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सूत्रम्
॥४६॥
जे अनवमदर्शी के ते निसन्न छे एटले पाप कर्मोथी खेदी बनीने से करतो नथी, अथवा पाप कर्मोथी दर रहे छे. वळी वीजा गुणो मेळववा बताचे छे.
कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं तम्हा य वीरे विरए वहाओ, छिदिज सायं ॥४६॥
लहभूयगामी ॥१॥ गंथं परिपणाय इहज! धीरे सायं परिणाय, चरिज दंते । उम्मज लधुं इह माणवेहि, नोपाणिणं पाणे समारभिजा सि तिबेमि ॥ द्वितीय उद्देशकः ३-२॥
क्रोध जेमा पहेलो छे ते क्रोधादि कषायो छे. तथा जेनावडे मपाय ते मान, एटले अनंतानुबन्धी विगेरे कषायोना चार भेदो छे ते अथवा क्रोध अने मान जे क्रोधk कारण छे ते गर्वने साधु हणे अने ते हणनारो वीर छ, तथा जेम द्वेषरूप क्रोध मानने राहणे, तेमज राम दूर करवा कहे छे. लोभ पण अनंतानुबंधी विगेरे चार प्रकारनो छे तेनी स्थिति अने विपाकने जो, कारणके तेनी ६ स्थिति सूक्ष्म संपराय नामना दशमा गुणस्थान सुधी मोटी छे, अने तेनो विपाक अप्रतिष्ठान विगेरे नरकवासनी प्राप्ति सुधी छे..
तेथी सूत्रमा कबुंछे के "गच्छा मणुआ य सत्तमि पुर्वि" माछलां अने मनुष्यो मरीने सातमी नारकी सुधी जाय छे, ते Pममाणे ते मोटा लोभमां परवश थइने सातमी नास्कीमा दुःख भोगवे छे,
तेथी शुं करवू ते कहे छेन जो लोभथी आवु दुःख छे तो पाणी वध विगेरेनी प्रवृत्तिथी नरकमां जवु न पडे माटे वीर पुरुष लोभवी दूर रहे. वळी शोकने
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