर्वे कहेलो जे परीपहोनो प्रणोदक [सहेनारो] सम्मक् अथवा शमिता शमना भाववाळो पर्याय ते चारित्रने ग्रहण करीने सम्यक CL4 For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HI ६) पर्यायवालो बने अथवा शमिता (शांतस्वभावी) दीक्षावाळो बने नेज स्तुत्य थाय छे पण बीजो नहि, आ प्रमाणे परिषह अने उप-15 आचा० & समां अक्षोभ्यपणुं बतावीने हवे व्याधिनी सहन शीलता बतावे हे. 'जे असत्ता' एटले जेमणे कामवासनाने दर करी तृष्ण अने मणि सूत्रम् ॥५७१ तथा माटीन ढेफु तथा सोनामा समान भाव धारण को डे, तेवा समताने पामेला मुनिश्रो पापकृत्योमा असक्त एटले पापना : ॥५७१॥ पादानना अनुष्ठानथी दर रहेला छे, तेमने कदाचित् आतंक ते शीघ्र जीवने पण दूर करे तेवा जीवलेण शूळ विगेरे व्याधिओ पीडा & करे, त्यारे तेओ शुं करे ? ते कहे छे. अने आ कहेनार कोण छे ते पण कहे छे, धी (बुद्धि) वढे राजे. ते धीर पुरुष तीर्थकर & * अथवा गणघर छे, तेओ कहे छे के तेवा जीवलेण व्याधिओवडे पीडायलो छतां ते दुःखना अनुभववाळा स्पशोंने सम्यक्पकारे सहन करे, सहन करतां शं विचारे? से कहे छे, 'से पूच'-ते साधु जीव लेण दुःखथी पीडातो छतां आ प्रमाणे विचारे, के पूर्वे पण में आबु अशातावेदनी कर्मथी उदयमा आवेल दुःख सहन कर्यु छे, अने पछवाडे पण मारे सहन करवान छे, कारण के संसार ऊदरना विवरमा रहेनारो (संसारीजीव) एवो कोइपण नथी के, जेने अशातावेदनीयकर्मना उदयमां आवेला विषाकथी रोगोनां ॐ दुःखो न ते भोगवे ! बळी तेज प्रमाणे केवळीपभुने पण मोहनीय विगेरे चार घातिकर्म क्षय यतां केवळज्ञान उत्पन्न थया छतां 81 ल वेदनीयकर्मना सद्भावथी ते असाता-वेदनीयकर्मनो उदय थवानो संभव छे. तेथीन तीर्थकरोने पण प्रथम कर्म बंधाय; पछी स्पष्ट Pथाय; पछी निधत्त थाय; पछी निकाचन थाय; त्यारपछी उदयमा आवतां अवश्ये वेदवूपडे; पण भोगव्या विना मोक्ष न थाय; 15 तेथी अन्य साधु विगेरेए पण असातावेदनीयकर्म उदय आवतां सनतकुमारचक्रवर्ती माफक मारे पण सहन कर एबुं विचारीने 51 दिखेद न करवो. कधुं छे के: For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वकृतपरिणतानां दुर्नयानां विपाकः। पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र ते निर्गुणस्य। स्वयमनुभवआचा०४ तोऽसौ दुःख मोक्षाय सयो। भवशतगतिहेतुर्जायतेऽनिच्छतस्ते ॥१॥ सूत्रम् पोतानां करेलां दुष्ट कृत्योनो उदयमां आवेलो आ विपाक (फळ) आवेल छे. ते तारे मध्यस्थ रहीने सहन करवो जोइए. ते 81 ॥५७२॥ प्रमाणे विपाक सहन करतां शीघ्र दुःखथी मोक्ष (छुटकारो) थशे. पण जो तुं भोगववामां समता नहीं राखे तो ते विपाक नवा सो | H॥५७२॥ भवनो हेतु थशे (चार गतिमां सेंकडो वार जन्म मरण करवां पडशे) बळी आ औदारिक शरीर घणो काल सुधी पण रसायण विगेरे अमूल्य औषधोथी पोष्या छतां पण माटीना काचा घडाथी पण निःसारतर (तहन नकाK) वधी रीते हमेशां नाशपामनार छ ते बतावे छे, 'भिदुर बम्भ ' अथवा पूर्वे अने पछी पण आ औदारिक शरीर हवे पछी कहेवावा धर्मवाळके, पोतानी मेळे भेदाय ते मिदुर छे ते धर्मवाळ जे होय, ते भिदुर धर्मवाळ छे, एटले आ औदारिक शरीरने सारी रीते पोष्यु होय, तो पण वेदनानो उदय यता माथु पेट आंख छाती विगेरे अवयवोमा पोतानी मेळेज भेदन याय 8 Kछे, तथा हाथ पग विगेरे अवयवो पोतानी मेळेज विध्वंस (शून्य) थता होवाथी विध्वंमन धर्मवाळु छ, तथा जेम रात्रीना अंते नकी सूर्योदय थाय, ते ध्रुव कहेवाय, पण शरीर तेवू न होवाथी अधुब कहेवाय छे, तथा अपच्युत (नाश न थाय) | ४ अनुत्पत्र (उत्पन्न न थाय) एवा एक स्थिर स्वभावबाळ कूटनी अंदर नित्य रहेलुं छे, ते नित्य कहेवाय, पण ते, नित्य शरीर न होवार्थी अनित्य छ, तथा तेवा तेवा रूपकडे पाणीनी धारा माफक शाश्वत होय ते शरीर न होबाथी अशाश्वत , तथा इष्ट अनु-ल For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18 कूळ आहारना भोजनथी धृति उपष्टभ विगेरेमा औदारिकभरीर वर्गणाना परमाणुना उपचपथी चय तथा घटवाथी अपचय छे एवा8 सूत्रम् &धर्मवाळ होवाथी अयापचयिक छ, एयीज विविध परिणामवाळु छे, तेथी ते विपरिणाम धर्मवाळू छे, जो आवी रीते शरीर नाश॥५७३॥ त छे, तो ते शरीर उपर शुं अनुबन्ध (पमत) होय ? अने कइ रीते मूर्ण होय? तेथी आ शरीरवडे कुशल (धर्म) अनुष्ठान विना बीजी कोई पण रीते सफलता नथी ते कहे छ:__पासह आ रुपसंधि (योग्य अवसर) ने जुओ ! के नाशवंत धर्मथी घेरायलं आ औदारिक शरीर छे, तेमां पांचे इन्द्रियोनी संपूर्ण शक्तिना लाभनो अवसर छे, अने ते देखीने जुदा जुदा रोगोथी उत्पन्न ययेला स्पर्शोना दुःखनो उत्तम साधु सहन करे, आM प्रमाणे (हृदयचक्षुथी) देखनारने | याये, ते कहे छ समुप्पेह माणस इकाययणरयस्स इह विप्प मुक्कस्स नस्थि मग्गे विरयम्स तिबेमि (सू. १४८) सारी रीते देखाताने आ भेदुर धर्मवाळ शरीर छे, एवं विचारतो तेने मार्ग नथी. अर्थात् चार गतिमा भ्रमण नथी. ते कहे Kछे. एटले आ आत्मने बधा पापारंभोथी मर्यादामां लेबाय (कबजे रखाय) अथवा कुशल (धर्म) अनुष्ठानमा उग्रमवाळो कराय, तो ते आयतन कहेवाय अने ते शानदर्शन चारित्र ए त्रणमा एक रुपे होय तो ते एकायतन छे, अने तेमां रमणता करे तो आत्मा 8 अकायतनरत छे, तेवा निस्पृही ज्ञानी मुनि 'इह' आ भरीर अथवा आ जन्ममा विविध उत्तम भावनाभोवडे शरीरना अनुसन्धथी मुकाय ते विममुक्त छे, तेने नरकतिर्यच मनुष्य गतिमा भ्रमण नथी, तेमज वर्तमानकाळ नताववाथी भविष्यमा पण भ्रमण नथील For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५७४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एम क, अथवा तेज जन्ममां वधा (आठे) कर्मनो क्षय थवाथी तेने नरकादि मार्ग नथी. प्रश्नः - कोने ! उ:-जे हिंसा विगेरे आश्रव द्वारोथी निवृत्त छे, तेने संसार भ्रमण नथी. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे के हुं मारी स्वकल्मनाथी नथी कहेतो पण जे वीर वर्धमानस्वामीए दिव्य ज्ञानवडे जाणीने वचनथी कहुं ते हुं तमने कहुं हुं आ प्रमाणे विरत ते मुनि छे, एम कनुं, हवे अविरतवादी ते परिग्रहवाको छे, एम पूर्वे कहेलुं, ते सिद्ध करे छेः आवंति केयावंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वाबहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा एएस चेत्र परिग्गहावंती, एतदेव एगेसिं महन्भयं भवइ, लोग वित्तं चणं उवेहाए, एएसंगे अवियाणओ ( सू० १४९ ) जे कोई मनुष्यो आलोकमां परिग्रहयुक्त छे तेमनी पासे आवी रीतनो परिग्रह छे, 'से अध्यं वा' जे परिग्रहाय (लेवाय) ते परिग्रह छे ते अल्प (थोडो) होय, जेम छोकराने रमावानी फोडीओ, विगेरे अथवा धनधान्य, सोनुं, गाम, देश, विगेरे घणो परिग्रह होय; अथवा तृण, लाकडुं विगेरे मूल्यथी अणुं ( ओछी किंमतनुं ) होय; अथवा प्रमाण ( कदमां) नानुं वज्र (हीरो) विगेरे होय; अथवा मूल्यथी तथा प्रमाणथी स्थूळ ( मोटु ) हाथी घोडा विगेरे होयः अने आ वस्तुओ सचित अथवा अचित्त होय. आ बतावेला परिग्रहवडे परिग्रहवाळा वनीने ए परिग्रह राखनारा गृहस्थीओ साथेज वेषधारी साधुओ रहेनारा होय. (जेमके गृहस्थनुं घर अने वेषधारी मठ के स्वमालिकीनो उपाश्रय तथा गृहस्थाने धन तेम वेषधारीनुं द्रव्य, तथा गृहस्थने नोकर-चाकरने बेटा-बेटीनो For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५७४॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbafrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie परिवार. तेम वेषधारीने नोकर-चाकर अने चेला-चेलीनो व्यवसाय आ ममत्वभावे परिग्रह छे.) आचा० IPL अथवा आ छ जीवनिकायमांज अथवा विषयभूत [वस्तुरूप थोडं विगेरे जे द्रव्य कय तेमांमूळ करतां परिग्रहधारी बने छ. / सूत्रम् तेज प्रमाणे अविरत [संसारी रह्या छतां हुँ विरत छ, ए, बोलतो अल्प-परिग्रह राखबाथी पण परिग्रहधारी बने छे. एज प्रमाणे ॥५७५॥ बीजां ब्रतोयां पण जाणवू, कारणके तेणे आस्रवोर्नु निवारण न करवाथी एक देश (थोडो) अपराध करवाथी पण संपूर्ण अपराध-11 1॥५७५॥ पणानो संभव थाय छे. | शंका-जो, आ प्रमाणे अल्प-परिग्रह पण राखवाथी परिग्रहपणु थाय छे. तो, हाधमां भोजन करनारा दिगम्बर-विस्तरहित] तथा सरजस्क बोटिक विगेरे जे छे, तेओ अपरिग्रहवाळा मुनि यशे. कारणके, तेमने तेवा थोडा परिग्रहनो पण अभाव छे. ____ आचार्यतुं समाधान-तेम नथी; कारणके, 'परिग्रहोनो अभाव छे.' ए हेतु अप्रसिद्ध [जूठो] के. सांभळो सरजस्कने अस्थि विगेरेनो परिग्रह छे, अने बोटिकोने पीच्छी विगेरेनो परिग्रह छे. आ (बाह्य परिग्रह छे,) तथा अंदरनो परिग्रह पण छे, कारणके, शरीरधारी है, तथा आहार विगेरे परिग्रह तेमने विद्यमान छे. ___धर्मने टेको आपवारूप ते होवाथी निर्दोष छे एम कद्देशो; तो, अमने पण ते समानज छे. तो पछी, दिगम्बर (नग्नपणाना)। P आबहनो कदाग्रह शा माटे जोइए ! इके, जे अल्प (थोडो) विगेरे पण परिग्रह राखे छे, अने अपरिग्रहपणानो अभिमान राखे छे, 18/ तेमनो आहार शरीर विगेरे मोटा अनर्थने माटे पाय , ते बतावे छे 'एत देव' ए अल्पबहुपणा विगेरेना परिग्रहवढे केटलाकने परिग्रहपणुं नरकादि गमनना हेतुपणाथी अथवा वधाने तेनो अविश्वाम यतो दोवायी महाभयरूप थाय , कारणके आ प्रकृति & P3वला . For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५७६ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (स्वभाव) परिग्रहनी छे, अथवा से परिग्रहधारी पोते बधाय चमके थे. [ के मारो परिग्रह कोइ न लइ ले 1] अथवा दिगम्बरने आ शरीर नभावना आहारादिक लेवा बीजुं भल्प पात्र वकत्राण (कपडे) विगेरे रूप धर्मोपकरणना अभावथी गृहस्थना घरमां आहार वापरतां सम्यग् उपायना अभावथी अविधिए अशुद्ध आहार विगेरे खातां कर्मबन्धथी उत्पन्न यएल महाभयनो हेतु होवाथी महाभय छे, तथा आ धर्म शरीरने बधी रीते आच्छादन (ढांकवाना) अभावधी बीभत्स होवाथी बीजाओने महा भयरूप छे. आ प्रमाणे परिग्रह महाभय छे, तेथी कहे छे के 'लोग' - असंगत लोकनुं अल्प विगेरे विशेषवाळं द्रव्य तेने महाभयरूप छे, (सूत्रमां व शब्द पुनः ना अर्थमां छे, फुं वाक्यनी शोभा माटे छे) अथवा लोक वित्तने बदले लोकहत लड़ए तो आहार भय मैथुन परिग्रह संज्ञाबाळु लोकतुत छे. ते लोकनुं वलण मोटा भयने माटे छे. एवं उत्तम साधुए इ परिज्ञावडे जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञा| बडे ते लोकोनी संसारी चेष्टाओने त्यागी देवी, ते त्यागनारने शुं थाय, ते कड़े छे, 'एएसंगे' -ए थोडं पणुं द्रव्य संग्रह करवानुं अथवा शरीर आहार विगेरेनी मूर्छाने न करवाथी ते परिग्रह राखवाथी धर्तु दुःख ते साधुने न थाय बळी: से सुपडिबुद्धं सुवणीयंति नच्चा पुरिसा परमचक्खू विपरिक्कम्मा, एएस चेत्र बंभचेरं सिबेमि, से सुयं च मे अज्झत्थयं च मे -बंधपमुक्खो अज्झत्थेव, इत्थ विरए अणगारे दीराहयं तितिक्खए, पत्ते बहिया पास, अपमत्तो परिवए, एवं मोणं सम्मं अणुवासिजासि तिबेमि (सु० १५०) लोकसार अध्ययने द्वितीयोदेशकः ॥५-२॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५७६॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० १५७७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से० – ते परिग्रह छोडनार ने सारीरीते प्रतिबद्ध तथा सारी रीते उपनीत ज्ञान विगेरे छे, (परिग्रह छोडनारने सारीरीते त्रण रत्नोनी माप्ति छे) एवं जाणीने गुरु कहे छे, हे मानव ! तुं परम ज्ञान चक्षुवाळो बनीने अथवा मोक्षनी एकदृष्टिवाळो बनीने जुदी जुदी जातना तप अनुष्ठाननी विधिवडे संयम अनुष्ठानमां पराक्रम कर' का माटे आ पराक्रम करवानो उपदेश करे छे ? 'एएसचे ' जेओ आ परिग्रहथी विरक्त बनीने परम चक्षुवाळा थया छे, तेओमांज परमार्थथी ब्रह्मचर्य छे, पण बीजामां नथी, कारणके ब्रह्मचर्थनी नचवाट बीजामां नथी, अथवा ब्रह्मचर्य नामनो आ श्रुतस्कंध छे, अने तेनुं वाध्य पण ब्रह्मचर्थं छे, ते आ ब्रह्मचर्य परिग्रह न राखनारा ओमांज छे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे, के में कहां, अने दवे कहीश, ते बधुं सर्वज्ञना उपदेशथी कहुं छु, ते बतावे छे, 'सेमुचमे' – जे जे कहो, अने जे हवेकहीश, ते में तीर्थकर पासे सांभ छे, अने ते प्रमाणे मारा आत्मामां स्थिर थयुं, माटे अध्यात्म के, एटले मारा चितमां पण तेज प्रमाणे छे, शुं छे? ते बतावे छे, बन्धथी मोक्ष ते बन्ध प्रमोक्ष छे, ते अध्यात्ममांज छे, अने अध्यात्म ते ब्रह्मचर्य छे, ब्रह्मचर्यवाळानो मोक्ष छे. वळी इत्थ आ परिग्रह राखवाथी विरत तेछे, प्र० - कोण छे ? उ०- जेने गृह नथी ते अणगार छे, ते साधु दीर्घरात्र (आखी जींदगी) सुधी परिग्रहना अभाववाळी बनीने भूख तरस विगेरेनां आवेलां कष्टोने सहन करे, बळी गुरुउपदेश करे छे, 'पमते ' विषयो विगेरे प्रमादोथी धर्मयी त्रिमुख थपला गृहस्थो तथा वेषधारीओने तुं जो, देखीने शुं कर ? ते कहे छे:- अप्रमत बनीने संयम - अनुष्ठानमां यत्न करे. बळी, 'एयम्' आ पूर्वे को संयम - अनुष्ठान मुनिनुं सर्व स्वमौन छे. ते सर्वज्ञनुं कहेलुं छे, ते सारीरीते पाळनुं आ प्रमाणे हुं हुं हुं. S For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५७७॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५७८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजो उद्देशो. हवे बीज उद्देशो कहे छे. तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे:- बीमा उद्देशामां कं के:-अविरतवादी ते परिग्रहवाको छे, अने आ त्रीजा उद्देशामां तेथी जलदुं कहे छे. आ प्रमाणे संबन्धथी आवेला आ उद्देशानुं पहेलुं सूत्र कहे छे. आवंती यावंती, लोयंसि अपरिग्गहावंती एएस चेत्र अपरिग्गहार्वती, सुच्चा वई मेहावी पंडियाण निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए जहित्थ मए संधी झोसिए एवमन्नत्थ संधी दुजोस भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज वीरियं ( सू० १५९) आलोकमा जे कोइ परिग्रहवाळा विरत साधुओ छे, ते बधाए आ अल्प विगेरे द्रव्य छोटे; छते अपरिग्रहधारी मुनि वने छे, अथवा छ जीवनी कायमां ममस्वभाव तजनाथी अपरिग्रहधारी थाय छे. मः ठीक. पण, अपरिग्रहभाव केवी रीते बने ? ने कहे छे. 'सोचा वईति' (बीजी विभक्तिना अर्थमां प्रथम विभक्ति छे, तेथी) वाणी ते आ तीर्थकरे कहेला आगमरूप- आज्ञाने सांभळीने मेधावी ( मर्यादामा रहेलो) श्रुतज्ञान भणेलो हेयऊपादयने समजी तत्व ग्रहण करावानी प्रवृत्ति जाणनारो बने; तथा, पंडित ते गणधर आचार्य विगेरेनां विधि नियमरूप - वचनोने सांभळी | सचित-अचित वस्तुनो जाण बनी तेना परिग्रहनो त्याग करी अपरिग्रही बने प्रः ठीक तेम हशे; पण, निरावरण ज्ञान उत्पन्न यएला तीर्थकरोनो क्ये समये वाणीनो यांग (उपदेश) थाय छे, के अमे सांभळीए ? For Private and Personal Use Only ड सूत्रम् ॥ ५७८ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचाका उत्तरः-धर्मकथाना अवसरमां, मा-तेओए केवो धर्म कसो ? एवी शंका दूर करवा कहे . 'समिय' समता एटले, & मित्रमा समभाव राखचो; तेनावडे आर्योए धर्म कहेलो छे. कबुं छे के: सूत्रम् ॥५७९॥ जो चंदणेण बाई, आलिंपइ वासिणाव तच्छेति । संथुणइ जोअर्णिदति, महेसिणो तत्थ समभावा ॥१॥ ॥५७९॥ जे कोइ भक्तिथी मुनिने भुजा उपर चंदननो लेप करे, अथवा बांसलाथी चामडी छोले, अथवा कोई स्तुति करे, कोई निंदे, तो पण ते मुनि बधा जीवो उपर समभाव राखे छे. (तेज महर्षि छे) अथवा आर्य एटले देशथी भाषाथी के उत्तम आचरणी तेओ & आर्य (सुधरेला) छे, ते वधा उपर भगवाने समभाव राखी उपदेश आपेलो छे. तेज कधु, छे के: जहा पुण्णस्स करथइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ-विगेरे जेम पुण्यवानने धर्म संभळावे, तेम तुच्छने पण धर्म संभलावे अथवा शमि (शम शांतिधारक) नो भाव ते शमिता ते शांत हदय राखीने बधा हेय धर्म (कुरीवाजा) ने त्यागवाथी आर्य बनेला तेमणे प्रकर्षथी अथवा प्रथमथी आ धर्म को छे अर्थात् पांचे इन्द्रियो तथा मनने कबजे करवा वडे (केवळझान मत करी) तीर्थकरोए धर्म कहो. ठीक एम हशे, तेवीरीते बीजामओए पण पोताना अभिप्राय प्रमाणे धर्मो कया छेज, आवी शंका थाय, ते दूर करवा आचार्य कहे छे, के तेम नहीं. आ धर्म भगवानेज कयो /छे, ते कहे थे, 'जहेत्य' विगेरे देवता अने मनुष्यनी सभामां भगवाने आ प्रमाणे का, जेम में अहीं मान विगेरे मोक्ष संधि 8 | (अवसर) सेवन कर्यो के, अथवा आ शानदर्शन चारित्ररूप मोक्षमा मां अथवा समभावरुपमा तथा इन्द्रिय नोइन्द्रियना उपशममा में हैं। For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोक्षाभिलाषी वनी पोतानी मेळज संधाय (ते संधि) अथवा जे कर्मसंतति बन्धाय अने एक भवथी चीमा भत्रमा साथे जाय ते आम आठ प्रकारना कर्मसंततिरूप छे. तेने क्षय करी में (तीर्थकरोए) धर्म करो. तेज मोक्ष माग छे, पण बीजो नहीं. ते कहे छे जेम में GI | अहीं कर्मसमूह (संधि) तोड्यो. तेम अन्यत्र वीजा अन्य तीर्थी के कहेला मोक्षमार्गमां कर्मसंततिरूप संधि दुःक्षय ते दुःखे करीने ॥