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सुत्रम
T
॥६६॥
सूत्र उच्चार, जोइए.
संघि लोयस्स जाणित्ता, आयआ बहिया पास, तम्हा नहंता न विघायए, जमिणं अनमनआचा
वितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुणी कारण सिया? (सू० ११५) ॥४६६॥
द्रव्यर्थी अने भावथी एम चे प्रकारे संधि छे. एटले भीत विगेरेमा फाट पढे ते द्रव्य संधि छे, अने भावथी संधि कर्म विवर छे एटले दर्शनमोहनीयकर्म जे उदयमा आन्युं ते क्षय धयुं अने बीजु बाकीनुं शांत छे ते सम्यक्त्वनी माप्तिरूप भावसंधि छे, अथवा ज्ञानावरणीय विशिष्ट क्षायोपशमिकभावने पामेल ते सम्यम् झाननी प्राप्तिरूप भावसंधि छे. अथवा चारित्रमोहनीय क्षय | उपशमरूप भावसंधि जे छे तेने जाणीने विचारजे के प्रमाद करवो सारो नथी.
जेमके लोकमां चोर विगेरे शत्रुना सैन्यथी घेरायेला लोकमां भीत अथवा बेडी विगेरेमा सांधो अथवा छिद्र देखीने प्रमाद 3 करवो सारी नथी तेज प्रमाणे मोक्षाभिलाषीए कर्म विवर मेळवीने लव क्षण जेवा थोडा काळने पण स्त्री पुत्रनां संसारी सुखनो
| व्यामोह (प्रेम) करवो सारो नथी; अथवा सांधो तेज संधि छे, ते भावसन्धि ज्ञानदर्शन-चारिपना परिपालनमां अशुभकर्मना उदहै यथी फाट पड़े; तो पार्छ संघाण करीदेवु. (कुभावने दूर करवो.)
आ अयउपशमिक विगेरे भावलोकना आश्रयी छे, अथवा मूत्रमा विभक्ति बदलीए; तो, सातमी विभक्ति लेतां लोकमां पटले, ज्ञानदर्शन-चारित्रने योग्य लोक हे, तेमां भावसन्धि जाणीने अक्षुण्ण (सम्पूर्ण) पानवाने प्रयत्न करतो.
जलकर
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