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आचा०
॥ ५१९॥
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विषयने अनुकूल मवृत्ति (इच्छा) प्रमाणे अहीं विषयना सन्मुख जेमां कर्मनो बन्ध छे, ते तरफ अथवा संसारना सन्मुख प्रकर्षपणे जेओ गएला छे ते इच्छा प्रणीत छे. जेओ तेवा छे. सेओ वंकनी अथवा असंयमनी जे मर्यादा छे, तेनो आश्रय लीला ते कानिकेत छे, अथवा जेमनुं वांकु निकेत छे, नेवा छे, (व्याकरणना नियमथी मूत्रमांकनों काथयेल हे.) अने जेओए असंयमनी मर्यादा (हद) लीपी ले, ते काल (मोत)थी, घेराता कर्मनां उपादान कारण जे सावध कर्मनां अनुष्ठान छे, तेमां रक्त बनीने वारं वार एकेन्द्रिय जाति विगेरेमां नवां नवां जन्म मरण भोगवे छे, अथवा काल ग्रहितनो बीजो अर्थ एम लेवो के केवलाक जीवो एम चितवे के धर्म करीभुं, चारित्र लइथं, एवी आशाथी बेसी रहे, (अथवा आ हिताग्निना व्याकरणना प्रयोगयी अथवा आर्य वचन प्रमाणे परनिपात करतां ) गृहितकाल शब्द लेतां, केटलाक एवं इच्छे के पाछली वयमां के सरगना अंत समयमा अथवा पुत्र रा पी धर्म कर्थ, हमणा नहि, एवी उमेद राखनारा सावय आरंभमां रक्त बनी इच्छा प्रमाणे वक्र असंयममा रहने भविष्यने भरोसे रहने धर्म करवानुं राखी वर्तमानमा पाप रक्त वनी पृथक पृथक (जुदी जुदी) एकेन्द्रिय जाति विगेरेमां जन्म-मरण करे छ.
बीजी प्रतिमां 'एत्थ मोहे पुणो पुणो' पाठ हे, तेनो अर्थ आ छे, के उपर कहेली ने इच्छा एटले, इंद्रियोने अनुकूल कर्मरूप-मोहमांडला वारंवार एव पाप करे छे के, तेनी संसारथी अमच्युति (नमुक्ति ) थाय, संसारभ्रमण कर्याज करे; तेथी शुं थाय ते बतावे :
| इहमेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवइ, अहोचवाइए फासे पडिसंत्रेयंति, चिद्वं कम्मेहिं कुरेहिं चिट्ट परिचिहड़, अचि कूरेहिं कस्मेहिं नो निद्धं परिचि, एगे क्यंति अदुवावि नाणा नाणी वयंति अदुवावि एगे (सू० १३२)
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सूत्रम् ॥५१९॥