५८०॥ क्षय याय तेम के, कारण के ते असमीचीनपणे होवाथी तेमां खरा उपायनो अभाव छे. ॥५८०॥ जो जिनेश्वरे अहीं कर्म संधि तोड्यो छे, तो शुं समजवू ते कहे छे, जेम आज मार्गमा रहीने उत्कृष्ट तपश्चर्याक्डे में कर्म 8 खपाब्यु, तेज प्रमाणे अन्य मुमुक्षु पण संयम अनुष्ठानमा तथा तपमा पोतानी शक्तिने योजे, पण प्रमाद न करे, सुधर्मास्वामीए पोताना शिष्यने कहाँ, के आ प्रमाणे परम कारुण्यथी भीजायेल; हृदयवाळा अने परहितनो एक उपदेश देनारा श्रीवीरचर्वमानस्वामीए 18 अमने कहा छे. प्रश्न क्यो माणस एवी क्रिया करनारो थाय ? ते कहे छे. जे पुवुहाई नो पच्छा निवाई, जे पुव्वुहाई पच्छा निवाई, जे नो पुवुट्टायोनो पच्छा निवाई सेऽवि तारिसिए सिया, जे परिन्नाय लोगमन्ने सयंति ॥ सू. १५२ ॥ जे कोइए संसारनो (अस्थिर) स्वभाव जाणवावडे धर्म चरणमां एक तत्पर मनवालो बनीने प्रथमथी दीक्षाना अवसरे संयम | अनुष्ठान करवाने तैयार थएलो होय ते 'पूर्वोत्थायी' छे, अने पछीथी श्रद्धा तथा संवेगथी विशेषथी वधता परिणामवाळो होय, तो ते चारित्रथी भ्रष्ट थतो नथी, (पडवाना स्वभाववालो ते निपाती छे. पटले चारित्र लेइने निपात करे ते निपाती छे, आवो निपाती For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie सुत्रम् दूध न होय ते नोनिपाती कहेवाय) एटले सिंहपणे घरथी नीकळी दीक्षा ले, अने लीषा पछी सिंह माफक पाळे, ते गणधर भगवंत || आचा जेचा पहेला भांगामां साधु जाणवा. ॥५८१॥ बीजो भांगो मूत्रवडे बतावे छे, पहेला चारित्र ले ते पूर्वोत्यायी पछी कर्म परिणतिना विचित्रपणाथी तेवी भक्तिव्यताना का-18 ॥५८१॥ &रणे नंदिषेण माफक पडी जाय (चारित्र मूकी दे) अने कोइ तो गोष्ठामाहिल माफक सम्यग्दर्शनथी पण दर शय. & त्रीजा भांगामां अभाव होवाथी लीधो नथी, ते आ छ, 'जेनोपुवुट्टायी पच्छानिवाती' एटले पूर्वे दीक्षा ले, तो पछी निपात के अनिपात कहेवाय. वाळो होय, तो धर्मनी चिंता कहेवाय, पण दीक्षा लीधानोज निषेध होय तो दीक्षामा ग्यो, के गयो, तेनी ४ चिंताज ते संबंधी दूर रही, चोथो भांगा बतावे छे. जेणे पूर्वे दीक्षा लीधी नथी; ते पाछळथी पडतो नथी, ते अविरत पटले, गृहस्थ जाणवो; तेने सम्यग विरतिना अभावथी । पोते दीक्षा लेतो नी; अने दीक्षा लीधा पछीज पडवानो संभव थाय; पण, दीक्षा लीधा विना तेनो संभव न होवाथी पडतो नथी; 18 अथवा ते भांगामा शाक्यमत विगेरेना साधुओ जाणना. क.रण के तेमनामां चारित्र लेवू अने मुकीदेवु ए जैन रीतिए बब्रेनो अभाव छे. ६ & शंका:-गृहस्थो चोथा भांगामा छे ते बोलवू योग्य छे, कारणके तेमनामां सावध-अनुष्ठान छे, अने दिक्षा न लेवाथी महाव्रतने लेवानी प्रतिज्ञारूप-मंदीर (मेरु) पर्वतना आरोप (चडवा)ना अभावथी पडवानो अभाव छे. पण शाक्यमत विगेरेने दीक्षा लेवाथी 18/पडवानो संभव छे, तो केवी रीते पडवानो अभाव न होय ? 1 उत्तर:-'सोपि'-ते शाक्यादि साधु साधुसमुदायने पण पंचमहावतभारना आरोपणना अभावथी तथा तेमनां अनुष्ठान रुप For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सावध व्यापारवाळां होबाथी पूर्वोत्थायी नथी, तेम दीक्षाना अभावथी पश्चात् निपाता पण नयी तेथी ते गृहस्थ समानज छे, कारण के ते बन्नेमा आस्रवद्वारोनुं रोकण नथी, अथवा उदायी राजाने मारनारा विनय रत्न साधु जेवो कपटी चोथे भांगे छे. तेज प्रमाणे आचा सूत्रम् बीजा पण जेओ सावध अनुष्ठान करनारा छे. ते पण तेबाज छे, ते बतावे छे. जेओ स्वयूथ्या (जैन मतना) पासत्था (पतित साधु विगेरे बन्ने प्रकारनी परित्नावडे लोकस्वरूपने जाणी (व्रत समजीने लेइने) पाछा रांधवा रंधाववा माटे तेज लोक (गृहस्थो)ने ५४२॥ आश्रये रहे छे, अथवा गृहस्थने शोधेछ ( तेना उपर ममल करी आधाकर्मी आहार ले छे.) तेओ पण गृहस्थ सरखाज जाणवा, Mआ पोतानी बुद्धिथी नहीं पण शाखकारर्नु वचन छे, ते बताये : एयं नियाय मुणिणा पवेइयं, इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, पुबावरण यंजयमाणे, सया सोलं सुपेहाए सुणिया भवे अकामे अझंझे, इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ? ॥ सू० १५३ ॥ एतद्-जे उत्थान निपात विगेरे पूर्वे वताव्यु, ते केवळ ज्ञानना अवलोकनवहे जाणीने तीर्थकरे कछु दे, अने आ बीजु कयु | K, 'इह' आ मौनींद्र प्रवचनमा रहेल्लो तथा तीर्थकरना उपदेशने सांभळवानी इच्छाबालो ते, आझाकांक्षी आगमना अनुसारे प्रवृत्ति & करनारो छे. मा-कोण एवो छे ? उ:-सद्-असना विवेकने जाणनारो तथा नेहरहित रागद्वेषथी पमुक्त रातदिवस गुरुनी आज्ञामां ४ रहेनारो यबचालो थाय; ते बतावे छे. रात्रिना पहेला पहोरे तथा छेला पहोरे सदाचारथी वर्ते; अने वचला चे पहोरमां यथोक्तविघिए निद्रा ले, अने वैरात्रादिक (सूत्रार्थ-चिंखन) करे, आ प्रमाणे रात्रिनी यत्ना बतावथी दिवसर्नु पण समजी ले, कारणके, & For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५८३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदिअंत लेवाथी मध्यनुं अवश्य आवी जाय छे. 'किं च' वळी 'सदा' सर्वकाळ १८००० भेदवाले शीलव्रत अथवा संयम पाळे, अथवा शीळ चार मकारनुं छे. महात्रतने सारीरीते पाळवां, ऋण गुप्तिओ पाळवी. पांच इन्द्रियोनुं दमन करं; कपायनो निग्रह करवो. आ प्रमाणे चार प्रकार शीळ विचारीने मोक्षना अंगपणे पालन करजे; पण एक नीमेष ( आंखने फरकवानो काळ ) मात्र पण ममादिवश न थइश मः-क्यो माणस शीळनो संभेक्षक थाय ? ते कहे छे:जे शीळनां रक्षणनुं फळ (मोक्षगमन) छे, तथा कुशील सेववानुं फळ नरकगमन विगेरे आगमथी जाणे छे, ते गीतार्थसाधु 'अकाम' - इच्छा मदन काम (संसारी वासना ) रहित बने, तथा तेने झंझा ( माया अथवा लोभ इच्छा ) न होय, तेथी अझंझ कहेवाय, अने काम तथा झंझानो प्रतिषेध करवाथी मोहनीयना उदयनो प्रतिषेत्र कर्यो, अने तेना प्रतिषेधथी शीलवाळो बने, एनो भावार्थ आ छे, के धर्म सांभळीने अकाम (सुशील) थाय, अने अझ थवाथी अमायी धाय, आ बन्ने गुणथी उत्तर गुण लीधा, अने ते उपलक्षणथी मूळगुण (महात्रत) पण लीघां, तेथी अहिंसक सत्यवादी पण थाय, विगेरे समजी ले. शंका- जीवथी शरीर जुर्दु छे, आवी भावना भावनार तथा पोतानुं बळ वीर्य गोपव्या विना धर्म करनार १८००० शीलींग धारण करनारने तथा उपदेशमां कहेवा मुजब वर्त्तया छतां पण मारो सर्वथा कर्ममल दूर नथी थयो, तेथी तमे तेनुं असाधारण कारण कहो ! के जेना बडे हुं शीघ्र संपूर्ण कर्ममल कलंकथी रहित थाउं, हु आपना उपदेशयी सिंह साधे पण युद्ध करीश, कारण के कर्म क्षय करवा माठे हूं तैयार थयो छु, तेथी कंइ पण मने अशक्य नथी. तेनो उत्तर सूत्रकार आपे छे, इन्द्रिय तथा मनरूप औदारिक शरीरवडे तुं युद्ध कर, कारण के ते विषयसुखनो पिपासु वनी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ५८३ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥५८४॥ 5. स्वेच्छाए चाली तारु अहित करे छे, तेथी एनेज सुमार्गे चालीने वश कर, बीजा बाह्य शत्रु साये युद्ध करवानी शी जरुर छ ? अंदर | रहेला तारा छ रिपुनो जय करवाथी वधुं कार्य सिद्ध यशे, तेथी बीजु कंइ पण वधारे दुष्कर नथी पण आज संयम विगेरे सामग्री है अगाध संसारसमुद्रमां भटकता जीवने करोडो करोडो (हजारो) भवे पण मळवी दुर्लभ छ ! ते मूत्रकार बतावे छे: जुद्धारिहं खल्लु दुल्लहं, जहित्य कुसलेहिं परिन्नाविवेगे भासिए, चुए हु बाले गन्भाइसु रज्जा, अस्सि चेयं पवुच्चइ, रूवंसि वा छणंसि वा, से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे, इय कम्म परिणाय सबसो से न हिंसइ, संजमई नो पगब्भइ, उवेहमाणो पत्तेयं सायं, वण्णाएसी नारभे कंचणं सवलोए एगप्पमुहे विदिसप्पइन्ने निविण्णचारी अरए पयासु ॥१५॥ आ औदारिक शरीर भाव युद्ध करवाने योग्य छे, (खलु शब्द निश्चयना अर्थमा हे, अने ते भिन्न क्रमवाळो छे) ते खरेखर दुर्लभज छे, अर्थात् ते दुःखथीज प्राप्त थाय छे, कयु छ केननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम, मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥१॥ आ अति दुर्लभ मनुष्यपणुं अगाध संसारसमुद्रमां पडेलाने खरजुवा (अगीयो कीडो) जेवू के वीजळीना झबकारा जेवू थोडी काळ रहेनारं मळेलु छ ! विगेरे समजवु जोइए. उन्नावरुन For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir __ अथवा नीजी प्रतिमा 'जुदारियं च दुल्लई' पाठ के, तेमा संग्राम (लडाइन) युद्ध अनार्य [जंगलीपणान] छे, अने परिपहा ०आचा विगेरेची लढवू ते आर्य युद्ध छे, तेथी ते दुर्लभ छे. माटे हे शिष्य! तेनी साथे युद्ध कर, तेथी तारां बयां कींना क्षयरुप-मोक्ष थोडा सुत्रम वखतमांज थशे; अने तेथी भावयुद्ध करवा योग्य औदारिक-शरीर मेळवीने कोइक मनुष्य तो, तेज भवे मरुदेवी माफक वर्षा कर्मनो। ॥५८५॥ क्षय करे छे, कोइ तो, भरत राजा म.फक (पूर्व भयो आश्रयी) सात आठ भवमा मोक्ष मेळवे छे, अने कोइ ती अर्धपुद्गल परावर्तन यया पछी मोडा मेळवे छे, पण अपर (अभवी) मोक्षे नहीं जाय शामाटे ? ते कहेछ, जेम जे प्रकारे आ संसारमा कुशल तीर्थकरोए परिक्षा विवेक (परिज्ञान विशिष्टता) कोइनो कइ पण अध्यवसाय संसारनो विचित्र हेतु बतान्यो छे, अने तेज बुद्धिमाने स्वीका-15 रवो जोइए, हवे पूर्व कहेलं परिज्ञान- जुदाजुदापणुं बतावचा कहे छे, (मध्य अने अभव्यपणुं स्वभावधीज छे. भव्य काळांतरे पण मोक्षमा जशे, पण अभव्य नहीं जाय) कोई दुर्लभरोधि दुर्लभ पण मनुष्यपणुं पामीने तथा मोक्षगमनना एक हेतुरूप धर्म पामीने पण कर्मना उदयथी फरीवी पण धर्मथी भ्रष्टयइ बाल (मूर्ख) जीच गर्भ विगेरेमा जाय के, एटले गर्भ जेवा प्रथम छे, एवी कुमार यौवन विगेरे अवस्थाओमा वृद्ध यह जाय छे, अने (एने नियमानीने) ए अवस्थाओ साथे मारो वियोग न थाओ एवा विचारचाको बने छ, अथवा धर्मथी भ्रष्ट थइने एवां काम करे छे, के जेनावडे ते । बाळजीव तेबी तेबी गर्भ विगेरेनी पीडाओना स्थानमा उत्पन्न थाय छ, "रिजई" (कोइ प्रतिमा पाठ छे) एटले जाय छे (एवो 18 अर्थ लेवो) प्र०-ठीक, एम इशे पण आबु क्या कबु छ ? उ०-जे पूर्व कबु छ, के आ जिनेश्वरना वचनां प्रकर्षथी कबु छ.31 अने हवे पछी पण तेज कहे छ, 'रूपे-चक्षु इन्द्रियना विषयमां रागी थएलो, अथवा रस इन्द्रियमा स्पर्श इन्द्रियमां रागी यएलो (LE For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५८६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षणमा पर्ते छे, क्षणनो अर्थ हिंसा छे, तेथी जेम ते हिंसामा बर्ते छे, तेम जूठ विगेरेमां पण प्रवर्त्ते छे, पण रुप विषयोमा प्रधान दो था ते रुपवा होवाथी (तुर्त तेमां मन दोडतुं होवाथी) लीधुं छे, अने आसन (पाप) द्वारोमां हिंसा मुख्य अने प्रथम होवाथी ते लील छे, अर्थात् अज्ञानी माणस रूप विगेरे माटे धर्मथी भ्रष्ट यइने गर्भ विगेरेनां दुःख भोगवे छे. एम आ जिनेश्वरना मार्गमां कहेल छे, पण जे डाह्या माणसे आ विषय रसने पालुं गर्भादि गमननो हेतु जाणीने पोते धर्मथी भ्रष्ट न थइने हिंसा विगेरे | आसन द्वारथी दूर रहे छे, ते केवो थाय, ते कहे छे. ते एकलोज जीतेन्द्रिय मुनि ऋण जगतुने माननारों बनीने सम्यग्र रीते तेणे | मोक्ष मार्ग पग तळे खुदी नांख्यो छे, एटले ज्ञान दर्शन चारित्र मोक्ष मार्ग संमुख कर्यो छे. तथा बीजी प्रतिमां 'संविद्ध भये' पाठ छे, एटले ते जीतेन्द्रिय सुनिए भय जाण्यो के एटले जे हिंसा विगेरे आस्रवद्वारथी दूर रहे ते मुनिज बुंदेला मोक्ष मार्गवाळो छे. बळी बीजी रीते मुनि होय ते कड़े छे, जे विषय कपायथा पराभव पामेलो छे, हिंसा विगेरे कृत्यमां रक्त छे, तेवो गृहस्थ अथवा पाखंडी जन समूह छे तेने रधिवा रंधावामां अथवा औदेशिक तथा सचित आहार विगेरेमां रक्त छे. तेवानी ( दुर्दशा विचारी) तेनी संगति न करतो, अने तेवा पाममां पोताना आत्माने न जोडतो, अशुभ व्यापार छोडीने, मोक्ष मार्ग जाणनारों मुनि बने छे, लोकने उलटा मार्गे चालेला जोड़ने पोते शुं करे ? ते कहे छे. पूर्वे कला अशुभ हेतुथी जे कर्म बांध्युं छे तेना उपादान कारणो संपूर्ण ज्ञ परिज्ञावडे समजीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे सर्वथा छोडे, केवीरीते छोटे ते कहे छे. 'स' ते कर्म छोडनारो काय वाचा अने मन वडे जीवोनी हिंसा न करे, न मरावे, मारताने भलो न जाणे, बळी पापोना उपादानमां प्रवर्त्तता पोताना आत्माने रोके, अथवा सत्तर प्रकारना संयममा आत्माने जोडे, अथवा आ चार For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||५८६ ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥५८७॥ आचा 18 संपूर्ण पालवा संयम माफक पोते आचरण करे, वळी 'नो पगब्भई' एटले असंयम कर्ममा (पापना उदयथी) प्रवर्त्ततो छतां प्रगल्भता &ा (पृष्टपणुं) न करे, पापना उदयथी छार्नु कुकर्म करे तो पण लज्जायमान थाय, (पश्चात्ताप करे) पण धृष्टता न करे ( के एमां मुं पाप ॥५८७॥ छे ?) वळी, आ वताववाथी एम सूचन्यु के मोक्ष मार्ग जणेलो मुनि क्रोध न करे, न जाति विगेरेनो अहंकार करे, न कपट करे, B/न लोभ करे | आलंबीने आ करे ? ते कहे छे. 'उत्पेक्षमाणः' वधां पाणीना मनने पोतार्नु अनुकुळ ते साता (सुख) छे, पण बीजाना सुख वडे पोते सुखी नथी, तेम पारकाना दुःखे दुःखी नहीं, तेवू जाणीने पोते हिंसा न करे, दरेक माणीना सुखने विचारतो मुनि शुं करे ? ते कहे छे, जेनावडे प्रशंसा थाय ते वर्ण (कीर्ति) छे. तेनो अभिलाषी बनीने बघा लोकमां कोइपण जातनो । पापारंभ न करे. अथवा तपसंयम विगेरेनो आरंभ पण यशकीर्ति माटे करे नहीं, पण प्रवचन (जैनशासन)नी प्रभावना माटे करे, तेवा प्रभावको नीचे मुजब छ:प्रावचनी धर्मकथी वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । विद्यासिद्धः ख्यातः कविरपि चोद्भावका स्त्वष्टौ ॥१॥ सिद्धांत भणेलो, धर्म कथा कहेनार, बादी (न्यायनो अभ्यासी) ज्योत्सी (जोशी) तपश्चर्या करनार, विद्या (चमत्कारवाळो) सिद्ध मंत्रवाळो. कवि ए आठ धर्मना प्रभावको छे. अथवा वर्ण ते रुप, तेनो अभिलाषी न बने एटले मुांधी तेल विगेरे नलगाडे, 15/ केवो बनीने आ सदाचार पाळे? 'एको'-बां मल कलंक दूर थवाथी एक ते मोक्ष छे, अथवा रागद्वेषनारहितपणाथी एक ते संयम छे. 5 तू तेमां जेनु मुख गएलुं छे, तथा मोक्ष अथवा तेना उपायमां एक दृष्टि (लक्ष्य) राखीने कइपण पापारंभ न करे, वळी मोक्ष तथा सरस्वकर For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ાપુતા www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संयम तरफ छे. ते दिशा, अने ते सिवायनी बीजी विदिशा छे, तेमांची मकर्षे तरेलो से विदी प्रतीर्ण छे, अने एवो होय ते आरंभ रहित बने, कुमार्गनो परित्याग करवाथी ते पापारंभनो अन्वेषी न होय, बळी चरण ते चार छे, अने ते 'अनुष्ठान छे. निर्वि ष्णनुं अनुष्ठान करे ते निर्विण्णचारी छे, क्यांथी होय? ते कहे छे. 'प्रजास्वरतः' वारंवार जन्मे ते प्रजा (भाणी भो) तेमां अरत होष, पटले तेना आरंभी निवृत्त होय, अथवा ममत्व विनानो होय, अने शरीर विगेरेमां पण जे ममत्त रहित होय ते निर्विण्णचारीज होय छे, अथवा प्रजा (स्त्रीओ) तेमां अरक्त होय ते आरंभमां पण निर्वेद (मोहरहित) होय, कारण के कारणना अभावमां कार्यनो पण अभावज होय छे, अने जे प्रजामां अरक्त अने आरंभरहित छे, ते केवो होय ? ते कहे छे: से वसुमं सहसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं अकरणिजं पावकम्मं तं नो अन्नेसी, जं संमंति पासहा तं मोणंति पासहा जं मोणंति पासहा तं संमेति पासहा, न इमं सक्कं सिढिलेहि अजिमाणेहिं गुणासाएहिं बँकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमात्रसंतेहिं, मुणी मोणं समायाए धुणे सरीरगं, पंतं लूहं सेवंति वीरा सम्मतदंसिणो, एस ओहंतरे मुणी, तिष्णे मुत्ते विरए विग्राहिए तिमि ॥ सू० १५५ ॥ लोकसारेतृतीयोदेशकः ॥ ५-३ ॥ सुते द्रव्य छे, अने अहीं तेनो अर्थ संयम छे, ते जेने होय ते निवृत्तारंभवाळो छे. अने ते मुनि वसुवाळो छे, तथा जे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५९८॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आNo ॥