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आचा०
॥४५३॥
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| ले जो आवी रीते संसारी मनुष्यो पाप करनारा छे. तो साधुए शुं करनुं, ते आचार्य कहे छे.
के जे मनुष्यो शिकारी विगेरे होय, अथवा विषयय कषायमां रक्त होय, तो तेवा बालजीव साथे हास्यादि तथा संग न करवो; | जो पापीनो संग करे तो मांहोमाई लडाइ यतां वैर बधे छे, अने परस्पर वैर लेवानो प्रसंग आवे छे. जेमके गुणसेन राजाए जुदी जुदी रीते करेला हास्यना कारणे अभिशर्मा ब्राह्मण साथै वैर वधीने नव भव सुधी चाल्युं. [समरादित्य चरित्रमां तेनी कथा छे के अभिशर्मा ब्राह्मण कुरुप जोइ राजकुमार गुणसेने तेनी हांसी करो. तेथी ब्राह्मणे कंटाळी तापस वनी तप करी विख्यात थयो. अनुक्रमे गुणसेन राजा बनी ते तापस पासे आव्यो पूर्वनी वात सांभळी राजाए क्षमा चाही पारणामां जमवानुं आमन्त्रण क. त्रणे वार आमन्त्रण वखते राजा भूली गयो, अने तापस पालो गयो. तेथी तापसने आ दरेक खते हांसो लागी, अने वैर लेवानुं नियाणु कर्यु. गुणसेन ते समरादिस्य थयो, अने नव भव सुधी तेनी साथे तापसनुं बैर रहूं, माटे हांसी न करवो, तेम हांसी कर| नारनो संग पर न करवो] एज प्रमाणे विषय संग विगेरेमां पण दुःख अने वैर वधवानुं जाणी तेवाओनो संग न करवो. जो एम छे, तो साधुए धुं करवुं ? ते कहे छे.
तम्हातिविज्जो परमं तिणच्चा, आयंकदंसो न करेइ पावं, अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिच्छिदियाणं निक्कम्मदंसी (सू० ४) काव्य.
बाळ (पापी) नी संगतिथी वैर वधे छे, तेथी अति विद्वान् (गीतार्थ) सुनि परम एटले मोक्षपद अथवा सर्व संवररुप चारित्र
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सूत्रम ॥४५३ ॥