Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 115
________________ यह बात शोभनदेवने भी सुनी, तब उसके मनमें चोट लग गई कि अहो ऐसे सज्जनस्वामीकी हम मन इच्छित आजीविका खावें और काम न करें तो हमारे जैसा दुर्जन कौन ? बस वह दिन और वह घडी-काम करना शुरु हुआअब कहना क्या था ? देवताओंकोभी दर्शनीय सुंदर मंदिर तय्यार हुआ। उस घटनाको और शोभनदेवकी उस कार्यकुशलताको देखकर आचार्य श्रीजिनप्रभसूरिजीने अपने वनाये तीर्थकल्प ग्रंथमें जो प्रशंसा की है वह नीचे दर्ज है। अहो शोभनदेवस्य, सूत्रधारशिरोमणेः । तचैत्यरचनाशिल्पान्नाम लेभे यथार्थताम् ॥ १॥ ॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥

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