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आचा०
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अथवा नावडे वस्तु तत्त्व यथावस्थित देखाडाय (कहेवाय) ते दर्शन एटले उपदेश छे, अर्थात् महावीर (वर्धमान) स्वामीनुं कलुंछे ते हुं हुं हुं पण स्त्रबुद्विथी नथी कहेतो, ते सर्वदर्शी पश्यक केवा छे, के जेतुं आ दर्शन छे ते कहे छे, 'ववरय' विगेरे-जेनुं द्रव्य भावथी (सर्व जोवोने दुःख देवारूप) शस्त्र बने मकारे दूर थयुं छे, अथवा शस्त्रथी पोते दूर रहेला छे, अहीं भावशस्त्रमां असंयम अथवा कषायो जाणत्रा, तेनाथी पोते दूर छे. तेनो भावार्थ आ छे के:--
तीर्थकरने पण कपायने वया सिवाय निरावण वधा पदार्थने देखना परम (केवळ ) ज्ञान प्राप्त थतुं नथी, तेना अभावमा मोक्ष सुखो अभाव छे, एथी बीजो पण मोक्ष वांक साधु जे तेनो उपदेश माने छे अने तेना मार्गे चाले छे तेणे पण कषाय antara are aार्य बतावो बीजापण तीर्थकरनां विशेषण बतावे छे. 'पलियतकरस्स' एटले वधां कर्मनो अथवा संसा रनो अंत लाववानो जे यत्न करे ते पर्यतकर छे, तेनुं आदर्शन छे.
हवे जे तीर्थकरे संयमने विन करनार कषाय शखने दूर करी संसारनो अंत कर्यो तेम वीजो पण साधु जे तेनुं कहेलुं करना होय ते पण करे, तेनुं बतावे छे.
'आयाण' विगेरे जेनावडे आठ कर्म आत्म प्रदेश साथे एकमेकपणे थाय ते आ दान है, अथवा हिंसा विगेरे द्वार अथवा अढारे पापस्थान छे. तेनी स्थितिनुं निमित्त कषायो होवाथी ते आ दान छे. ते कपायोनो वमन करनारो स्वकृत भिद (कर्म भेदनारो) बने छे. अर्थात् पोते (भज्ञानदशामा) पूर्वे जे कर्मों अनेक भवमां एकठां कर्य होय; तेने भेदी नांखे ते स्वभिद जाणवोः अने जे कमना आदान (बीजरूप) - कपायोने रोके, ते अपूर्वकर्म प्रतिषिद्धमां प्रवेश करनारो छे, अने पोते पोतानां पूर्वकर्मनो
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सूत्रम् ॥૪૦॥