Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 14
________________ श्रीमुनिसुन्दरसूरिविरचित-- श्रीअर्बुदगिरिकल्पः॥ ॐ नमः ॥ भक्तिप्रणम्रसुरराजसमाजमौलिमन्दारदाममकरन्दकृताभिषेकम् । पादारविन्दमभिवन्य युगादिभर्तुः, श्रीमन्तमदगिरि प्रयतः स्तवीमि ॥ १ ॥ यः स्वीकृताचलपदेन महेश्वरेण, कामान्तकेन गणनाथ निषेवितेन । शोभा विभर्ति परमां वृपभध्वजेन, श्रीमानसौ विजयतेऽर्बुदशैलराजः ॥ २ ॥ यः सन्ततं परिगतो बहुवाहिनीभिनीनाक्षमाधरनिषेवितपादमूलः । राजखमद्रिषु विभर्ति गिरीन्द्रसूनुः ॥ श्रीमा० ॥ ३ ॥ आदिप्रभुप्रभृतयो यदुपत्यकायां कासहृदादिषु पुरेषु जिनाधिनाथाः। प्रीणन्ति दृष्टिममृताअनवज्जनस्य ॥ श्रीमा० ॥ ४ ॥ श्रीमातरं नृपतिपुञ्जसुतां विवोद्धं पद्या द्वियुग दश निशि प्रहरद्वयेन । योगी व्यधत्त निजमन्त्रबलेन यत्र ॥श्रीमा० ॥५॥ (१) मन्ये तदस्ति भुवने न खनी न वृक्षो नो वल्लरी न कुसुमं न फलं न कन्दः । । यदृश्यतेऽद्भुतपदार्थनिधौ न यत्र ॥ श्रीमा० ॥ ६ ॥ यत्तुगङ्गमवलम्व्य रवे रथस्य रथ्या नभस्यऽनवलम्ब विहारखिन्ना। मध्यन्दिने किमपि विश्रममाप्नुवन्ति ॥ श्रीमा० ॥ ७ ॥ रम्यं यदीयशिखरं सुखमावसन्ति अामा द्विषा द्विषदधृष्यरमाभिरामाः। नैकेच गोगलिकराष्ट्रिकतापसाद्याः ॥ श्रीमा० ॥ ८ ॥

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