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आचा०
॥५६०॥
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उपर मने आनंद थयो छे, (प्रथम भगवाननुं वचन सांभळ, तेथी कढवां फळ जाण्यां पछी अनुभव्यं तेथी विश्वास थयो) तेथी हुं हुं हुं के:पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिजमाणे, इत्थ फासे पुणो पुणो, आवंसी केयावंती लोयंति आरंभजीवो, एएस चेव आरंभजीवी, इत्थवि बाले परिपश्चमाणे रमई पावेहिं कम्मेहिं असरणे सरणंति मन्त्रमाणे, इहमेगेसिं एगचरिया भवइ, से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोभे बहुए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे आसवसन्ति पलिउच्छन्ने उद्वियशयं पत्रयमाणे, मा मे as अक्खू अन्नायपमायदोसेणं, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ, अट्टा पया माणव ! कंमकोविया जे अणुवरया अविजाए पलिमुकूखमाहु आवहमेव अणुपरियहंति तिबेमि ( १४५ ) | लोकसारे प्रथमोदेशक: ५-९ ।।
हे एकांत धर्म रक्त मनुष्यो ? तमे देखो ? ( रुपमां बहु वचन लेवाथी आदि शब्दनो अर्थ धाय के एटले रुपआदि) के रुप विगेरे इन्द्रियोना रस जे खास कडवां फळ आपनार असार छे, तेमां गृद्ध थयेला अथवा संसारमां पडेला जीवो स्वाद लइने पछी दुःख भोगवा नरक विगेरे पीडा स्थानमां गयेला छे, ते प्राणीओने जुओ ? ( कोइने नरक उपर विश्वस न होय तो कसाइखानाम पशु पक्षीओने गळे छुरी फरती देखो, के ते पशु पक्षीओ आवी दशामां पडवानुं भुं कारण छे, तथा पशुने मारनारा मरावनारा
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सूत्रम ॥५६०॥