Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 23
________________ इस लिये उसने उस राजमान्यमंत्रीसे किसीभी प्रकारका खौफ न खाकर उत्तर दिया-साहिब! इस वक्त मैने अपने घोडेको रोकने के लिये कुछ कसर नहीं की तोभी जब घोडा मेरी शक्तिसे वाहिर होगया तो उसमें मेरा क्या दोष ? आप मेरे निर्दोष होनेपर भी मेरी इस थोडीसी भूल को महाराज तक पहुंचाना चाहते हैं तो भले महाराज जो मुझे चुलायेंगे तो मालिक हैं मगर उनके सामने खडा होकरभी इस सत्य हकीकतको जाहिर करनेमें मैं कुछ दोप नहीं समझता । विमलके इस जवाबको सुनकर मंत्रीको औरभी गुस्सा आया, वह तिरस्कारसे बोला “वीरमंत्रीका पुत्र जानकर मैं आज तेरी इस भूलको मुआफ करताहूं । जा चला जा!! मगर ख्याल रखना कि ऐसी भूल फिर कभी न होनी पावे" यह कहकर दामोदरमंत्री आगे बढे और विमलकुमार पीछे लौटकर अपने घर चला आया । ॥ स्थानान्तर ॥ विमलकुमारके चेहरे पर सुस्ति छारही थी, वह प्रसन्नचित्तसे किसीके साथमी बोलता नहीं था, उसकी माता वीरमती एक वीरपती थी और बडी चतुरा थी, उसने बच्चेको छातीसे लगाया और धीमेंसे पूछा, बेटा! आज तेरे चेहरेपर उदासी क्युं छा रही है ? आज तूं किसीसेभी खुश होकर चोलता नहीं क्या कारण। कुमारने आजकी कुल हकीकत अपनी माताके आगे यथार्थरीतिसे कह सुनाई, इस बातको सुनकर उसे ख्याल आया कि मैने आगे भी कईदफा सुना है

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