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आचा०
॥४४५॥
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तेनी उपेक्षा करीने अथवा तेना बंधने प्रकृति स्थिति अनुभाव प्रदेशरूपे विचारीने तेनी सत्ता विपाकने पामेला प्राणीओ जेवी रीते भावनिद्रामां सुए छे ( अने दुःख भोगवे छे ) ते विचारीने कर्म तोडवामां भाव जागरण करवा साधुए उद्यम करतो, ते कर्म तोडवानुं आत्रा क्रमथी थाय छे.
प्रथम आठ कर्मवाळो माणस छे ते दीक्षा लड़ने मोहने तोडे पछी अप्रमादी यह क्षपकश्रेणी करे ते आठमे गुणस्थाने क्रोधादि ओछा करो अग्यारमे गुणस्थाने लोभनो सर्वथा नाश करे अने वारमा गुणस्थानना अंते ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अंतराय कर्म दूर करी तेरमे गुणस्थाने चार अघाती कर्मवाळो रहे. आ गुणस्थाने जघन्ययी अंतर्मुहुर्त, अने उत्कृष्टथी पूर्व कोडीमां थोडो ओछो काळ रहे, त्यारपछी १४मे गुणस्थाने पांच स्त्र अक्षर बोलवा जेटलो काळ शैलेशी अवस्थाने अनुभवीने अकर्म थाय छे.
हवे, उत्तरप्रकृतिभनुं छतापणुं - अछतापणुं बतावे छे. ज्ञानावरणीय तथा अंतराय ते दरेकनी पांच पांच मेदनी प्रकृति चौदे जीवस्थानम होय छे. तथा, चौद गुणस्थानमां मिध्यादृष्टिथी मांडीने वारमा गुणस्थान सूत्री पांचे प्रकृतिओ होय छे, तेमां बीजो विकल्प थतो नथी तथा दर्शनावरणीयनां त्रण सत्कर्मनां स्थान छे. (सत्कर्म एटले सत्ता छे.)
पांच निद्रा, अने चार दर्शन, ए नव प्रकृति सर्व जीवस्थानमां रहे छे. (१) अने गुणस्थानमा अनिवृत्ति वादरकाळना संख्येय भाग सुधी होय छे. (२) केटलाफ संख्येय भागना अंतमां थीणद्धिनिद्रात्रिक क्षय धवाथी छ कर्मत्रा बीजुं स्थान छे.
त्यारपछी, क्षीणकषायना अंत समयना पहेला समयमा निद्रा अने प्रचला, ए बेना क्षय थवाथी चार कर्मनुं स्थान छे। अने ते पण क्षय थवाथी क्षीणकषाय काळना अंतमां त्रीजुं स्थान छे.
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सूत्रम
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