५८९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्माने सर्व सम्यक्प्रकारे आवेल [ मळेलं ] प्रज्ञान ते बधा पदार्थोंनो प्रकाश करनारुं छे. तेवा आत्मावडे ( पदार्थोनुं पुरु ज्ञान माप्त करेलाए) जे पापकृत्यो करवा योग्य नथी ते पोते कदीपण करवाने इच्छतो नथी, अर्थात् पोते परमार्थने आणेलो होवाथी पोते सावध अनुष्ठान करतो नथी, जे सम्यग् मज्ञान छे, आ जगत प्रत्यागत सूत्रवडेज बतावे छे. सम्यग् एटले सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक्त्व ले. तेनी साथे चारित्र छे, आ बनेनुं सहभावपणु होवाथी एकनुं ग्रहण करवाथी बीजुं पण ग्रहण करेलं जाण, ए न्याय छे, जे आ सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक्त्व छे. ते [ हे शिष्यो ] तमे जुओ के मुनिनो भात्र ते मौन छे, पटले संयम अनुष्ठान से मौन छे. तेने जुओ, तथा जे मौन छे, ते सम्यग्ज्ञान अथवा निश्रय सम्यक्त्व छे. ते तमे जुओ, कारणके ज्ञानतुं फळ विरति छे. तथा ज्ञान छे ते सम्यक्त्वने प्रकट करवापणे छे. तेथी ते सम्यक्त्वज्ञान चरण त्रणेनी एकता जाणवी, अने आ जेवा तेवाथी पाळवु शक्य नथी, माटे कहे छे के आ सम्यक्त्व विगेरे ऋण सारीरीते करवां तेने शक्य नथी ने कोने ? शिथिल पुरुषो जेओ अल्प परिणामपणे मंद वीवाळा छे, तथा जेमनांमां संयम तपनी धीरज तथा दृढपणुं नथी तेमने संयम पाळवो अशक्य छे, बळी [आद्रैः] पुत्र कलत्र विगेरेना प्रेमथी जेमनुं हृदय भींजायलं छे, तेमने पण संयम दुष्कर छे, तथा जेमने गुणो ते शब्द विगेरेनो आस्वाद छे, तेमने संयम अशक्य छे, वळी वक्र समाचारवाळा (कपटी) ओने अशक्य छे, तथा विषय कपाय विगेरेथी प्रमादी छे तथाजेओने घर उपर ममत छे, ते अगर सेवनारा (मटधारी बनेला) ने पाप वर्जनरूप संयम (मौन) अनुष्ठान कर अशक्य छे, [सूत्रमां अ नो लेप थवाथी गार छे. पण अगार लें. ] मः-त्यारे केवी रीते शक्य थाय? मुनि ते व्रण जगत्ने माननारो, तेनुं मौन ते मुनिपणुं (वधां पापकर्म त्यागनारूप) छे. से ग्रहण करीने औदारिक शरीर अथवा कर्म शरीर दूर करे, ते धूनन (दूर करं) केवी रीते वाय ? ते कहे छे, मान्तवासी अथवा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५८९ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir C 15 वाल चणादि अथवा अल्प आहार ले, ते पण विगइ रहित लुखो ले, आयो आहार कोण ले ? वीर पुरुषो कर्म विदारण करवाने 21 समर्थ होय तेवा, वळी ते केवा छे ? सम्यक्त्वदर्शियो अथवा समत्वदर्शिओ छे, अने जे तुच्छ लुखो आहार खानारो छे, तेने शृंद सूत्रम् गुण थाय ते कहे छे के, उपर बतावेल उत्तम गुणवाळो भावौध (संसार) ने तरे छे, कोण तरे ? मुनि होय ते, (अने तेवा गुण ॥५९०॥ धारण करावथी) हमणाज वर्तमानकाळमां तीर्ण (तर्या जेदो)ज छे, अने ते बाह्य अभ्यंतर संगना अभावथी मुक्त जेबोज छे. ५९०॥ मा-आवो कोण छ ? उ:-जे सावध अनुष्ठानथी विरत होय ते. आ प्रमाणे बतान्यो सुधर्मास्वामी कहे छे के में एम है भगवान महावीर पासे सांभळ्यु ते तमने कबु. ॥ लोकसारअध्ययनमां त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो । हDAOS चोथो उद्देशो. हवे चोथो उद्देशो को छे, तेनो संबन्ध आ प्रमाणे छे, पहेला उद्देशामां हिंसा करनार विषयारंभ करनार एकलविहारी होय || तो पण तेने मुनिखनो अभाव घतान्यो, पण बीजा अने श्रीजामां तो हिंसा अने विषयारंभ तथा परिग्रह छोडवावडे साधपणं छे, & तथा हिंसा करनार परिग्रहधारीना दोषो वताव्या. अने तेनाथी विरत (मुक्त) होय तेज मुनि छे, एम बताव्यु. अने आ चोथा शामा एकला फरनाराने मुनिपणानो अभाव छे, तेथी तेनो दोषी बताववावडे कारणो कहे . आ प्रमाणे संबन्धथी आवेला| चोथा उद्देशानुं आ पहेलुं मूत्र : +60-65 REACE For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५९१॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गामाशुगामं दूइजमाणस्स दुज्जायं दुप्परकंतं भवइ, अवियत्तस्स भिक्खुणो ॥ सू० १५६ ॥ बुद्धि विगेरे गुणोनो ग्रास करे (नाश करे) ते ग्राम छे. एक गामथी बीजे गाम जनुं ते ग्रामानुग्राम छे, दुयमान ते विचरतो (धातुना अनेक अर्थ छे) अर्थात् गाम गाम जे साधु तेने केवो दोष लागे ते कहे छे, दुष्ट गमन ते दुर्यात के एटले एकलो विचरे तो निनीदय छे, तेने अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गना कारणे कांतो अरणीक मुनि माफक ते गृहस्थ बनी जाय. तथा गतिमां भेद करवायी दुष्ट व्यंवरीनी जंघा छेदवा माफक (प्रतिकूल उपसर्गमां चारित्र्थी अश्रद्धावाळो था, एटले एकलविहारीने गमन करतां उपरनो दोष लागे छे, तथादुष्ट पराक्रांत एटले एकलो साधु जे मकानमां रहे, तेने चारित्रभ्रष्ट थवानुं कारण थाय छे. जेम के स्थूलभद्रनी इर्षा करनार कोश्या वेश्याने घेर चोमासुं करवा जनार सिंह गुफाबासी मुनिने पतित थवा वखत आव्यो, अथवा चतुष्पोषित भर्तृकाना बेर रहेला सुनिने | पोते महासत्ववान होवाथी अक्षोभ होवा छतां पण दुष्पराक्रांत थयुं, पण ए प्रमाणे बधाने दुर्गात दुष्पराक्रांत यतुं नथी, ते बताबबा विशेष खुलासा करे छे, के अव्यक्त (भिक्षा लेनार ते) भिक्षुने ते दोष लागे छे, ते अव्यक्त श्रुत अने वयथी थाय छे. ते बतावे छे, श्रुति अव्यक्त ते आचार प्रकल्प (ब्रहत् कल्प) अर्थथी न भण्यो होय, आ स्थविरकल्पीने आश्रयी छे, पण गच्छथी निकळेला जिनकल्पीने नवमा पूर्वनी त्रीजी वस्तु सुत्रीनं ज्ञान जोइए. अने वयथी अव्यक्त ते गच्छमां रहेलाने १६ वर्ष अने जिनकल्पीने ३० वर्षनी उमर जोइए, अहीँ चोभंगी थाय छे. [१] जे श्रुत तथा वयथी अव्यक्त (अपूर्ण) छे तेने एकलविहार न कल्पे, कारण के तेने संयम तथा आत्मा (पोता )नी For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥५९१॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५९२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विराधनानो संभव छे. [२] श्रुतथी अव्यक्त पण वयथी व्यक्त छे, तेने पण अगीतार्थपणाथी संयम तथा आत्म विराधनानो संभव होवाथी एकल विहारनो निषेध छे. [३] तथा श्रुतथी व्यक्त पण वयथी अव्यक्त होय तेने पण बाळकपणाथी सर्व प्रकारे पर भवना कारणे अने विशेषथी चोर तथा कुलिंगि ( अन्य दर्शनी बाबा विगेरे) नो भय छे, तेथी तेने पण एकलविहार न कल्पे. [४] पण जे बने प्रकारे व्यक्त छे, तेने कारण पडे अथवा प्रतिमा स्वीकारी होय, अथवा (चित्त सोबतीना अभावे) एकलविहार करवो पढे तो करे, आवाने पण कारणना अभावमां एकलविहारनी आशा आपी नथी. कारण के ते एकलविहारमां इर्या समिति तथा गुप्ति विगेरेमां घणा दोषो थाय छे, ते बतावे छे. [१] एकलो भमतां जे इर्यापथ (मार्ग) जोतो चाले, तेने पछवाडे कूतरा विगेरेनुं देखतुं बनी शके नहीं, अने कुतरा विगेरेने देखवा जाय तो इर्या पथनुं भान न रहे, ए प्रमाणे बधी समितिओनुं जाणी छेतुं, वळी अजीर्णना कारणे अथवा वायुना रोकनाथी अथवा रोगो उत्पन्न धतां संयम तथा आत्मानी विराधना थाय. तेथी चैन शासननी पण हीलना थाय, तथा तेना उपर दया लावीने गृहस्थी तेनी चाकरी करे, तो अज्ञानपणाथी छकायनुं उपमर्दन करतां संयमने बाधा उपजावशे, अने तेवो दयालु गृहस्थ न मळे तो दवा न करवायी ते साधुनी आत्मविराधना याय, तथा अतिसार (झाडा) विगेरेमां पेशाब झाडा, विगेरेथी कपडा तथा शरीर वरढाइ जवाबी दुर्गच्छा आवतां लोको जैन धर्मनी हीलना [निंदा] करे, बळी गामडा विगेरेमा रहेता ब्राह्मण विगेरे केश लुंचन विगेरेथी For Private and Personal Use Only XIGE सूत्रम् ॥५९२॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ५९३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिक्षेप [fareerr] sedi परस्पर विवाद थतां मारामारीनो पण वखत आवे, आ बधुं गच्छमां रहेलां समुदायमां विचरताने न संभवे, कारण के क्रोध विगेरे थतां गुरु उपदेश आपी बन्नेने शांत राखे, कहुं छे छे अक्कोसहणणमारणधम्म भंसाण बालसुलभाणं । लाभं मण्णइ धीरो, जहुत्तराणं अभावमि ॥ १ ॥ आक्रोश व मार धर्म भ्रंश विगेरे बालकोने सुलभ छे, आटलं छतां उत्तरना दोषोना अभावे धीर माणस तेमां लाभ माने छे, अर्थात् समुदायमा रहेनारो कोइथी लडे तो गुरु उपदेश आपे के आ मार विगेरेतुं दुःख पण सारुं छे. कारण के पाथी दुर्गतिनो संभव नथी पण जे संघाडाथी जुदो पडी एकलो विचरतो होय तेने फक्त दोपोनोज संभव छे. सामिएहिं संमुजएहिं एगागिओ अ जो विहरे । आयंक पउरयाए छक्काय वहमि आवडइ ॥ १ ॥ पोताना समुदायना साधु योग्य विहार करता होय, तेमने छोडीने जे एकलो विचरे, तेने रोगोनो वधारो यतां छकायना वधमां से पढे छे, (दोषो लगाडे छे) ratfiree दोस्सा इत्थी साणे तहेव पडिणीए । भिक्खऽवसोहि महवय तम्हा सविइज्जए गमणं ॥२॥ एकला फरनाराने स्त्री कूतरो तथा प्रत्यनीकथी दुःख थवा संभव छे, तथा गोचरीनी अशुद्धि तथा महाव्रतमां पण दोषो लागे माटे बीजा साधु सहित विचर. पण गच्छमां रहेनाराने तो घणा गुणो थाय छे, तेनी निश्राए बीजो बाळ वृद्ध वगेरेनें उद्यत विहारनो स्वीकार थाय, कारण के पोते तरवामां समर्थ होय, ते बीजो अशक्त डुबतो कोइ लाकडाने वळगेलो होय, तेने पण पोते तारे For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५९३॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५९४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छे, आ प्रमाणे गच्छमां पण योग्य विहार करनारो बीजा सीदाता (बेसी रहेला) ने विहार करावे छे, आ प्रमाणे एकला विचरताना दोषोने जाणीने तथा गच्छमां विचरताना गुणो जाणीने कारणना अभावमां पंडित अने उम्मरलायक साधुए पण एकलविहार न करवो, तो अगीतार्थ अने नानी उमरवाळाए तो क्यांथी एकल बिहार करवो ? शङ्का - जेनो संभव होय तेनो प्रतिषेध धाय, पण एकाकी विहारनो संभव नथी कारण के क्यो मूर्ख साधु सोबतीओने छोडीने वा दुःखो स्थान एवो एकल बिहार पसंद करे ! उत्तरः- कर्मपरिणतिने कंपण अशक्य नथी; ते बतावे छे. स्वतंत्रता जे रोगरूप छे, तेने औषधतुल्य माननाराने वधां दुःखोना मवाइमां तणाताने बचवा माटे सेतु [पूल] समान संपूर्ण कल्याणनुं एकस्थानरूप-शुभ आचारना आधाररूप-गच्छ रहेनारा साधुने प्रमादथी भूल थतां तेने उपको अपायः त्यारे, ते साधु सदुपदेशने न गणतां सारा धर्मने विचार्या विना कषाय-विपाकनी कढवाशने दीलमां न लेतां परमार्थने विचार्या विना कुल पुत्रता (खानदानी) पछवाडे मूकी वचन मात्रथी पण कोइने उपको आपतां सुखना वांछको बनवा माटे न गणाय एटली आपदाबाळा थवा माटे गच्छमांथी नीकळी जाय छे, अने पछी तेओ आ लोक तथा परलोकना अपायो (दुःखोने) मेळवे छे. कई छे:जह सायरंमि मीणा, संखोहं सायरस्स असहंता । णिति तओ सुकामी निग्गयमित्ता विणस्संति ॥ १॥ जेम सागरमा रहेलां माछलां समुद्रनो क्षोभ न सहन करीने सुख मेळवचा बहार जतां नाश पामे छे, तेज प्रमाणे सुखाभिलाषी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५९४ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५९५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधु एकलो पडतां नाश पामे छे, ते नीचली गाथामां बतावे छे. एवं गच्छ मुद्दे सारणविईहिं चोईया संता । णिति तओ सुहकामी, मीणा व जहा विणस्संति ||१| गच्छ समुद्रमा रहेता साधुने प्रमादथी भूलतां प्रेरण करता पोते कंटाळी नीकळी जाय; तो ते सुखना बांच्छक माछला माफक नाश पामे छे. गच्छमि के पुरिसा सउणी जह पंजरंतरणीरुद्धा। सारणवारणचोइय पासस्थगया परिहरति ॥३॥ शकुनी पक्षीने जो. पांजरामां पूरेल होय तो, जीवहिंसा विगेरे न करी शके. तेज प्रमाणे स्मारण ( दोषने याद करावना ) वारण (पापथी अटकावा) अने धर्ममां प्रमाद करवाने प्रेरणा करवाथी पासस्था ( ढीलापणाने) पाम्या होय; छतां पण गच्छमां रहेला साधुओ पाछा सुधरी जाय छे. जहादियापोयमपक्ख जायं, सवासया पविउमणं मणागं तमचाइया तरुणमपत्त जायं ढंकादि अवत्तगमं हरेजा ॥ ४ ॥ जेम पक्षीनुं बच्चु पांखो विनानुं पोताना माळामांथी नीकळवानी इच्छा करे; त्यारे, शंखोना जोर विनानुं ते बच्वं आम तेम कुदका मारतां तेने मोर विगेरे उपाडी जाय छे उपर प्रमाणे सिद्धांत पूरा भण्या विना, अने लायक उम्मर विना गुरुए उपको आपतां जे समूदाइथी रीसाइ नीकळी जाय; ते तीर्थीक ध्वांश विगेरेथा भ्रष्ट थाय छे ते शाखकार बताषे छे " For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥ ५६५॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा०13 सूत्रम् ॥५९६॥ CCC वयसावि एगे वुइया कुप्पंति माणवा, उन्नयमाणेय नरे महया मोहेण मुज्झइ, संवाहा बहवे. भुजो २ दुरइकम्मा अजाणओ अपासओ, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स देसणं तद्दिट्टीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तस्सन्नी तन्निवेसणे जय विहारी चित्त निवाई पंथनिज्झाई पलि बाहिरे. ॥५९६॥ पासिय पाणे गच्छिज्जा ॥ सू० १५७ ॥ कोइ बखत तप संयमनां अनुष्ठान विगेरेमा खेद आवतां; अथवा, प्रमादथी भूलतां गुरु विगेरेए धर्मना कारणे वचनथी पण | ठपको आफ्तां परमार्थने नहीं जाणनारा केटलाक साधुओ क्रोधायमान थाय छे, अने बोले के के, "आ गुरुए मने आटलावधा साधुओ बच्चे उपको आप्यो. में | गुनोह को हतो ? अथवा, आ बीजा पण तेवी भूल करनारा छे. मने पण एटलोज अधिकार छे. तेथी मारा जीवितने पण धिक्कार हो! विगेरे विचारतो महामोहना उदयवडे क्रोधरूप-अंधारावडे कायली चक्षुबाला तेश्रो साधुनोd (भांतिरूप)-समुचित आचार छोडीने बन्ने प्रकारे ज्ञानथी तथा, क्यथी अशक्त बनेला जेम, समुद्रमांथी बहार जतां माछलु नाश पामे तेम गच्छमाथी नीकळीने तेओ एकला फरतां धर्मभ्रष्ट थाय छे, अथवा कोइ माणस वचनथी एम कहे के: "आमाथामां लोच करावेला मेलथी शरीर गंधातावाळा प्रगत अवसरे (दहाडो चडेज) आपणे देखवा. (अर्थात आ अपशुकन रथया के सामा मळ्या.) आq बोलतांज केटलाक साधु क्रोधथी अंधा बनी जाय छे, अथवा कोइनो स्पर्श थाय; तोपण, कोपायमान AAR For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie आधा. सूत्रम् रथइ जाय छे, अने कोपायमान थइ बीमा सापे लडे; तेथी एवा अनेक दोषो जे गुरुथी जुदा पड्या होय; सिद्धांतनो परमार्थ न जाण्यो होय; तो तेने रक्षकना अभावे दोपो थाय; पण, गुरु साथे होय; तो, लडनारने उपदेश आपे के:॥५९७॥ आक्रुष्टेन मतिमता तत्वार्थान्वेषणे मतिः कार्या। यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किं नु कोपेन ॥१॥1॥५९७॥ बुद्धिमान पुरुषे क्रोध करतां विचार करवोः अने तत्त्व शोधवामां बुद्धि जोडवी. जो, ते कहेनारनुं बोलवू सत्य होय; वो, कोप। केम करचो ? अने तेनुं बोलवू जुलु होय; तो, तारे कोप शुं काम करयो ? (कारणके के ते तने लागतुं नयी.) ___ अपकारिणि कोपश्चेत्, कोपे कोपः कथं न ते ! धमार्थकाममोक्षाणां प्रसह्य परिपाथिनि ॥ २ ॥ जो तारे बगाडनार उपरज कोप करवो होग, तो ते कोप उपरज तारो कोप केम थतो नथी कारण के धर्म अर्थ काम अने मोक्ष आ चारेने अतिशय विघ्नकारक आ कोप छे, (कोपवालो माणस चारेने भूली जाय, अने अनर्थ करे छे) विगेरे प्रश्न; क्या कारणे वचनथी पण ठपको आपतां आ लोक अने परलोकर्नु बगाडनार स्वपरने वाधा करनार क्रोधने लोको पकडी राखे छे? उ:-जेने 8 उन्नत (घj) मान के, अथवा जे पोताना आत्माने उंचो माने छे, तेवो माणस पवळ मोडनीय कर्मना उदयथी अथवा अज्ञानना उदयथी। मुंझाय छे एटले कार्य अकार्यना विचारना विवेकथी शून्य याय छे, तेवा सुंझायलाने कोइए शीखामण आपवा कांइ कबु होय, अथवा मिथ्यावीए वाणीथी तिरस्कार को होय त्यारे, पोते जाति विगेरे कोड़पण जातनो मद उत्पन्न यतां मानरूप मेरुपर्वत उपर चढीने & कोपायमान थाय छे, के हु आवो ! तेनो पण आ तिरस्कार करे छे, धिकार के मारी उंच जातिने ! धिक छे मारा पुरुषार्थने ! ॐॐॐॐॐAS 4: 5A For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18 पिक छे मारा ज्ञानने ! आ प्रमाणे अभिमानग्रहथी वेरायेलो वचनना उपका मात्रयी पण गच्छमांथी नीकळी जाय छ, अथवा नीकळ्या पछी बीजा साथे क्लेश करवायं विटंबना पामे छे अथवा कोइ ओछी चुद्धिवाळा मनुष्ये तेने फुलाव्यो होय के आ उत्तम आचा० कूळमा उत्पन्न भएलो, सुंदर चेहरावालो, तीक्ष्ण बुद्धिवाळो कोमळ वचनवाळो वधां शाख जाणनारो भाग्यशाळी मुखथी सेवा सूत्रम् numan योग्य छे, एवा साचां जूठां वचन सांभळीने उंचे चढावेलो अहंकारी बनीने महान चारित्रमोहथी अथवा संसारना मोदयी मुंडाय छ, ५९. अने ते अहंकारथी महामोहे मुंझायेलाने कोइ वचनथी पण जरा ठपको आपे, तो गच्छमांयी नीकळी जता ओछु भणबाथी गाम गाम विचरतां शृंदाख थाय ते कहे छे, ते ओछु भणेलाने एकला फरतां उपसर्ग संवन्धी पडा थाय, अथवा जुदा जुदा रोगो संबन्धी पीडा वारंवार थाय ते पीडाओने एकला विचरता साधुने सास्रोने न जाणवाथी निरवध विधिए दूर करवी मुश्केल छे, केवा साधने मुश्केल छे ? ते कहे छे ते जुदी जुदी रीते आवेली पीडाओ सारी रीते सहेबानो उपाय न जाणवाथी, तथा सारीरीते सहेवान फळ न जाणतो होगाथी तेने ते पीडा सहेवी मुश्केल छे, पछी आतंक पीडाथी पीडाइ आकूळ बनेलो एषणाशुदिने पण त्यजी दे, प्राणीने यतुं दुःख पण विसरी जाय वाक (वचन) रुप कंटकथी मेरायलो अंदर पण क्रोध करीने बळे पण आवी उत्तम [8 भावना न भावे के, आ पीडाओ मारा कर्मना विषाको उदयमां आच्याथी थइ छ पण, बीजो प्राणीतो, तेमां निमित्त मात्र छे. वळी आत्मद्रोहममर्यादं मूढमुज्झितसत्पथम् । सुतरामनुकम्पेत, नरकार्धिष्मदिन्धनम् ॥१॥ आत्माने द्रोह करनार जे अमर्यादा छे, ते मूढ माणसने सुमार्गेथी घसडीने नरकनी अग्निरूप-ज्वाळामां इधन तरीके मांखे.181 ला(अर्थात् मर्यादा छोडीने बहार नीकळे ते नरकनां जेवां दुरखो अहीं अने परलोकमा बन्ने जग्याए भोगवे ) उवाचवड For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५९९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवी उत्तम भावनाओ आगमने न भणवाथी आपरिमलित मतिवाळाने होती नथी. आ बतावीने गुरुमहारज शिष्योने कहे के के:- आ एकला फरनाराने बाधा दूर करवी मुश्केल होवाथी अजाणपणाथी पीडा देखवा विना मारा उपदेशयी तुं बहार न जतो पण आगमने अनुसरी सदा आपणा गच्छमां रहेनारो वन, सुधर्मास्वामि कहे छे:-आ अभिप्राय कुशल एवा वर्धमानस्वामीनो छे, | के जेम, एकला भटकनाराने दोषो छे, तेम आचार्य पासे हमेशां रहेनाराने गुणो छे. हवे, आचार्यना समिपमा रहे; तेणे कर ते कहे छे:- ते आचार्य महाराजनी दृष्टि जेमां होय; ते प्रमाणे हेय उपादेय पदार्थोमां वर्तं (जेम कड़े तेम करं) अथवा संययमां दृष्टि ते 'दृष्टि' अथवा तेज आगमज दृष्टि एटले आगममां बताव्या प्रमाणे सर्व व्यवहार करतो; एटले, आगमयां बतान्या प्रमाणे सर्वसंगथी विरति करी (ममख-त्यगी) ने संयमकृत्य करवां तथा पुरस्करने सर्वत्र आगळ स्थापवो; अने ते प्रमाणे आचार्य संबन्धी | वर्तवं तथा आचार्यनी संज्ञा प्रमाणे आचरतुं. अर्थात् तेमनुं कहेलुं ध्यानमां लड़ पछी ते प्रमाणे वर्तनुं पण पोतानी मतिकल्पनाथी कंड पण कार्य न करे तथा गुरुनुं निवेशन ते पोतानुं करे; एटले सदा गुरुकुल-वास सेवे; त्यां गुरुकुळमां बसतो केवो थाय ? ते कहे छे. यतनाथी विहार करनारो थाथः यतनाथी पलेणा डिकरतो माणीने उपमर्दन न करे. वळी, आचार्यना चित्त (अभिप्राय) प्रमाणे क्रियामां प्रवर्ते ते. चित्तनिपाती कहेवाय छे, तथा गुरु कोइ जग्याए गया होय तो, ते तरफ ध्यान राखे; ते पंथ निर्ध्यायी कहेवाय; तथा गुरुना संथारानो देखनार ते संस्तारक मलोकी. अने गुरु मुख्या होय; तो आहार शोधे; ते विगेरे दरेक रीते गुरुनी आराधना करवायी सदा गुरुनो आराधक बने. बळी, दरेक वखते गुरुनो अवग्रह कार्यप्रसंग सिवाय आगळपाछळ साचवे, (कार्यप्रसंगे अवग्रहमां जाय, नहि तो सादात्रण हाथनी अंदर न जाय आ सूत्रथी ऋण इर्या उद्देशकमां रही छे. ( तेमां इर्यासमिति नुं For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५९९॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् वर्णन छे,) की कोइ पण कार्यमा गुरुग मोकस्यो होय, तो प्राणीजओने साडाण हायनी जग्यामां शोधतो तेने दुःख न थाय, | तेम यतनाथी चाले बळी:आचा० से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचमाणे पसारेमाणे विणिवट्टमाणे संपलिजमाणे एगया गुण. ॥६००nH समियस्स रीयओ कायसंफासं समणुचिन्ना एगतिया पाणा उदायंति, इहलोगवेयणविजावडियं, IN६००॥ जं आउट्टिकयं कंमं तं परिन्नाय विवेगमेह, एवं से अप्पमाएण विवेगं किहइ वेयवी ॥सू० १५८॥ ते साधु सदा गुरुनी आज्ञा प्रमाणे चालनारो होय छे, ते अभिक्रम जतो के पाछो फरतो, के हाथ पगने संकोचतो हाथ विगेरे अवयवने पसारतो, पधा अशुभ वेपारथी पाछो हटतो, होय त्यारे बरोबर रीते बधी बाजुए हाथ पग विगेरे शरीरना अवयवोने तथा तेना स्थानोने रजोहरण विगेरेथी पूंजीने गुरुकुलवासमां बसे, त्यां रहेनारनी विधि कहे छे. जमीन उपर एक उरु (जांघ) स्थापीने बीजो उचो राखीने से, निश्चळ स्थने तेम न बेसाय तो भूमि देखीने पूंजीने कुकडीना बेसवा प्रमाणे संकोचे, अथवा जरुर पढे लांबा पहोळा पण करे सुq होय; तो पण मोरती माफक सुवे. कारणके ते मोरने बीजा प्राणीनो भय होवाथी एक पासे सुबे, तथा हमेशा सचेतन सुवे, तेज प्रमाणे साधुने पामुं फेरव होय तो पण देखीने पूंजीने फेरवे एज प्रमाणे वधी क्रियाओ पुंजी प्रमार्जीने यतनाथी करे; आ प्रमाणे अप्रमादीपणे क्रिया करतां छतां अवश्य बनवाकाळने लीधे शुं थाय, ते कहे थे, कदाच ते गुणयुक्त साधुने अप्रमत्तपणे वा अनुष्ठान करवा सतां, जता आवतां संकोचतां पसारवां पाछा For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir आचा० सुत्रम् ॥६०१॥ ॥६०१॥ khe फरतां प्रमार्जन करता कोइपण अवस्थामा पोतानी कायाना समागममां आवेला संपातिम (उडता) केटलाक जंतुओ परिताप पामे, | केटलाक ग्लानी पामे, कोइनो अवयव नाश पामे, अने अंतअवस्था तो सूत्रकारज बतावे छे के, केटलाक पाणथी पण दूर थाय हे, आयां कर्म संबन्धी विचित्रता छ, शैलेशी अवस्थामा रहेला साधुने मशक विगेरेना कायनो स्पर्श यतां कोइ जंतु मरण पामे, तो पण बन्धना उपादान कारण योगना अभावथी बन्ध नथी. उपशांत तथा क्षीणमोह तथा संयोगी केवलिने स्थिति निमित्त 'कषायो' ना अभावथी एक सययनोज बन्ध छे. अप्रमत्त साधुने जघन्यथी अंतर्मुहुर्त अने उत्कृष्टथी कोडाकोडी सागरोपमनी अंदरनो बन्ध छे, पण प्रमत्त साधुने अनाकुट्टीना कारणे तथा विना देखे वर्तन करवाथी कोइ पाणीनो पोताना पग विगेरेथी स्पर्श थतां तेने उपतापना विगेरे थता जघन्यथी तथा उत्कृष्टथी अप्रमत्त माफक छे, पण प्रमादना कारणे काइक विशेष बन्ध छे. अने ते तेज भवे क्षेपाय ६ (दूर थइ सके) छे, ते सूत्र बडेज बतावे छे. आ जन्ममांज भोगव, ते आलोकवेदन छे, तेनावडे भोगवq ते आलोकवेदनवेध छे, तेथी आवी पडेलु थे आलोकवेदनषेध आपतित छे, तेनो भावार्थ आ छे, प्रमत्त यतिए पण जे विना इच्छाए भूल करी ते कायना। संघट्टन विगेरेथी कर्म बन्ध थयो, ते आ भवना अनुवन्धरूपे छे, ते भवे खेरवी शकाय तेम छे, आकुट्टीथी करेला कृत्यमां भं करवं जाते कहे छे, आगममां कहेल कारण विना (फक्त भुलथी) प्राणीने दुःख दीधुं होय, तोश परिझाए जाणीने विवेक करवो, प्रायश्चित ठेवू, ते दश प्रकारचं छे, (ने गुरु पासे लेवं) अथवा तेनो अभाव करे, अर्थात् एवं कृत्य करे के तेनो अभाव थाय, कर्मनो जेम अभाव थाय, ते बताये छे, 'एवं'-हवे बतावे ते उपाय प्रमाणे ते क्रोधादिथी करेला कृत्यना विवेक माटे वेदविद् (ज्ञाता) साधु प्रमादने दुर करी दश प्रकारमांची कोइ पण प्रकारनं जे योग्य होय, ते सम्पय अनुष्ठानवडे करीने अभाव करे अथवा तीर्थकर है For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा ॥६०२॥ तेज वेदविद् छ अथवा आगम जाणनारा गणधर चौद पूर्वी विगेरे मुनिओ अप्रमादवडे शीघ्र अभाव करे छे. इथे अममादी केवी 3 रीतनो होय छे, ते कहे छे. सासुत्रम् से पभूयदंसी पभूयपरिन्नाणे उवसंते समिए सहिए सयाजए, दई विडिवेएइ अ ॥६०॥ प्पाणं किमेस जणो करिस्सइ ?, एस से परमारामो जाओ लोगंमि इस्थीओ, मुणिणा ह एवं पवेइयं, उब्बाहिजमाणे गामघम्मेहिं अवि निब्बलासए अवि ओमोयरियं कुजा अवि उझं ठाणं ठाइजा अवि गामाणुगामं दूइजिजा अवि आहारं वुच्छिदिजा अवि चए इत्थीसु मणं, पुर्व दंडा पच्छा फासा पुढवं फासा पच्छा दंडा, इच्चेए कलहासंगकरा भवंति, पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अासेवणाए तिबेमि, से नो काहिए नो पासणिए नो संपसारणिए नो मामए णो कयकिरिए वइगुत्ते अज्झप्पसंखुडे परिवजइ सया पावं एवं मोणं समणुवासिज्जासित्तिबेमि (सू० १५९) ॥ ५-४ ॥ लोकसारे चतुर्थः ॥ For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||६०३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते साधु प्रमादना विपाक विगेरेनुं अथवा अतीत अनागत वर्त्तमानना कर्मविपाकर्तुं प्रभूत ( पर्नु रहस्य) देखवाना स्वभावनाको होवाथी प्रभूतदर्शी कद्देवाय छे, पण वर्त्तमाननो स्वार्थ देखीने कांइ पण न करे, तथा सत्व [ जीव समूह ] नुं रक्षण करवाना उपायमां पणुं ज्ञान धरावे, अथवा संसार भ्रमण तथा मोक्ष मेळववानां कारण घणी रीते जाणे, माटे 'मभूत परिज्ञानी' कहेवाय छे, अर्थात् संसारतुं जेतुं स्वरूप होय तेनुं बधा जीवोने बतावे छे, 'किंच'- बळी कपायनो उदय न करे, तेथी अथवा इन्द्रिय अने मन ने कबजामा राखवाथी 'उपशांत' छे, तथा पांच समितिवडे अथवा सम्यग् रीते मोक्षमार्ग तरफ चालवाथी समित छे. तथा ज्ञान विगेरेथी सहित छे, तथा सदा यह करवाथी सदायत छे, आ प्रमाणे अप्रमत बनीने गुरु सेवामां रहेतो, पोताना प्रमादथी पूर्वे करेलां अशुभ कृत्योनो अंत करे छे, ते साधु खी विगेरेना अनुकूल परिषद आवतांशुं करे, ते कहे छे. 