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आचा०
॥५६१॥
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मांसनो स्वाद करनारनी भुं दशा थशे, ते पण विचारो ?) ते विषय रसना स्वादुओ इन्द्रिओने वश थइ शुं फळ मेळवे ते कई छे, 'एत्थकासे' आ संसारमा इन्द्रियथी परवश थयेलों मूढ बनीने कर्मनी परिणतिरूप स्पर्शोने वारंवार तेवा तेवा स्थानोमां ते भोगवे, पाठांतरमां 'एत्थमोहे' छे, आ संसारमां मोह ते अज्ञान अथवा चारित्र मोहमां वारंवार मूढ बने छे, कोण ? उत्तरः- आवंती-जे कोई गृहस्थ आ लोकमां पेट भरवा पाप आरंभ करनारा छे तेओ (बीजाने दुःख देइने) पोते पाछां तेवां दुःख मेळवे छे, बळी ते गृहस्थोने आश्रय करीने रहेल आरंभ करनारो करावनारो अनुमोदनारो जनेतर के पासत्थो वेष विडंबक साधु छे, ते पण गृहस्यो माफक दुःख भोगवे छे, ते बतावे छे, एएस सावध आरंभमां पडेला गृहस्थोमां शरीर निर्वाह माटे रहेतो जैनेतर के पासत्यो | साधुपण आरंभजीवी होय, ते पूर्वे बतावेला दुःखनो भोगीयो थाय, वळी गृहस्थ के जैनेतर तो दूर रहो, पण जे संसारसमुद्रथी तरारूप सम्यक्त्व रत्र मेळवीने मोक्षनुं एक कारण विरति परिणाम पामीने पण जो पापकर्मना उदयथी चारित्रने पूरुं न पाळे तो ते पण सावध अनुष्ठान करनारो बने छे, ते कहे छे 'एत्यवि' आ अईत् प्रणीत संयम मेळवीने रागद्वेषथी व्याकुल बनेलो अंदरथी तपती अथवा उत्कंठा करतो विषयनी आकांक्षाथी रमे छे, ? कोनी साथे ? उत्तर:- पाप कृत्योवडे विषयरस लेवा सावध अनुष्टानमां चित्त लगाडे छे, शुं करतो ? 'असरण' कामाग्रि अथवा पापकर्मथी वळतो जो के सावध अनुष्ठानना अशरण छे, छतां तेनुं शरण खेतो भोगनी इच्छावाळो अज्ञान अंधकारथी छवायेलो दृष्टिवाळो ( कामांत्र बनेला ) वारंवार अनेक दुःखोने भोगवे छे, गृहस्थ के जैनेवर दूर रहो पण प्रवज्या (दीक्षा) लेइने पण केटलाक वेष विडंबको दुराचारोने आचरे छे, ते बतावे छे, 'इहमे' आ मनुष्य | एकला करे छे, (चराय ते चरण अथवा चर्या एकलानी चर्या ते एक चर्या) ते एकलविहारीपणुं प्रशस्त अप्रशस्त एम वे भेदो
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सूत्रम्
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