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सं. १२८७ में हुई है । ऐसेही शासन नायक महावीर स्वामीका, और चौमुखजीका मंदिर भी प्राचीन और दर्शनीय है, परंतु ऐतिहासिक प्रमाणोंसे वह दोनो मंदिर इनसे पीछेके मालूम देते हैं।
प्रसंगसे एक बात औरभी कह देनी जरूरी है कि, विमलमंत्रीने जब यहां मंदिर बनवानेकी तय्यारी की, तव ब्राह्मणोंने उनका सामना किया, विमलकुंमार उस समय चंद्रावती और आवुपर स्वतंत्र सत्ता भोगता था तोभीउसने मान लिया कि, किसीकी आत्माको क्लेश पहुंचाकर धर्मस्थान वनाना वीतराग देवकी आज्ञाके विरुद्ध है, अगर न्याय दृष्टिसे देखा और सोचा जाय तो मेरे स्वाधीनकी प्रजाको मेरा कहा मानना ही चाहिये तोभी शांतिसे सबके मनकी समाधानीसे इस कार्यका समारंभ किया जाय तो धार्मिक मर्यादाका बहुत अच्छी तरहसे पालन होसकता है, इसवास्ते ब्राह्मणोंको पूछा गया कि, तुम इस कार्यमें क्यों रुकावट करते हो? इसके जवाबमें प्रतिपक्षी दलने यह कहा कि यह तीर्थ जैनोंका नहीं है, यहां जैनोंका कोई प्राचीन चिन्हभी विद्यमान नहीं है । विमलकुमारने तेलेकी तपस्या द्वारा सामने बुलाकर अंबिका माताको इस विषयका खुलासा पूछा तो माताने उसी जगह किसी वृक्षके नीचे जमीनमें रही हुई जिन प्रतिमा वतलाई और कहा कि, "कितनेक समयसे यहां जैन चैत्य मौजूद नहीं है तथापि यह तीर्थ ही जैनोंका नहीं है यह कहना सत्यका प्रतिपक्षी है" [ देखो पृष्ठ ३१]