Book Title: Acharanga Stram Part 03
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

View full book text
Previous | Next

Page 163
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥५८४॥ 5. स्वेच्छाए चाली तारु अहित करे छे, तेथी एनेज सुमार्गे चालीने वश कर, बीजा बाह्य शत्रु साये युद्ध करवानी शी जरुर छ ? अंदर | रहेला तारा छ रिपुनो जय करवाथी वधुं कार्य सिद्ध यशे, तेथी बीजु कंइ पण वधारे दुष्कर नथी पण आज संयम विगेरे सामग्री है अगाध संसारसमुद्रमां भटकता जीवने करोडो करोडो (हजारो) भवे पण मळवी दुर्लभ छ ! ते मूत्रकार बतावे छे: जुद्धारिहं खल्लु दुल्लहं, जहित्य कुसलेहिं परिन्नाविवेगे भासिए, चुए हु बाले गन्भाइसु रज्जा, अस्सि चेयं पवुच्चइ, रूवंसि वा छणंसि वा, से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे, इय कम्म परिणाय सबसो से न हिंसइ, संजमई नो पगब्भइ, उवेहमाणो पत्तेयं सायं, वण्णाएसी नारभे कंचणं सवलोए एगप्पमुहे विदिसप्पइन्ने निविण्णचारी अरए पयासु ॥१५॥ आ औदारिक शरीर भाव युद्ध करवाने योग्य छे, (खलु शब्द निश्चयना अर्थमा हे, अने ते भिन्न क्रमवाळो छे) ते खरेखर दुर्लभज छे, अर्थात् ते दुःखथीज प्राप्त थाय छे, कयु छ केननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम, मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥१॥ आ अति दुर्लभ मनुष्यपणुं अगाध संसारसमुद्रमां पडेलाने खरजुवा (अगीयो कीडो) जेवू के वीजळीना झबकारा जेवू थोडी काळ रहेनारं मळेलु छ ! विगेरे समजवु जोइए. उन्नावरुन For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190