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आचा०
॥५६७॥
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जे मोक्षनो मार्ग छे, तेज विद्या छे, तेथी उलटी अविद्या छे, तेनाथी पण तेओ परि [वधी रीते] वेरायलां छतां मोक्ष कहे (अर्थात् अज्ञान दशामां रही कुकर्म करी तेनाथी मोक्ष माने) तेओ धर्मने जाणता नथी, हवे धर्मने जाणनारो शुं मेळवे ते कहे छे. 'आवट्ट-भाव' आवर्त्त ते संसार छे. ते संसारमां कुबाना अरटना न्याये जन्ण मरणनुं भ्रमण कर्या करे छे, अने नरक विगेरे चार गतिमां ते वारंवार जन्म ले छे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे, आ प्रमाणे लोकसार अध्ययनमा प्रथम उद्देशो समाप्त भयो.
लोकसार अध्ययननो बोजो उद्देशो
हवे बीजो उद्देशो कहे छे, ते नो आ प्रमाणे संबंध है. पहला उद्देशामां कछु के एक पर्यायवाळ (त्यागी) बनीने पण सावय अनुष्ठान करवाथी तथा विरति ( चारित्र) न पाळवावी तेये मुनि न कहेवो, आ बीजा उद्देशामां तेनाथी उलटो ते चारित्र पाळीने | पाप अनुष्ठान त्यागनाराज मुनि कहेवाय छे, ते कहे छे. आ संबंधथी भावेला उद्देशानुंं पहेलुं मूत्र कहे छे.
आवन्ती केयावन्ती लोए अणारंभ जीविणो तेसु, पत्थोवरए तं झोसमाणे, अयं संधीति अदक्खू, जे इस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति अन्नेसी एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, उहिए नो पमायए, जाणित दुकूखं पत्तयं सायं, पुढो छंदा इहमाणत्रा पुढो दुकूखं पवेइयं से अधि
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सूत्रम्
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