Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 46
________________ कर पाटण आनेका अतिशय आग्रह किया, परन्तु उस वक्त वहां वर्धमानसूरि नामक जैनाचार्य पधारे हुए थे, विमलकुमार उनके उपदेशको सुनकर चिरसंचित अपने पापोंके नाश करनेके प्रयत्नमे लग रहा था । एकदा गुरुमहाराजके मुखारविन्दसे विमलमंत्रिने सुना कि मनुष्य अगर जिन्दगीभर पाप व्यापारोंमे ही लगा रहे, शक्य अनुष्ठानसेंभी धर्माराधनद्वारा परलोकमार्गकों सरल न करे तो उसे अन्त्यसमय बहुत पछताना पडता है, इतनाही नहीं बल्कि नावामें अधिक भार भरनेसें जैसे वोह सागरके तलमें चली जाती है वैसे यह आत्माभी पापके भारसें भारी बनकर नरकादि अधोगतिमें चलाजाता है, विविध विपत्ति जन्ममरण रोगशोकादि अगाधजलसे भरा हुआ यह संसार एक तरहका कुवा है, इसमे पडे हुए निराधार जीवको धर्म रज्जुकाही आधार है, परन्तु परोपकारपरायण आप्तपुरुषके दिखाये उस रजुकों दृढतर आलंबन गोचर करना यह तो मनुष्यका अपना ही फरज है, धर्मार्थकाम मोक्षका साधन सेवन परिशीलन परस्पर सापेक्ष और अबाधित होना ही सिद्धिजनक है, अगर एक वस्तुमें तल्लीन होकर मनुष्य दूसरे पुरुषार्थकों भुला दे तो अत्यासक्तिस प्रारब्ध नष्ट हाता हुआ शप पुरुपाऑकी सत्ताका नाशक होकर मनुष्यकों सर्वतो भ्रष्ट कर देता है, इसलिये धर्मके प्रभावसे मिले हुए अर्थकामको सेवन करते हुए मनुष्यकों चाहिये कि सर्व सुखके निदान आदि कारणरूप धर्मसेवनकों न भूल जावे ।

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