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15 ते पर थइ पाछा स्व थाय. अने केटलक फरी देखाव देता नथी. ( अर्थात् समुद्रमा ताणातां अपार समुद्रमा ज्या भेगा बानो
तथा स्थिर रद्देवानो तथा मळवानो निश्चय नथी, तथा थोडो काळ पण एकता रहेबानो निश्चय नथी, त्यां कोण पोतार्नु के पारकुंछे?) टू आचा०
विचिन्त्यमेतद्भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित् पुरतो न पश्चात् । ॥५३६॥ स्वकर्मभिर्धान्तिरियं ममैव, अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् ॥ २॥
॥५३६॥ ___ उपर प्रमाणे विचारी हुँ एकलो ई, अने मारे पहेलां के पछवाडे कोइ नथी, परंतु मोहनीयकर्मथी आ एक मारा तारानी भ्रांति छे. खरीरीते तो पहेलां पण हुं अने पछी पण हुँ पोते पोतानो वजन छु एवी भावना तमारे भाववी.
सदकोऽहं न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित्। न तं पश्यामि यस्याहं नासो भावीति यो मम ॥३॥ हुँ सदा एकलो छ. मारो कोइ पण नथी, तेम हुँ बीना काइनो पण नथी, हुँ जेनो थाउं, तेवो मने कोइ देखातुं नथी ! ( कर्मसबंध छुटतां सौ रस्ते पडे हे.) तेम मारो भविष्यमा याय तेवो पण कोइ नथी. एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥ ४॥
पोते एकलोज कर्म बांधे छे, तेनां फळ पण एकलो भोगवे हे, अने जन्मे छे. अने परे छे पण एकलोज तथा भवांतरमा पण 1 एकलोज जाय छे बिगेरे चितवे बळी ते भव्यात्मा साधु शुं करे ? ते कहे छ:-"कसे हि अप्पाण जरेहि अप्पण" विगेरे. पर (जुदो) | आत्मा जे 'शरीर' छे. तेने तपरुप कष्ट वडे अथवा चारित्र विगेरेथी कृश (दुर्बल) बनाव, अथवा कृष एटले कर्म तोडवामां हुं समर्थ 18
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