Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 62
________________ ४४ सोचकर उन्होंने राजाको कहा प्रभु ! आपके प्रमत्तभावको देख हमेशा मातहद राजालोग खननी देनेसे इन्कारी होरहे हैं इसलिये एक दफा आपको पृथ्वीदर्शन करनेकी खास प्रार्थना है । राजाके इस बातके स्वीकार करनेपर मंत्रीने फौजको शीघ्र ही तय्यार कर लिया । अच्छे शुभ मुहूर्तमें प्रयाण किया गया । पहले छोटे छोटे राजाओंको वश कर उनसे धन और हाथी घोडे पयादे लेकर सौराष्ट्रपर चढाई की । सर्व कार्योंकी सिद्धिसे सहायक “श्रीशत्रुञ्जय" तीर्थकी यात्रा करके राजाने सौराष्ट्रविजय शुरु किया । सब राजा - ओंको सर करते हुए आप वर्णथली पहुंचे। वहांका राजा आपका शुर - ( सुसरा ) लगता था, पर आज खुद राजा वहां मौजूद नहीं था किन्तु उसके सांगण और चामुंड दो ashavatara वीरधवल राजाकी राणी और वस्तुपाल तेजपालादिके समझानेपर भी अपने अभिमानको न छोडकर सामने लडनेको आए, मंत्रीकी युक्ति और पुन्यप्रबलतासे उनको रणभूमि मारकर राजाने उनके भंडारमेंसे दशक्रोड सोनामोहर, १४ सौ उत्तम घोड़े और ५ हजार सामान्य घोडे लिये । इसके अलावा उत्तम मणी माणेक - दिव्यवस्त्र-दिव्यशस्त्र आदि सामग्री लेकर सांगण और चामुंडके १ यह गाम जूनागढ से दशमाईलके लगभग है रेल्वेका एक स्टेशन है, मुंबई के रईस दानवीरशेठ देवकरण मूलजी यहाकेही वतनी है. यहां कुछ वर्ष पहले श्रीशीतलनाथ स्वामीकी वडी ऊंची प्रतिमा जमीनमे से निकली थी सेठ देवकरण भाईने वडा विशाल मंदिर बनवाकर वह मूर्ति उस मंदिरमे स्थापन की है ।

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