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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५२७॥ %%% www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भक्त वनशे आ गायाना पदने सर्वे वादीओ पोताने घेर लइ गया. सातमे दिवसे राजाना सभामंडपमां सर्वे वादीओ आव्या मां परिवाड (परिवाजक) बोल्यो. भिक्खं पविद्वेण मएज दिहं, पमयामुहं कमलविसालनेत्तं । वक्खित्तचित्तेण न सुहु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २२८ ॥ भिक्षामा प्रवेश करेला में आजे प्रमदा (युवान स्त्री) नुं मोढुं जोयुं जेमां कमळ सरखां नेत्र हतां पण मारुं व्याक्षिप्त चित्त होवाथी मने बरोबर खबर न पडी, के तेना मोदामां (कानमां) कुंडल हतां के नहि ( आ गाथानो अर्थ सुगम छे परंतु कुंडल इतुं के नहि तेनी शंका रहेवानुं कारण फक्त तेणे चित्तनो व्याक्षेप बताव्यो. ) आ वादीमां वीतराग (त्याग) दशा न जोवाथी, तथा पूर्वे आपली गाथा प्रमाणे अर्थ न मळवावी, तिरस्कार करीने राजाए रस्तो पकडाव्यो, पछी वापस बोल्यो: फलोदएण मि हिं पविडो, तत्थासणत्था पमया मि दिट्ठा। वक्खित्तचित्तेण न सुहु नायं, सकुडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २२९ ॥ फलना उदय बडे हु घरमा पेठो, त्यां आसन उपर स्त्री वेठेली हती, पण व्याक्षिप्त चित्तथी में बराबर निर्णय न कर्यो, के ते खीना कानमां कुंडल ले के नहि. ? ( आमां पण वैराग्य न होवाथी तेने रजा आपी.) पछी बौद्ध अनुयायी बोल्यो: मालाविहारंमि मएज दिहा, उवासिया कंत्रणभुसियंगी । वक्वित्तचित्तेण न सुहु नायं, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५२७॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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