Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 55
________________ ३७ कुछ थोडेही समयमें आचार्य महाराजकी मनोवृत्ति एक विचारमें गुंथाई, उन्होंने सोचा-जैसे जैसे जीवोंके अच्छे बुरे भाग्य होते हैं वैसीही उनको धर्मसाधनकी सामग्री मिलजाती है। महीमंडलके अधिष्ठाता राजा अथवा उनके परिचारक कार्यवाहक सामन्त सलाहकारक मंत्री धर्मात्मा होते हैं तो हरएक आदमी अपनी इच्छित धर्मक्रियाएं खुशीसे करसक्ता है। मछली अपनी आत्मसत्तासेही तरती है तो भी उसे जलकी सहायता अवश्यही उपयुक्त होती है। ___ सार्वभौम महाराजा भरतचक्रवतिके समय धर्मीजनोंको धर्मकार्यों में बडा उत्तेजन मिलता था, इसलिये सर्व प्रजा सदाचारपरायण थी। उनके पीछे सगरआदि प्रजापालोंने और उनके सहानुभूति देनेवाले पदाधिकारियोंने भी जिनशासनकी ध्वजाको खूब फरकाया था। चरम तीर्थकर श्रीमन्महावीर परमात्माके शासनमेंभी श्रेणिकराजा संप्रति नरेश कुमारपाल भूपाल आदि अनेक धर्मी राजाओंने, और अभयकुमार उदयन आम्रभट्ट वाग्भट्ट आदि सत्पुरुषोंने धर्मकीधुराको अच्छीतरह वहन किया है । वर्तमानसमयमें तादृश महानुभाव प्रभावक पुरुषका अभाव होनेसें ठिकाणे ठिकाणे अनार्यलोगोंका साम्राज्य फैलता जाता है, धर्मस्थान नष्ट किये जा रहे हैं, धर्मीजन अनेक आपत्तियोंसे ग्रस्त होते जाते हैं । बल्कि विकराल कलिकाल अपना अतुल प्रभाव जमा रहा है। ऐसे समयमें किसीभी शासनप्रभावक उत्तम पुरुषका होना खास आवश्यक है।

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