Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 69
________________ ५१ खंभात आये, वहां सदीक नामक एक धनाढ्य मदान्ध मनुष्य रहता था, वह वडाही घमंडी था । कभी कभी वह गरीबों के साथ घोर अन्याय कर दिया करता था, तोभी उसे कोई कुछ कह नही सकता था, वह ऐसा तो अभिमानी था कि किसी किसी छोटे मोटे राजा को भी कुछ हिसावमे नही गिनता था । जो कोई राज्याधिकारी खंभातके अधिकारपर आता था उसको सदीकके पास मिलनेको जाना पडता था । "भरुच" वन्दरके राजा शंखके साथ उसकी मित्रा थी, वह राजा उसे अपना आत्मबन्धु समझता था । वस्तुपाल मंत्रीने उसके किये एक अपराधके निर्णयके लिये उसे अपने पास बुलाया, परन्तु उसने अमात्यका और राजा वीरधवलका तिरस्कार करनेमेंभी कसर न की । मंत्री ने कहलाया कि - " राज्यसत्ता बलीयसी" है, तुमको हमारे पास आकर पूछी हुई बातोंका जवाब देना खास जरूरी है, एक तो अपराध करना और दूसरा राज्यको भी तृणवत् मानना भयंकर दोष है । सदीक इन सब बातोंको बडे अनादरसे सुना न सुना कर दिया, इतनाही नही बल्कि अपने मित्र शंखके पास मनमानी मंत्रीराजकी शिकायत भी की । शंखकी और वस्तुपालकी आपसमे लडाई मची, जयकी वरमाला वस्तुपालके गलेमेही पडी । धर्मशास्त्रोंका फरमान है कि "यत्र धर्मो जयस्तत्र" फिलहाल शंखकी हार हुई, उसके खजानेमेसे वस्तुपालको बहुत धन मिला । इस भुजाके टूट जानेपरभी सदीकका

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