Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 35
________________ १७ पंडितोंके विपयमें अनेक तरहकी चर्चा हुई, कुछ देरतक और प्रासङ्गिक बातें होती रहीं, भीमदेव - महाराजकी आज्ञासे सभा बरखास्त हुई । महाराज भीमदेव और उनके कुछ खास आदमी सभामें बैठेथे, बाहिरसें छडीदारने आकर प्रार्थना की- महाराज ! देशावरोंमें फिरताहुआ एक अपना दूत हजूरके दर्शनोंका उत्कंठित है । भीमदेवने कहा - आनेदो, दूत आया और नमस्कार कर सामने खडा रहा । भीमदेवने उसकी तर्फ देखकर गंभीरता से पूछा- क्युं क्या खबर है ? कुछ कहना चाहते हो ? । दूतने फिरसे नमन कर हाथ जोड अपने वक्तव्यको कहना शुरू किया, वह बोला - साहिब ! मैं आज एक अनिष्ट जैसा समाचार महाराजाधिराज के चरणोंमें निवेदन करने आया कहनेको जी नही चाहता तोभी विना कहे सरे ऐसा नहीं । सिन्धु और चेदीदेशके राजा आपश्रीकी आज्ञा माननेसे इनकारी हैं, इतनाही नहीं बल्कि महाराजा साहिबकी कीर्त्तिके भी विरोधी हैं। गुजरातके छत्रपति और राज्यरक्षक मंत्रीaint निन्दाके उन्होंने ग्रन्थ तय्यार कराए हैं । इन राजाओंकी जैसी इच्छा है वैसा इनके पास बल भी है, उसमेंभी सिन्धु नरेशने तो अन्य कई राजाओंको अपने वशवत्तभी करलिया है इसलिये अपने लिये बंदरको दारू जैसी घटना बन रही है, आजकल सिन्धुराज बडाही अहंकारमें आरहा है, यह बात मेरे सुननेमें आई कि तुरन्तही आपको खबर देनेके लिये आया हूँ । भाव० २

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