'दृष्ट्रा' त्रीओने पोताना आ| त्माने उपसर्ग करवाने आवती देखीने विचारे के हुं सम्यग् दृष्टि हुं, तथा पंच महाव्रतनो भार में लीधो छे, शरद ऋतुना चंद्र समान निर्मळ कुलमां में जन्म लीधो छे. हुं अकार्य त्यजवा माटेज तैयार थयो लुं, ते स्त्रीसमूहने देखी विचारे, के आ स्त्रीओवी मारे शुं प्रयोजन स्छे ? में जीववानी आशा त्याग करी छे, आ लोकनुं सुख सर्वथा छोड छे, तेथी ते स्त्री मने शुं उपसर्ग करवानी छे ? मार्कं मन केम चलायमान करशे ? अथवा विषयोनुं सुख दुःख रूपे परिणमवाथी मने आ स्त्रीओ सुख आपवानी के ? अथवा पुत्र कलत्र विगेरे मने काळ झडपशे, अथवा रोगो पीडशे, त्यारे ते केवीरीते बचावी शकशे ? अथवा आ प्रमाणे स्त्रीओना स्वभावने चिंतये ते सूत्रकारण बतावे छे. के. आ खीसमूह रमणता करावे माटे आराम से, तथा परम आराम होवाथी परमाराम छे, ते सुख देखाढनारी स्त्री तल जाणनार ज्ञानी साधुने पण तेनाहास विलास उपांग तथा आंखना कटाक्ष देखढवा विगेरे विचोकवडे ते झुंझवे छे, भा लोकमां For Private and Personal Use Only सूत्रम् ||६०३॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ६०४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे कोइ खीसमूह के तेने मोहरूप जाणीने तेओ पोते पुरुषने न त्यजे, ते पहेलां पोते त्यजवी, आ तीर्येकरे कहेलं छे, ते बतावे छे, 'सुनिना' श्री वर्धमानवामाने केवलज्ञान उत्पन्न थया पछी तेमणे कां छे केः-स्त्रीओ भाव बन्धनरूप छे' एवं पूर्वे प्रकर्षथी क छे, अने आ पण कहुं छे के अतिशय मोहना उदयथी पीडायला ने 'उबाध्यमान' छे पः- शाथी? उः - इन्द्रियोना ग्राम एटले ते ओना धर्ममां फसतां पीडाय त्यारे गच्छयां रहेला होय तो गुरु समजावे. प्रः केवी रीते ? उ-ते कहे छे के तेवो साधु निर्बल निःसार एटले लख्खं मुकुं खानारो बने, अथवा निर्बळ बनीने खाय, अर्थात् घणी तपस्या करवाथी शरीर थाकतां इन्द्रियोना विषयो पण शांत था जाय छे, कारणके आहार ओछो लेवायी बळ ओहूं पड़ जाय छे, ते बतावे छे. अवमोदरी (ओछ्रं खाई ते) करे, अने जो अंतमांत खावा छतां पण मोह शांत न थाय, तो तेथी पण अस्निग्ध आहार बाल चणा विगेरेना ३२ कोळीया मात्र खाय, तेथी पण शांत न धाय, तो कायोत्सर्ग विगेरे काय क्लेशनो तप करे, ते बतावे छे. उर्ध्वस्थाने रहे तथा शीत अथवा उष्णता विगेरेमां (एटले मां नदी किनारे अने उनाळामां तपेली रेतीमां) काउसग्ग करे, तेथी पण शांत न थाय, तो गाम गाम विचरे जो के कारण बिना बिहार निषेध्यो छे, छतां मोह शांत करवा रोज चाली चालीने काया थकवीने मोह दूर करे, एवी बधारे भुं कहे ? अर्थात् जे कारणथी विषय इच्छा दूर थाय, ते कृत्य करे अने छेवटे आहार पण त्याग करे, अतिपात करे (उंवेथी पढीने मरे) उद्दबन्धन करे (गळे फांसो खाय) पण स्त्रीयां मन न करे, (अपि समुच्चयना अर्थमा छे) स्त्रीमां जे मन गयुं, ते त्यजे, तेना परित्यागमां वे प्रकारना कामो (इच्छा काम मदन काम) पण दूरथी त्यजेला जामवा. कं छे के काम जानामि ते रूपं, सकल्पात् किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ६०४ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ।।६०५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हे काम हुं तारुं स्वरूप जाणुं छु, के तुं संकल्पथी उत्पन्न थाय छे पण हुं तारो संकल्प करवानो नथी, तेथी तुं मारा हृदयमां आववानो नथी ! प्रश्नः - पण शा पाटे खीमां मन न कर ? उ:- स्त्रीसंघमां वर्तनारो अपरमार्थ दृष्टिवाळ प्रथमथीज ते स्त्रीनो संग न छोडदा पैसो पेदा करवा खेती वेपार विगेरेनी सावध क्रिया करतो अगणित (अत्यंत ) भूख तरस ठंड ताप विगेरेना परिषहो सहेबाना आ लोकमांज दुःखरूप दंडो सहे छे, अने ते दंडो स्त्री संबन्ध करवा पहेलांज कराय छे, (तेथी पूर्वे कं छे) अने स्त्री ग्रहण कर्या पछी विषयमा निमित्तथी बंधायला पापवडे नरक विगेरेनां दुःखोना स्पर्शो भोगना पडसे, खीना अकार्यमा प्रवर्त्तेलाने पूर्वे दंड अने पछी | हाथ पर विगेरे छेदावाना स्पर्शो छे, अथवा पूर्वे (कोड़ स्त्री साथै छु कुक्रत्य करतां) ताडना (लाकडीनो मार) विगेरे छे अने पछीथी स्त्रीनो संबन्ध तथा आलिंगन चुंबन विगेरे हे ते बतावे छे. बन्दी र आणेल अने रोकेल राजकुमारीए गवाक्षमांथी फेंक्यो ते नीचे पडेल आवीलने लेवाथी राजपुरुषोए देखवाथी ठोक्यो, त्यारे राजकुमारीने मूर्छा धवाथी तेने देखतां इन्द्रदत्त वणिकने प्रथमथी दन्दा खावा पड्या, अने पाछळथी कन्या मळतां स्पर्श त्रिगेरें सुख मळयुं, अथवा कोइने प्रथम सुख विगेरेना स्पर्शो छे, अने पाछळथी ललितांग कुमारनी माफक बीजा व्यभिचारीओने दुःख पढे छे, 'किंच' बळी आ स्त्री संबन्धो क्लेश संग्रानो सङ्ग (संबन्ध) करावे छे, अथवा कलह (क्रोध) तथा आसङ्ग से राग छे, ए| टले रागद्वेष करावनारा छे, जो एम छे तो शुं करे, ते कहे छे. ऐहिक अमुष्मिक (आ लोक परलोक) संबन्धी अपायोना कारणे स्त्री संगनी प्रत्युपेक्षावडे 'आगमेत्तत्ति' जाणीने आत्माने आसेवन ( कुचाल) थी रोके, आ प्रमाणे हुं कहुं हुं, ते तीर्थकरना वचन For Private and Personal Use Only उन सूत्रम ||६०५॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम् ॥६०६॥ ममाणे कई छ त्रीसंगमां दुख छ, माटे संग न करवो. बळी ते त्यागवानो उपाय बतावे छे. आचा०४ 'स' ते स्त्रीसंगनो त्यागी मुनि स्त्रीना कपडांनी, वेषनी तथा शणगारनी कथा न करे, आ प्रमाणे ते त्यजाय छे, तथा तेमने नरकमां लइजनारी तथा स्वर्गमोक्षमां विघ्नरूप अर्गला जेवी जाणीने ते स्त्रीनां अंगउपांगने न देखे, कारण के स्त्रीभोने देखता तेना ॥६०६॥ कटाक्षो महान अनर्थने माटे थाय छे. का छे के: सन्मागें तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, लज्जा तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव ॥ भूचापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति ।। का नीतिकार कहे के के पुरुष सन्मार्गमा इन्द्रियोंने राखवा त्यां सुधीज समर्थ पाय छे, तथा त्यां मुधीज लज्जा छे, तथा विनय पण त्यां सुधीज छे, के लीलावती (सुंदर स्त्री) ना कानना छेडा मुधीखेंचाइने नीली पांखोवाला पापणना चापबडे खेंचीने छोडेला (कटालो) पुरुषना हृदयनी धीरजने चोरनारा दृष्टिवाणो त्या सुधी न पडे. तथा ते स्त्रीओने नरकनी आपनारी जाणीने तेनी सायेद IPIसंमसारण (खानगी वात) पोतानी सगी बेन विगेरे पण न करचु. कयु के के मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिद्रियग्रामः पंडितोऽप्यत्र मुह्यति ॥१॥ ____ माता बेन के दीकरी पोतानी होयः तेनी साथे पण एकान्तमा न बेसे कारण के इन्द्रियोनुं प्रबळ क्यारे छे जेमां, पंडित पण मोह पामे छे ! आई जाणीने स्वार्थमा तत्पर स्वीओमां ममत्व न करवो; तथा ते स्त्रीने मोइ करनारी मंडन विगेरेनी क्रिया पोते न सब- वासन For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६०७॥ www.kobatirth.org करे; तथा स्त्रीओनी वैयावच्छ पोते न करे. अर्थात् कायाना व्यापारनो निषेध कर्योः तथा आ स्त्रीओने सारा- मोक्षनां) अनुष्ठानमां विघ्नरूप मानीने वाणी मात्रथी पण आलाप न करे. आथी वचननो निषेध कर्यो, तेम अध्यात्म - (मनने) कवजामां राखी खीना भोगमां मन पण न राखे; एटले सूत्रनो अर्थ विचारवामां ध्यान राखीने मननो ते संबन्धी व्यापार पण रोके. आवो उत्तम साधु बीजुं शुं करे ? ते कहे छे केः सर्वथा सर्वकाळ पाप तथा पापनां उपादान कारण छोडे हवे समाप्त करे ले के, आ आखा उद्देशाम शरुआतथी कहेलं मुनिनो भाव मौन छे, तेने आत्मामां तुं चिंतत्रजे, आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. चोथो उद्देशो समाप्त भयो. ॥ इति श्रीआचाराङ्गसूत्रे तृतीयो भागः समाप्तः ॥ समाप्तः For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 88 सूत्रम् ॥६०७॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||६०८।। www.kobatirth.org Gagra AMAGATS रुपीया ११ नी किंमतनो ग्रंथ फक्त रुपीया ४ मांज मलशे. ( मूळकर्ता-धर्मदासगणी ) (टीकाकार - रामविजयगणी ) उपदेशमालासटीक. आगळी ग्राहक थनार पासेथी रु. ४ पाछळथी ग्राहक थनार पासेथी रु. ६ लेजरमा कागल उपर सुपररोयल साइझमां पत्राकारे उपाय है. आगाउथी रु. मोकलनारने पोस्टेज नहि. Shead हीरालाल हंसराज - जामनगर. PIRI For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अच्छ KJPJPSASASAK सूत्रम् ilßા Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥ इति श्रीआचाराङ्गसूत्रे तृतीयो भागः समाप्तः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir OSSSCSCSC880-0-0-880 For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only