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उवेहि णं बहिया य लोग, से सबलोगंभि जे केइ विष्णू, अणुवीइपास निकूखत्तदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति, नगमुयच्चा धम्मविउति अंजु, आरंभजं दुक्खमिणति णच्चा, एवमा संमत्तदसि
सूत्रम् i णो, ते सवे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति इय कम्मं परिणाय सवसो (सू० १३४) H॥५३०॥
___ पूर्वे बतावेलो संसारपिय लोक समूह छे, तेने धर्मथी विमुख जाणीने तेनी उपेक्षा कर, अथवा तेनुं अनुष्ठान सारं न मान, च शब्दथी जाणवू के तेनो उपदेश न सांभळ, पासे न जा, तेमनी सेवा न कर तथा विशेष परिचय न कर, (आ बधुं नवा शिष्यने गुरु समजावे छे तु न जइश-विगेरे-के जो त्यां जाय तो साधु धर्मनी विरुद्ध तेओ स्नान; इच्छित भोजन, मठ बांधी रहेQ विगेरे आचरे छे, तेमां दिल लागवाथी ते स्वीकारतां साधु गृहस्थ पण न रह्यो, न पुरो साधु थयो, परंतु गीतार्थ साधु जरुर पडतां परिचय करे तो बखते तेवाने पण प्रसंगोपात ठेकाणे लावे ) जे संसारपिय बेपधारीनो परिचय न करता तेनी उपेक्षा करे ते क्या उत्तम गुणो मेळवे, ते कहे छे केः-ते निस्पृही साधु वधा मनुष्यलोकमां जेओ विद्वान (आत्मार्थी) छे, तेमनाथी पण सर्वोत्तम विद्वान थशे.
___ प्रश्नः-लोकमां केटलाक विद्वानो छे, के तेमां आ श्रेष्ठ थशे ! 'अणुवीइ' विगेरे जे केटलाक निक्षिप्त दंडवाळा छे, अर्थात् M जेमणे काया मन वचन वडे प्राणीने दुःख आपनारो दंड त्याग को छे, ते विद्वानो थाय छेज, एबुं विचारीने हे शिष्य ! तुं तेमने जो |
प्रश्नः-जीवोने दुःख आफ्नारा तेओ क्या छे ! ते कई छे, के जेमणे धर्मनुं तत्त्व जाण्यु छे तेवा सखवाळा साधुओ दुष्ट # कर्मने त्यजे छ, भने ते प्रमाणे जेओ दन्डथी दूर रहे छे, तेओ आठे कर्मने हणे छे, तेज विद्वन् छे. तेवू आंखो वींची विचारीने में
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