Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 48
________________ ३० हृदयसें बोले - कृपालु ! इन कामोंका करनेवालाभी इस आपत्तिसें बचसके ऐसा कोई उपाय है ? | गुरु बोले- हां है । विमलका चित्त हर्षित हुआ, उनका चेहरा टहकने लगा और बोला- कृपालु ! मुझ पामरपर कृपा लाकर फरमाओ, मेरे जैसा पापात्मा कैसे पावन हो सक्ता है ? क्योंकि मैंने अभिमानके वश - लक्ष्मीकी लालसासें अनेक पाप किये हैं, राजव्यापारमें और उसमेंभी दंडनायक ( सेनापति ) का तो धंदाही पापका है । गुरु बोले- महाभाग ! सुन । संसारमें सभी जीव अज्ञानावस्था धर्ममार्ग विपरीत चलते हुए अन्धसमान हैं, परन्तु ज्ञानचक्षुओंके मिलनेपर तो पापकार्य में प्रवृत्ति न करनी चा हिये | अगर गृहस्थाश्रम के प्रतिबंधसें राजव्यापारकी परतंत्रतासें अथवा धर्मरक्षा राज्यपालन के वास्ते कोइ हिंसादि कार्य करनाभी पडे तो अन्तःकरणसें डरकर करना उचित है कि, जिससे घोर निकाचित बन्ध न पडे । अज्ञानवश किये पापकर्मो का पश्चात्ताप करनेसें और जिन चैत्य जिन प्रतिमा आदि उत्तम काममें धन खर्च - नेसे जगदुपकारी परमात्माकी एक चित्तसे भक्ति करनेसें गुरुसेवा शास्त्रश्रवण तपश्चर्या दान दया आदि कार्यों में लक्ष्मीका सव्यय करनेसें शासनकी प्रभावना करनेसें जीव पापोंसे मुक्त होता है । गुरुमहाराजकी तत्त्वरूप धर्म देशनाको सुनकर विम

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