Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 45
________________ २७ दरके मनकी कुटिलताका ऐसा अनुभव करा दिया कि तकाल राजाकी दामोदरपर अतिशय अप्रीति होगई । सामन्तने विमलकुमाररूप " कोहिनूर" के खोहे जानेका इस कदर अफसोस मनाया कि सुनकर राजा रो पडा, राजाने पूछा सामन्त ! अब क्या करना चाहिये ? । सामन्तने कहा आपने बहुत साहस किया है, बाण हाथसे छूटगया है अब मैं क्या कहुँ ? | राजाने कहा जो गई सो गई, विमलकी साची भक्ति की तर्फ ध्यान देकर अफसोस होता है परन्तु अब क्या करना ! विमलकुमारके साथ और पाटणकी जैनप्रजाके साथ कैसा बर्ताव करना ? | १ सामन्त ने कहा मेरे ख्यालमे तो यह बैठता है कि“विमलकुमारके लिये एक सभा बुलाई जाय, जिसमे अपनी तर्फसे हुई हुई उतावलका संक्षेपमे दिग्दर्शन कराकर उनको निर्दोष ठहराकर और चन्द्रावतीका दंडनायक बनाकर पाटण बुलाने का फरमान भेजा जाय, और उनके बदले यहांपर श्रीदत्त शेठको दंडनायक और मोतिशाह शेठको संघपति वनाया जाय । इतना करनेपर राज्यकी प्रशंसा होगी, पापका प्रायश्चित्त होगा और जैनप्रजाका मन शान्त होगा । यह बात राजाको बिलकुल पसंद आई, उन्होने श्रीदत्त और मोतिशाहको उच्चपद देकर विमलकी कृतज्ञताका परिचय कराते हुए एक आज्ञापत्र लिखाकर उसपर अपने खुदके दस्तखत कर अपने विश्वासपात्र दो मंत्रियोंको मेजा, उन्होने विमलकुमारके पास जाकर सारा

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