Book Title: Acharanga Stram Part 03
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 178
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५९९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवी उत्तम भावनाओ आगमने न भणवाथी आपरिमलित मतिवाळाने होती नथी. आ बतावीने गुरुमहारज शिष्योने कहे के के:- आ एकला फरनाराने बाधा दूर करवी मुश्केल होवाथी अजाणपणाथी पीडा देखवा विना मारा उपदेशयी तुं बहार न जतो पण आगमने अनुसरी सदा आपणा गच्छमां रहेनारो वन, सुधर्मास्वामि कहे छे:-आ अभिप्राय कुशल एवा वर्धमानस्वामीनो छे, | के जेम, एकला भटकनाराने दोषो छे, तेम आचार्य पासे हमेशां रहेनाराने गुणो छे. हवे, आचार्यना समिपमा रहे; तेणे कर ते कहे छे:- ते आचार्य महाराजनी दृष्टि जेमां होय; ते प्रमाणे हेय उपादेय पदार्थोमां वर्तं (जेम कड़े तेम करं) अथवा संययमां दृष्टि ते 'दृष्टि' अथवा तेज आगमज दृष्टि एटले आगममां बताव्या प्रमाणे सर्व व्यवहार करतो; एटले, आगमयां बतान्या प्रमाणे सर्वसंगथी विरति करी (ममख-त्यगी) ने संयमकृत्य करवां तथा पुरस्करने सर्वत्र आगळ स्थापवो; अने ते प्रमाणे आचार्य संबन्धी | वर्तवं तथा आचार्यनी संज्ञा प्रमाणे आचरतुं. अर्थात् तेमनुं कहेलुं ध्यानमां लड़ पछी ते प्रमाणे वर्तनुं पण पोतानी मतिकल्पनाथी कंड पण कार्य न करे तथा गुरुनुं निवेशन ते पोतानुं करे; एटले सदा गुरुकुल-वास सेवे; त्यां गुरुकुळमां बसतो केवो थाय ? ते कहे छे. यतनाथी विहार करनारो थाथः यतनाथी पलेणा डिकरतो माणीने उपमर्दन न करे. वळी, आचार्यना चित्त (अभिप्राय) प्रमाणे क्रियामां प्रवर्ते ते. चित्तनिपाती कहेवाय छे, तथा गुरु कोइ जग्याए गया होय तो, ते तरफ ध्यान राखे; ते पंथ निर्ध्यायी कहेवाय; तथा गुरुना संथारानो देखनार ते संस्तारक मलोकी. अने गुरु मुख्या होय; तो आहार शोधे; ते विगेरे दरेक रीते गुरुनी आराधना करवायी सदा गुरुनो आराधक बने. बळी, दरेक वखते गुरुनो अवग्रह कार्यप्रसंग सिवाय आगळपाछळ साचवे, (कार्यप्रसंगे अवग्रहमां जाय, नहि तो सादात्रण हाथनी अंदर न जाय आ सूत्रथी ऋण इर्या उद्देशकमां रही छे. ( तेमां इर्यासमिति नुं For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५९९॥

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