Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 127
________________ १११ चैत्यस्य तस्य सुदिने गुरुभिः प्रतिष्ठा चक्रे च हीरविजयाभिधसूरिसिंहैः ॥ विक्रमसंवत्की तेरहवीं शताब्दीमें गुजरातके अणहिल्लपुर (वर्तमान पाटन) नगरमें चौलुक्यवंशी वीरधवल नाम राजा राज्य करता था। वह बड़ा पण्डित था और सुकविभी था । उसकी रचीहुई कितनीही पुस्तकोंका पता चला है । कुंछ शायद प्रकाशितभी होगई हैं । उसका प्रधान सचिव था वस्तुपाल । उसके एक भाईका नाम था तेजपाल । पर यह तेजपाल खम्भातनिवासी सेठ तेजपाल नहीं। वस्तुपाल तो वीरधवलका महामात्य था और साथही महाकविभी था, महादानीभी था और महाधार्मिकभी था। उसका भाई धवलका नगर (वर्तमान धोलका) में मुद्राव्यापार अर्थात् रुपये पैसेका रोज़गार करता था। वह शायद गुर्जरनरेशका अमात्यभी था । इन दोनों भाईयोंने गिरिनार पर्वतपर कितनेही मंदिर बनाये और लम्बे २ लेख खुदवाकर अपने कीर्तिकलापका उल्लेख कराया। गिरिनारके लेखों से पहिले ९ लेखोंमें इन दोनों भाईयोंके वंशादि तथा कार्योंका विस्तृत वर्णन है । इन लेखोंमेंसे कुछ लेख तो डाक्टर जेम्स वर्जेसने पहिले पहिले प्रकाशित किये थे। पर पीछेसे सभी लेख एक और अंगरेजी पुस्तक (The Revised Lists of Antiqu arian Remains in the Bombay Presidenoy, Vol, VIII) में प्रकाशित हुये हैं। "गिरिनार इन्सक्रिप्शन्स" नामक पुस्तकमेंभी यह छपे हैं । पर मुनिवर जिनविजयजीका कहना है कि उनके अंग्रेजी अनुवादमें

Loading...

Page Navigation
1 ... 125 126 127 128 129 130 131