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आचा०
॥५५९॥
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जाणनारो कहेवो, ( ते जे स्त्रीसंग मन वचन कायथी न करे) पण मोडनीयकर्मना उदयवी जे पासत्या (शिथिल साधु) के, ते सेवे छे, अने सेवीने पछी साता तथा गौरव नाश थवाना भयथी शुं करे ते कहे छे, कट्टु एकांतमां कुचाल सेवीने गुरु विगेरे पूछतां जुढं बोले आवी रीते जुटुं बोली पाप छुपावनारने शुं थशे ते कहे छे, 'बिइआ' अबुद्धिमानने प्रथम तो कुकर्म कर्तुं ते अज्ञानता छे, अने पाएं जुड़े बोलतां मृषावादनो दोप लागे छे, तथा ते फरी न करवापणे फरी अनुत्थान (चालु) ले, आ संबं नागार्जुनीआ आ प्रमाणे कहे छे:
" जे खलु विसए सेवई सेवित्ता वाणालोएड़, परेणवा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परंसएण वा दोसेण पाविद्वयरेण वादोसेण उवलिं पिजंत्ति "
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जे कुकर्म करे करीने आलोचना करतो नथी, अथवा बीजाए पूछतां जुटुं बोले छे, अथवा पापी पोताना दोषो वढे वधारे वधारे लेपाय छे. जो एम छे, तो शुं करं, ते कहे छे, 'लद्धाहु' कामो प्राप्त थये छते पण 'हुरत्थे ' चित्र क्षुल्लक (मुनि) माफक तेनां कडवां फळ जाणीने चित्तथी ते बहार करे (अथवा हुशब्द अपि अर्थमां लइ रेफनो आगम थयो ते बीजाना अर्थमा प्रथम विभक्ति लेतां) आवो अर्थ थाय छे के, मेळवेला होय, ते विपाकद्वारवडे विचारीने तथा ते शब्दादिनां कडवां फळ जाणीने बीजाने तेवां पाप करवानी आज्ञा पण पोते न आपे, तेम पोते पण छोटे, एवं सुधर्मास्वामी कहे छे, जे में पूर्वेकं, ते में एक सरखो श्रेष्ट ज्ञान प्रवाह मेळ्ळ्यो छे, अने शब्दादिनां कडवां फळने जाणवाथी देखवाथी जिनेश्वरना वचन
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सूत्रम् ॥५५९॥